रवीश कुमार
क्या बिहार को रुकतापुर कहा जा सकता है? सब्र करने और कई दिनों तक इंतज़ार करने में बिहार के लोगों के धीरज का औसत दुनिया में सबसे अधिक होगा। यहां एक छात्र सिर्फ बीए पास करने के लिए तीन साल की जगह पांच से छह साल इंतज़ार करता है। अस्पताल में डाक्टर साहब के आने का घंटों इंतज़ार कर सकता है। किसी दरवाज़े सुबह से शाम से बैठा रह सकता है कि कुछ बोलेंगे। फिर उसके बाद वह कई घंटे कई दिन तक इंतज़ार करता है कि कुछ करेंगे। इस बीच पूजा पाठ भी कर आता है। मन्नत-वन्नत भी मांग आता है। इंतज़ार एक ऐसी चीज़ है जिससे बिहारी मानस कभी नहीं उकताता है। बिहार के कितने ही हिस्से में लोग घंटों जाम में बिता देते हैं। बिहार के लिए इंतज़ार करना सब्र करने की उस विराट योजना का हिस्सा है जिसे हमारे धर्मशास्त्रों में दिए गए मुक्ति आख्यानों के तहत लागू किया गया है। दरअसल बिहार धीमी गति का समाचार है।
पत्रकार पुष्यमित्र की यह किताब बिहार के सिस्टम और समाज में अलग तरीके से झांकती है। इस तरह का काम किसी यूनिवर्सिटी के समर्थन से और भी गंभीरता में बदला जा सकता है। अपने सीमित संसाधन से कोई पत्रकार बिहार के टाइम ज़ोन को महसूस करने के लिए 1862 की बिछी पटरी पर रुक रुक कर चलने वाली एक ट्रेन की यात्रा करता है तो वह एक नई धारातल की खोज कर डालता है। वाकई बिहार में इंतज़ार के आयाम पर काम होना चाहिए। मुंबई जाने के लिए सहरसा स्टेशन पर लोग दो दो दिन से ट्रेन के आने का इंतज़ार करते हैं। ट्रेन का लेट होना बिहार में घड़ी के ज़िंदा होने का सबूत है। यहां कोई कोई बढ़ने के बाद हंफनी से रुकना नहीं चाहता है। रुकते रुकते बढ़ना चाहता है बल्कि पहुंचने की जगह रुकते रुकते चलना चाहता है।
पत्रकार पुष्यमित्र इस बात की जांच करने निकलते हैं कि राजधानी पटना तक कोई चार घंटे में पहुंच सकता है या नहीं। नीतीश कुमार ने दावा किया था कि सड़कें इतनी अच्छी हो गई हैं कि कोई भी पटना 4 घंटे में पहुंच सकता है। उत्तर बिहार की बसें पटना गांधी सेतु पर घंटों अटकी रहती हैं। दीघा और पहलेजा घाट के बीच एक पुल बना है लेकिन उस पर सिर्फ फोर व्हीलर के चलने की इजाज़त है। यानी जो मध्यम वर्ग है उसके लिए अलग पुल है। जो साधारण वर्ग है उसके लिए गंगा पुल है। पूर्व जन्म के कर्मों को याद करते हुए वह गंगा पुल पर घंटों अटका रहता है। कोई बीच रास्ते में मर जाता है तो किसी का जहाज़ छूट जाता है। राज्य भर से एंबुलेंस पटना की तरफ दौड़ती नज़र आती हैं। कोइलवर के महाजाम को समझने गए पुष्यमित्र ने इसका शानदार वर्णन किया है। एक महाजाम को सरकार जब समझने निकलती है तो वह कितनी बैठकें करती है। हवाई सर्वेक्षण तो अनिवार्य है। इससे उम्मीद और बड़ी हो जाती है। अब कुछ होगा। वैसे कोइलवर पुल के महाजाम में दो दो दिन तक रहने का अनुभव सुनाने वाले बिहार में कई लोग मिल जाएंगे।
बिहार में पलायन को आप रुकतापुर के फ्रेम में नहीं रख सकते क्योंकि वह हर वक्त गतिशील रहती है। पलायन करना ही बिहारी होना है। नीतीश कुमार कहते हैं कि इसमें ग़लत क्या है। बिहारी को हुनर पर काम मिलता है। ग़लत तो यही है कि पलायन रोकने का चुनावी पोस्टर लगा दिया जाता है। ग़लत तो यही है कि राज्य में रोज़गार का सृजन कुछ हुआ नहीं। जिस राज्य में कोई शिक्षा और रोज़गार के लिए न रुके और वह राज्य रुकतापुर हो जाए उसके बारे में कौन सा डेटा चाहिए ताकि आपकी आंखें खुल जाए। पुष्यमित्र कोशिश कर रहे हैं।
बताते हैं कि बिहार सरकार ने कहा था कि 2020 में मनरेगा के ज़रिए 24 करोड़ मानव श्रम दिवस का सृजन करने जा रही है। यानी 24 लाख मज़ूदूरों को 100 दिन का काम मिलेगा। पिछले साल बिहार सरकार सिर्फ 20,000 मज़दूरों को 100 दिन का रोज़गार दे पाई। यही नहीं बिहारी मज़दूरों की मज़दूरी भी गिर गई है। इसी अप्रैल मई जून में 30 लाख मज़दूर बिहार लौटे थे। इसी साल के फरवरी में इंडियन इंस्टिट्यूट आफ पोपुलेशन साइंसेज ने एक सर्वे किया था। इसके अनुसार पलायन करने वाले 80 फीसदी भूमिहीन मज़दूर हैं। 85 फीसदी मज़दूरों ने 10 वीं तक की पढ़ाई नहीं की है। बिहारी मज़दूरों की सालाना कमाई औसत 26020 रुपये है। जबकि देश की राष्ट्रीय औसत प्रति व्यक्ति आय 1, 35,050 रुपये है।
बिहार सरकार का आर्थिक सर्वे कहता है कि सिर्फ 11.9 फीसदी लोगों के पास नियमित रोज़गार है। 32 फीसदी मज़दूरों को अनियमित रोज़गार मिलता है। बिहार में 45 फीसदी लोग खेती पर निर्भर हैं। इसमें से 65 प्रतिशत भूमिहीन है। बिहार में कुल उद्यमों की संख्या 2908 है। ये सब मिलकर 1 लाख लोगों को ही रोज़गार दे पाते हैं। सोचिए 2908 उद्यम हैं बिहार में। आप यह मत सोचिए कि उद्योग मंत्री और उद्योग सचिव कितना ख़ाली रहते होंगे या उनके पास काम ही क्या रहता होगा।
पुष्यमित्र की किताब का नाम और कवर मुझे पसंद आया। पुस्तक की सामग्री बिहार को समझने का नया नज़रिया देती है। राजकमल प्रकाशन से छपी यह किताब एमेज़ॉन पर उपलब्ध है। 250 रुपये की है। अच्छी किताब है। बिहार की कार्यसंस्कृति का रुपरेखा का ब्यौरा मिलता है।
अब चुनाव के बारे में लिखने का मन नहीं करता है। तीस दिनों की चुनावी यात्राओं में की जाने वाली ख़बरें बेमानी हो चुकी हैं। उनकी न तो उस दौरान चर्चा होती है और न उससे कुछ होता है। बिहार पर किसी चुनावी लेख को पढ़ने का उत्साह कम हो गया है। आख़िर कितनी बार जाति समीकरण की कहानी पढूंगा। अगर इसके बारे में कुछ जानने लायक बचा भी है तो भी नहीं जानना चाहता। चुनावी रिपोर्टिंग पूरक रिपोर्टिंग की तरह बची हुई है। कुछ लोग कर रहे हैं। जो मतदाता समस्या भी बताता है वह भी उसी को वोट करता है जिसके कारण समस्या है।
बिहार में जनता एक व्यक्ति को खोज रही है ताकि उसे कुर्सी पर बिठाए। इस खोज में जो भी मिल जाता है उसे कई साल बिठाए रखती है। वहां की जनता नीतियों की खोज में नहीं है।वह चुनावों में इसलिए भागीदारी नहीं करती कि नीतियों का विस्तार हो। कार्यसंस्कृति का विस्तार हो। जनता राजनीति में भी रुकी हुई है। वह कई साल तक रुकी रहेगी। जिस राज्य में राजनीतिक गतिशीलता बिहार के बाढ़ की तरह हुआ करती थी वो अब पठार की तरह हो गई है। धीरे धीरे घिसने के लिए