आज राष्ट्रीय प्रेस दिवस है सभी पत्रकार बन्धुओं को जो पत्रकारिता को शौकिया,जुनून और फर्ज के तौर पर कर रहे हैं उन्हें हार्दिक बधाई। प्रेस या अखबार और इलैक्ट्रानिक मीडिया प्रजातंत्रीय शासन के तहत आजादी से अपना काम करते हैं, लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या प्रेस पूरी तरह से आजाद हो सकती है। इसका जवाब शायद देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों से पूछा जाये तो वो भी बगल बगल झांकने लगेंगे, वो अपनी राय देने में हिचकिचायेंगे जरूर उनके मुह से न तो हां निकलेगी और न ही वो नहीं कर पायेंगे। कहने को तो सोचने-विचार करने और चिंतन करने के लिए सब स्वतंत्र है लेकिन उन विचारों की अभिव्यक्ति करने की आजादी नितश्चित रूप से कुछ सीमाओं के दायरे में बंधी हुई है।
प्रेस की आजादी एक प्रकार से विशेषाधिकार है इसका सही तरह से इस्तेमाल करने के लिए बहुत ही विवेक और धैर्य के साथ व्यवहार कुशलता की जरूरत होती है। प्रेस आयोग ने भारत में प्रेस की आजादी और उनकी हिफाजत के साथ पत्रकारों में ऊंचे विचारों को कायम करने के मकसद से प्रेस परिषद की कल्पना कि थी और जुलाई 1966 में परिषद की स्थापना कर गई फिर 16 नवम्बर 1966 से परिषद ने विधिमान्य तरीके से अपना विधिवत काम करना शुरू कर दिया था।आज पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है पत्रकारिता ही एक ऐसी विधा है तो शिक्षाप्रद,सूचनात्मक और मनोरंजन से भरपूर चीजे आम जनता तक पहुंचाने में एक सेतु का काम करती है। हम आप सभी जानते हैं कि पत्रकारिता के अन्दर तथ्यपरकता होनी जरूरी है, लेकिन तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, मिर्च-मसाला लगाकर सनसनी फैला देने की आदत आज की पत्रकारिता में नजर आने लगी है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि पत्रकारिता मे पक्ष्पात और असंतुलन की अधिकता बहुत ज्यादा है जिसमें स्वार्थ साफ झलकता है। आज के युग और आधुनिक पत्रकारिता में विचारों पर आधारित समाचार पत्रों की बाढ़ सी आ गई है,
जिसकी वजह से पत्रकारिता में एक नाजुक और अस्वस्थ प्रवृति ईजाद हुई है। कहा जाता है कि समाचार विचारों की जननी है जिसका अभिवादन जरूर होना चाहिए, लेकिन विचारों पर आधारित समाचार एक अभिशाप की तरह है। मैंने सुना पढ़ा है कि समतल, उत्तल और अवतल भी कुछ होता है, इसको मैं सीधे और सरल तरीके से आपके सामने रखता हूं मीडिया समाज का दर्पण है और दर्पण का काम समतल दर्पण की तरह काम करना होता है जिससे वो समाज की सच्ची बातों को उजागर कर समाज के सामने लाने मे अपनी भूमिका निभाता है ,लेकिन अक्सर देखा गया है कि अपने निहित स्वार्थों के चलते मीडिया उत्तल या अवतल दर्पण की तरह काम करने लगती है जिससे हमें समाज की उल्टी तस्वीर दिखलाई जाती है जो अकाल्पनिक, और विकृत तस्वीर का रूप लेकर समाज के बर्ग विशेष,धर्म विशेष पर चोट पहुंचाकर सनसनी फैलाने का काम करती है। मुझे कहने में तो अच्छा नहीं लग रहा है लेकिन अपने 3 साल के सफर में मैंने ये महसूस किया कि वो किस श्रेणी के लोग हैं जो कल कहां और आज कहां हैं शायद ऐसे लोगों की जरूरते और महत्वाकांक्षायें ज्यादा होती है और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ये विचार मंथन करते है।
कहते हैं जरूरत की कोख से निकला हुआ शब्द ईजाद है और अपने जीवन को गुलाबी बनाने के लिए खोजी पत्रकारिता के ईजाद ने एक बाजार बनाया जहां ये लोग नीली-पीली और भ्रामक खबरों से कैश करने की जुगत में लग जाते हैं ऐसीे ही खबरों का चलन बढ़ता जा रहा है जिससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता और पत्रकार की मंशा दोनों ही सस्पैक्टेड हो गईं। दरअसल आज का जो दौर चल रहा है उसमें देखा जा रहा है कि पत्रकार अलग-अलग धड़ों में बंटकर राजनीतिक दलों के साथ जुड़ गये हैं जिससे उनकी विचारधारा चाटुकारिता में बदल कर रह गई, अब समाज को वो तस्वीर दिखाई जाती है जो जनता का माइन्ड डायवर्ट करने में सत्तासीन सरकार का सहयोग करती है जिसके नीचे दबकर वो सारे सच दफन हो जाते हैं जो समाज को मजबूती और दिशा देने में सहायक होते हैं।
बहरहाल, पत्रकारिता एक मिशन है लेकिन कितना दुर्भाग्य है कि जब हम आजाद हुये तो पत्रकारिता के मापदण्ड ही भूल गये अब पत्रकारिता मिशन न होकर प्रोडक्शन हाउस में बदल गई कभी-कभी ये देखने को मिलता है कि पत्रकारिता जब मिशन के तौर पर भ्रष्टाचार पर प्रहार करने लगती है तब उनकी मंशा पर भी शक और गहरा जाता है कि आखिर समन्वय में कमी होने की वजह क्या है? आज कुछ ऐसे हालात पैदा हो गये जिसने पत्रकार को गुलाम और पत्रकारिता को दलाल की संज्ञा देकर उनकी आजादी पर पहरा बैठा दिया गया । साफ है जब भी दलगत पत्रकारिता होगी तब-तब प्रेस की आजादी का चीरहरण होता रहेगा ,पत्रकार अपने हक को यूं ही भटकता रहेगा और पत्रकारिता अपने आस्तित्व को सिसकेगी।
मुझे ये कहने में तकलीफ भी हो रही है कि समाचार पत्रों या न्यूज चैनलों का सवामित्व अधिकार या तो राजनीतिज्ञों के पास हैं या फिर कारपोरेट के लोगों के पास जिन्होंने पत्रकारिता को दिशाहीन बना कर रख दिया और पत्रकार को गुलाम,कभी पहले पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी लेकिन इन लोगों के हाथों में आने के बाद पत्रकारिता सेन्सेशन हुई और अब ये कमीशन बनकर रह गई, फिर भी सभी को राष्ट्रीय प्रेस दिवस की हार्दिक शुभकामनाऐं।
जानिये श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मी अधिनियम,1955 के बारे में
पत्रकारों के लिए सन 1955 में संसद ने पत्रकारों की चिरकालीन मांग को मूर्त रूप देते हुए श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955 पारित किया।इसका उद्देश्य समाचारपत्रों और संवाद समितियों में काम करनेवाले श्रमजीवी पत्रकारों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए कतिपय सेवा-शर्तें निर्धारित व विनियमित करना था।इससे पहले अखबारी कर्मचारियों को श्रेणीबद्ध करने,कार्य के अधिकतम निर्धारित घंटों, छुट्टी,मजदूरी की दरों के निर्धारण और पुनरीक्षण करने,भविष्य-निधि और ग्रेच्युटी आदि के बारे में कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी।पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी।
श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मी अधिनियम ,1955
पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी।इस कानून में समाज में पत्रकार के विशिष्ट कार्य और स्थान तथा उसकी गरिमा को मान्यता देते हुए संपादक और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के हित में कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं।इनके आधार पर उन्हें सामान्य श्रमिकों से,जो औद्योगिक सम्बन्ध अधिनियम,1947 से विनियमित होते हैं,कुछ अधिक लाभ मिलते हैं।पहले यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं था पर 1970 में इसका विस्तार वहां भी कर दिया गया,अतः अब यह सारे देश के पत्रकारों व अन्य समाचारपत्र-कर्मियों के सिलसिले में लागू है।
परिभाषा
श्रमजीवी पत्रकार की कानूनी परिभाषा पहली बार इस अधिनियम से ही की गई,इसके अनुसार श्रमजीवी पत्रकार वह है जिसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता हो और वह किसी समाचारपत्र स्थापन में या उसके सम्बन्ध में पत्रकार की हैसियत से नौकरी करता हो.इसके अन्तर्गत संपादक,अग्रलेख- लेखक, समाचार-संपादक,समाचार संवाददाता उप-संपादक, फीचर लेखक,प्रकाशन-विवेचक (कॉपी,टेस्टर), रिपोर्टर, संवाददाता (कौरेसपोंडेंट),व्यंग्य-चित्रकार (कार्टूनिस्ट), संचार फोटोग्राफर और प्रूफरीडर आते हैं,अदालतों के निर्णयों के अनुसार पत्रों में कार्य करने वाले उर्दू-फारसी के कातिब,रेखा-चित्रकार और सन्दर्भ-सहायक भी श्रमजीवी पत्रकार हैं,कई पत्रों के लिए तथा अंशकालिक कार्य करने वाला पत्रकार भी श्रमजीवी पत्रकार है।
यदि उसकी आजीविका का मुख्य साधन अर्थात उसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता है।किन्तु,ऐसा कोई व्यक्ति जो मुख्य रूप से प्रबंध या प्रशासन का कार्य करता है या पर्यवेक्षकीय हैसियत से नियोजित होते हुए या तो अपने पद से जुड़े कार्यों की प्रकृति के कारण या अपने में निहित शक्तियों के कारण ऐसे कृत्यों का पालन करता है जो मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है,इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है,इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः सम्पादकीय कार्य करता है और संपादक के रूप में नियोजित है। पर यदि वह सम्पादकीय कार्य कम और मुख्य रूप से प्रबंधकीय या प्रशासकीय कार्य करता है तो वह श्रमजीवी पत्रकार नहीं रह जाता है,
अधिनियम की धारा 3 (1) से श्रमजीवी पत्रकारों के सम्बन्ध में वे सब उपबंध लागू किये गए हैं जो औद्योगिक विकास अधिनियम,1947 में कर्मकारों (वर्कमैन)पर लागू होते हैं ।
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