एआरटी में लेटेस्ट एडवांसमेंट से प्रेग्नेंसी हुई आसान, बेहद सफल और सुरक्षित प्रक्रिया
हापुड़। हर कपल को बच्चों की ख्वाहिश होती है। लेकिन कई बार उनकी बॉडी या सेहत उनका साथ नहीं दे पाती। ऐसी स्थिति में मेडिकल हेल्प काम आती है। ऐसी ही एक नई मेडिकल तकनीक पर सीके बिरला अस्पताल, गुरुग्राम में ऑब्सटेट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजी विभाग की डायरेक्टर डॉक्टर अरुणा कालरा ने विस्तार से जानकारी दी।
फर्टिलिटी यानी प्रजनन को लेकर कई तरह के इलाज उपलब्ध हैं। हालिया वक्त में इस क्षेत्र में काफी तरक्की भी हुई है। आर्टिफिशियल रिप्रोडक्टिव टेक्नीक (एआरटी) यानी कृत्रिम प्रजनन तकनीक ने इलाज को बहुत ही सुरक्षित और सफल बना दिया है।
मेडिकल साइंस लगातार तरक्की कर रहा है और इसका एकमात्र मकसद मरीजों को सही सेहत देना है। पिछले कुछ सालों में मेडिकल फील्ड में कई एडवांस तकनीक शामिल हुई हैं। कृत्रिम प्रजनन तकनीक में काफी तरक्की हुई है। जिसकी मदद से एक हेल्दी बेबी का जन्म कराने के प्रयासों को बल मिला है, साथ ही ये पूरी प्रक्रिया बहुत ही आसान और पूरी तरह सुरक्षित हो गई है।
रोबोटिक्स एंड नैनो टेक्नोलॉजी
प्रेग्नेंसी के लिए इस्तेमाल की जाने वाली इंट्रासाइटोप्लास्मिक स्पर्म इंजेक्शन (आईसीएसआई) प्रक्रिया में रोबोट और नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से काफी मदद मिली है। इसके जरिए अब स्पर्म को अंडाणु में इंजेक्ट करने का रियल टाइम में पता चल जाता है और इससे बेस्ट स्पर्म का चयन करने में भी मदद मिलती है। नैनो टेक्नोलॉजी में, नैनोबोट के जरिए अंडे में प्रवेश करने से पहले ही बेस्ट स्पर्म कोशिका का चयन कर लिया जाता है और फिर वही अंदर भेजा जाता है। जबकि रोबोट की मदद से की जाने वाली आईसीएसआई प्रक्रिया में अंदर जाने वाले हर स्पर्म पर नजर रखी जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में मानव की बहुत ही कम जरूरत पड़ती है। इस तरह के काफी ट्रायल किए जा चुके हैं और उनका सक्सेस रेट 90 फीसदी से भी ज्यादा रहा है। जबकि सर्वाइवल रेट 90.7 फीसदी रहा है।
इस तकनीक में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम के जरिए हर भ्रूण की सैकड़ों तस्वीरों का मूल्यांकन किया जाता है। हर भ्रूण के विकसित होने की संभावनाओं का विश्लेषण किया जाता है। जिस भ्रूण का अच्छा स्कोर होता और उसमें विकसित होने की क्षमता दिखाई देती है उसे ही अंदर ट्रांसफर किया जाता है।
प्री-इम्प्लांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग (पीजीटी)
अगर किसी महिला की फैमिली हिस्ट्री रही है या जेनेटिक डिजीज है या फिर वो एडवांस मैटर्नल एज में पहुंच गई हो तो ऐसी महिला के लिए प्री-इम्प्लांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग (पीजीटी) एक ताजा आईवीएफ तकनीक है। जिसकी मदद से गर्भधारण की संभावना 65 फीसदी तक बढ़ जाती है। पीजीटी में भ्रूण से कुछ कोशिकाओं को सावधानी से विश्लेषण के लिए हटाया जाता है। ताकि बीमारी का कारण बनने वाले हजारों एकल जीन दोषों की सफलतापूर्वक पहचान की जा सके। इस प्रक्रिया से भ्रूण में गुणसूत्रों की संख्या और अखंडता के बारे में बेहतर जानकारी भी मिल जाती है। पीजीटी को एक बेहतर आईवीएफ ट्रीटमेंट माना जाता है जिसमें भ्रूण के डेवलप होने के पांचवें दिन उसका परीक्षण किया जाता है। वहीं, इसके अलावा पीजीटी के जरिए सामान्य आनुवंशिक रोगों जैसे सिस्टिक फाइब्रोसिस, मस्कुलर डिस्ट्रॉफी और सिकल सेल एनीमिया से लेकर डेनिस-ड्रैश सिंड्रोम, हर्लर सिंड्रोम जैसी दुर्लभ बीमारियों का भी टेस्ट किया जा सकता है।
अगर किसी महिला को आनुवंशिक बीमारी है या रही है, क्रोमोसोम्स में बदलाव होता है, एडवांस मातृ आयु है, सेक्स से जुड़ी आनुवंशिक रोग के संचरण को रोकने की आवश्यकता है, गर्भपात हुए हैं या असफल भ्रूण स्थानांतरण हुए हैं तो ऐसी स्थिति में पीजीटी ट्रीटमेंट की सलाह दी जाती है।
टाइम लैप्स टेक्नोलॉजी
नई टाइम लैप्स तकनीक से भ्रूण की सेहत की निगरानी की जाती है। गर्भाशय में भ्रूण के विकसित होने से यूट्रस में इंप्लांट होने तक हजारों डिजिटल इमेज को कैप्चर करके ये निगरानी की जाती है।
जो भ्रूण अच्छी तरह से विकसित हो रहे होते हैं (आमतौर पर 3 में से) डॉक्टर उनकी पहचान कर लेते हैं, जिससे मिसकैरेज के चांस बहुत कम हो जाते हैं और बच्चे का जन्म हो पाता है।
टाइम लैप्स इमेजिंग तकनीक में इन्क्यूबेटर्स लगाया जाता है, जिसकी मदद से भ्रूण की तस्वीरें ली जाती हैं। इससे आईवीएफ एक्सपर्ट को भ्रूण के मॉर्फो-काइनेटिक ग्रोथ का पता चलता है। कुछ-कुछ अंतराल पर सेल डिवीजन को एनालाइज किया जाता है और इसे बेहतर इंप्लांटेशन के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। अगर भ्रूण टाइमली डिवीजन करता है, तो इसे एक सामान्य भ्रूण माना जाता है और सफल इंप्लांटेशन की संभावना बढ़ जाती है। मॉर्फो-काइनेटिक डिवीजन और ग्रोथ पैटर्न के आधार पर 3 अच्छे दिख रहे भ्रूण में से दो बेस्ट को मरीज के गर्भाशय में इंप्लांट कर दिया जाता है।
लेजर असिस्टेड हैचिंग
कुछ मामलों में ऐसा होता है कि गर्भाशय में भ्रूण इंप्लांटेशन सफलतापूर्वक नहीं हो पाता है, इसके कई छोटे-छोटे कारण हो सकते हैं। इस तरह के मामलों में जब बेस्ट भ्रूण पिक कर लिया जाता है तो इंप्लांटेशन से पहले उनपर लेजर असिस्टेड हैचिंग प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है। इससे फायदा ये होता है कि भ्रूण की जो बाहरी परत असामान्य रूप से मोटी हो जाती है उसका छोटा सा हिस्सा खोल दिया जाता है। जिससे भ्रूण को एंडोमेट्रियम में बेहतर तरीके से प्रत्यारोपित करना आसान हो जाता है।