ख़ुर्शीद अह़मद अंसारी

“यूँ तो आज #27जुलाई है और आज लोगों के राष्ट्रपति अवेल पाकिर जलालुद्दीन कलाम ,मिसाइल मैन की यौम ए वफ़ात पर दिल की गहराइयों से ख़िराज ए अक़ीदत पेश करते हुए मैं 26 जुलाई पर कुछ लिखना चाहता हूँ, कल बेहद मसरूफियात ने ज़हन को मुंतशिर कर रखा था सो चाहते हुए भी कल अलफ़ाज़ को एक्जां करने से क़ासिर रह गया.”

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“#26जुलाई1902 में छत्रपति शाहू जी महाराज के आदेश पर सामाजिक भेद भाव को कम करने के लिए जाति वर्ग में समानता लाने के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई,”

सांय सांय करती बेहद तारीक माहौल में झींगुरों की आवाज़ जिस्म में खौफ़ का लरज़ा तारी कर रहा था, कही पास से ही अंगारों के गोले अंधेरो को और पुर असरार बनाने की कोशिश में थे….” और 1983 का ज़माना रहा होगा मैं उस किताब को पूरी करने के इश्तियाक़ में गिरफ़्तार हो गया,लेकिन मेरी बदकिस्मती यह कि 5वीं तक मकतब में उर्दू पढ़ने के तकल्लुफ़ के बावजूद इस शीरीं ज़बान और बेहद असरकुन ज़बान से अच्छी तरह वाकिफ़ नही था, लेकिन उस नावेल की सलीस और आसान उर्दू और नावेल के तख़लीक़ कार के अफ़कार की बुलन्दी और उसमें छुपी हुई हज़ाक़त ने शौक़ के तमन्ना को क़ायम रखा, नावेल का नाम जो भी रहा हो इस नतीजे के साथ ख़त्म हुआ कि एक शानदार हक़ीक़त पर मबनी नावेल पढ़ सका मैं, हालांकि उस से पहले ज़िन्दगी में मैं किस्से कहानियों या नावेल का क़ारी नही रहा.

इस नावेल के बाद मैंने 20 या 22 नावेल उसी मुसन्निफ़ का पढ़ता गया ,उनकी कहानियों में मिस्ट्री, फंतासी, साइंस पर मबनी बेहद चुस्त दुरुस्त पकड़ होती ही थी मुझे सिर्फ़ इस का इतमीनान था कि मैं अब बाक़ायदा उर्दू का मद्दाह हो चुका था, और ज़बान भी सीख गया था थोड़ा बहुत और मेरी गायबाना उसताज़ होने का सर्फ़ जनाब ए असरार अहमद ब शुहरा ए इस्म “इब्न ए सफी” साहब थे जिन्हें बाद में एशिया के शरलक होल्मस के नाम से बे इंतेहा शुहरत हासिल की, कि आज भी मेरे तुलबा जब पूछते हैं कि सर आपकी उर्दू इतनी अच्छी कैसे है तो मेरा सिर्फ़ जवाब होता है कि “मेरे उस्ताद इब्न ए सफ़ी साहब हैं” जो मेरे लिए द्रोणाचर्य ही जैसे हैं, शायद कितनो के उर्दू के उसताज़ ए गायबाना होंगे.

26 जुलाई 1928 को इलाहाबाद के नवाह में नारा मुहल्ले के इक घर मे उनकी पैदाइश हुई,1940 से 1980 तक कारेयीन को तजस्सूस, असरार ओ हैरत के समंदर में गोते लगाने के लिए मजबूर करते रहे, जिनकी कहानियों का मरकज़ मिस्त्री, जासूसी, हैरत, सय्याही ,एडवेन्चर के अलावा लताफ़त और तंज़ ओ मज़ाह था जो शशदाह और हैरत के जहाँ में परवाज़ करने वाले पाठक को अचानक हल्की फुल्की दुनिया मे लौटा लेता जिस से की उसके ज़हन का बार थोड़ा कम हो जाये, आगरा यूनिवर्सिटी से फ़ाज़िल होने मतलब स्नातक होने के बाद उन्होंने लिखना शुरू किया था और कुछ तंज़ ओ मज़ाह और कहानियों से शुरुआत की.

तुग़रल फरगान के अलावा मिसट्री और सस्पेंस की कहानियों की इब्तिदा 1948 में निकहत पब्लिकेशन से शुरू किया, ना जाने किन उमूर की वजह से सफीउल्लाह और नाज़िरन बीबी का चश्म ओ चिराग़ 1952 में पाकिस्तान चला गया, वहां उन्होंने “इसरार पब्लिकेशन” से ख़ुद की तबात और अशाअत कदा शुरू किया और इस दौर तक आते आते अब इसरार अहमद का नाम कहीं खो चुका था और दुनिया के जुनूबी एशिया को जासूसी नावेल का नशा कर्नल फ़रीदी और इमरान सीरीज़ की शक्ल में मुहैय्या कराने वाला यह नॉवल निगार सिर्फ़ इब्न ए सफ़ी के नाम से शुहरत की बुलंदियों पर छा चुका था, जासूसी दुनिया के इमरान सीरीज़ के नोवेलो की तक़रीबन 250 किताबों का यह मुसन्निफ़ अपने मुन्फरीद अंदाज ए बयानी और दास्तान गोई में बा कमाल इतना कि उस दौर में उनकी मक़बूलियत की वजह से इब्न सफ़ी के नाम से नकली नावेल भी मिलते थे, जिन्हें पढ़ने वाला उनका असल मद्दाह फ़ौरन शिनाख़्त करके बता सकता था कि यह असल नावेल नही हो सकता, कर्नल फ़रीदी की संजीदगी, उनकी हज़ाक़त और उनके ज़हानत का मैं बेहद क़ायल, हमीद की मस्तियाँ और अल्हड़ पन, क़ासिम का किरदार हो या इमरान के खिलंदड़ अंदाज़ सब कुछ आपके इर्द गिर्द होते हैं जब आप उनकी नावेल से रु बरु होते हैं.

डिप्रेशन के मर्ज़ से सालों तक परेशान यह नॉवेलिस्ट 1980 तक मुसलसल लोगों के ग़िज़ा ए तस्कीन ए मुताला फ़राहम करता रहा, अजीब इत्तेफ़ाक़ की जिस तारीख़ को यह नावेल निगार प्रयागराज(तब इलाहाबाद) में पैदा हुआ, इसरार अहमद पैंक्रियाज के सरतान(कैंसर) से 26 जुलाई 1980 को दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कह गया और छोड गया क़ारयींन ए जासूसी नावेल की ऐसी प्यास जिन्हें सदियों तक बुझाया जाना नामुमकिन है, मेरे जैसे एकलव्य को उस गाईबाना उसताज़ द्रोणाचार्य की रूह के लिए दुआ ए मग़फ़िरत और खिराज ए अक़ीदत, हालांकि इस द्रोणाचार्च ने अंगूठा नही मांगा कभी गुरुदक्षिणा में!

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