उबैद उल्लाह नासिर का लेख: लोकतंत्र से राजतन्त्र की ओर बढ़ता भारत
(उबैद उल्लाह नासिर)
अंतत:28 मई 2023 दिन सोमवार हिंदुत्व के मसीहा और विचारक और द्विराष्ट्रवाद के प्रतिपादक विनायक दामोदर सावरकर की जयंती के शुभ अवसर पर सम्पूर्ण विधि विधान और मन्त्रों के उच्चरण के साथ देश की जनता को प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद का नया भवन समर्पित कर दिया। जिसमें सावरकर की मूर्ती भी स्थापित कर दी गयी और राजतन्त्र का प्रतीक चोल राजाओं का राजदंड सेंगोल भी स्थापित कर दिया गया। इस दिन देश को नया संसद भवन तो ज़रूर मिल गया। लेकिन वास्तविकता यह है कि इसी दिन संसद की आत्मा और संवैधानिक लोकतंत्र की क्रूर ह्त्या भी कर दी गयी, क्योंकि इस समारोह में न तो सर्वोच्च संवैधनिक पद पर बैठी राष्ट्रपति उपस्थित थीं न ही उच्च सदन (राज्यसभा) के अध्यक्ष और उप राष्ट्रपति आये थे और इस दोनों सर्वोच्च संवैधानिक पदाधिकारियों को न्यौता तक न दिए जाने से नाराज़ सम्पूर्ण विपक्ष ने इस समारोह का बायकाट किया। लेकिन मोदी जी ने इतनी सदाशयता और लोकतंत्र की मूल भावना का सम्मान नहीं किया कि इस गलती को सुधारते हुए इन दोनों सर्वोच्च पदाधिकारियों को बाद में ही न्यौता दे देते I लोकतंत्र विपक्ष के बिना जिंदा लाश है और कम्युनिस्ट देशों की तरह एक नेता और एक दल की तानाशाही बन जाता है।
सब से बड़ा सवाल तो यह है कि इस नए संसद भवन की आवश्यकता क्या थी, जिस पर 20 हज़ार करोड़ रुपया खर्च कर दिया गया। कहा जाता है कि मौजूदा संसद भवन बहुत पुराना और जर्जर हो चुका है। सवाल यह है कि 93 साल पुराना यह भवन इतना जर्जर कैसे हो गया? हमारे लखनऊ में 150 साल पुराना पक्का पुल जिसका पुराना नाम हार्डिंग ब्रिज है, 150 साल से भी ज्यादा पुराना है और आज भी सब से ज्यादा ट्रेफिक ढो रहा है, इस लिए यह तर्क तो बिलकुल बकवास है कि मौजूदा भवन जर्जर है। जिसकी मरम्मत या विस्तार नहीं हो सकता। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि 2026 में जो नया परिसीमन होगा उसमें सांसदों की संख्या बहुत बढ़ जायेगी जिनके बैठने की पुराने भवन में व्यवस्था नहीं है। यदि जनता के पैसे की सदुपयोग की चिंता होती तो ब्रिटिश संसद भवन से सीख ली जा सकती थी, जहां सांसदों की संख्या बढ़ने के बावजूद भवन नहीं बदला गया और जिस हाल में संसद का इजलास होता है वहां अक्सर सांसद खड़े दिखाई देते हैI हमारे यहाँ भी 2-1 महतवपूर्ण अवसरों को छोड़ दिया जाए तो अक्सर सांसदों की सीटें खाली रहती हैं जो बढ़े हुए सांसदों को आसानी से अकोमोडेट कर सकती है। लेकिन असल चिंता तो अमरत्व प्राप्त करने की है अपने नाम का शिलापट लगवाने की है इसके लिए जनता का पैसा बेदर्दी से खर्च किया जा रहा है।
इसके अलावा यह समारोह जिस तरह आयोजित किया गया यह प्राचीन हिन्दू सम्राटों के राज्यभिशेक जैसा था, किसी धर्म निर्पेक्ष संवैधानिक लोकतंत्र जैसा कुछ नहीं था। कहने को तो कुछ मिनटों के लिए कुरान की एक आयत और बाइबिल के एक अंश का भी पाठ किया गया। लेकिन यह हमारे संविधान की मंशा और आत्मा नहीं है। हमारा संविधान देश को एक धर्मनिर्पेक्ष राज्य बताता है। जिसका मतलब यह है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और किसी भी सरकारी समारोह में किसी भी धर्म का कोई कर्म काण्ड नहीं होगा I इस सबके के दौरान फेसबुक पर एक वरिष्ट पत्रकार ने याद दिलाया कि कैसे पेट्रोलियम मंत्री रहते हुए स्व.पंडित हेमवती नन्दन बहुगुणा जी ने ओएनजीसी के एक भवन के शिलान्यास के समय नारियल फोड़ने से यह कह कर इनकार कर दिया था कि सेक्युलर देश में किसी सरकारी समारोह में ऐसे कर्मकांड संविधान विरोधी हैं I
इस अवसर पर प्रधान मंत्री को दक्षिण भारत के चोल राजवंश में सत्ता के हस्तान्त्रण के प्रतीक राजदंड सेंगोल भी तमिलनाडु से आये पंडों पंडों द्वारा प्रदान किया गया। यह याद रखना ज़रूरी है कि चोल साम्राज्य रहा हो या पेशवा शाही दोनों घोर ब्रह्मण वादी व्यवस्था थीं जहां कथित नीची जाति के लोगों की जिंदगी नरक से बदतर थी और ब्राह्मण को हत्या तक कर देने की आज़ादी थी। स्वतंत्र भारत में ऐसे किसी निजाम को मान्यता देना तो दरकिनार सम्मान से याद भी नहीं किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में सत्ता का हस्तांत्रण चुनावी प्रक्रिया से होता है पंडों द्वारा राजदंड एक राजा को दूसरे राजा के देने से नहीं। दूसरे राजदंड सत्ता की निरंकुशता का प्रतीक है। जिसका लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि आरएसएस शुरू से ही संवैधानिक लोकतंत्र का विरोधी रहा है। वह संविधान की जगह मनु स्मृति लागू करना चाहता था और लोकतंत्र की जगह राजतन्त्र ही चाहता है। आज़ादी के बाद हमारे दूरदर्शी नेताओं ने उसकी मंशा नहीं चलने दी देश की जनता ने भी लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था को ही पसंद किया। लेकिन आज संविधानिक लोकतंत्र के लगभग 75 साल गुज़र जाने के बाद लोकतंत्र की जड़ें और गहरी व मज़बूत हो जानी चाहिए थीं लेकिन वह तो भुरभुरी मिटटी की तरह मुट्ठी से फिसलती दिखाई दे रही है I लोकतंत्र चुनाव करवाने और चुनाव हारने जीतने भर का नाम नहीं है और न ही 51 वोट लेकर जीतने वाला 49 वोट ले कर हारने वाले को कोने में धकेल सकता है I लोकतंत्र आम सहमत सबको साथ ले कर चलने और विरोध की आवाज़ सुनने और उसे महत्त्व देने का नाम है, लेकिन आज भारत में जो हो रहा है वह संविधान रच्यिता बाबा साहब अंबेडकर के उन शब्दों को याद दिलाता है कि आप चाहे जितना अच्छा संविधान बना लीजिये लेकिन उसकी अच्छाई बुराई उसे लागू करने वालों की मानसिकता पर निर्भर करती है, जो दिल से लोकतांत्रिक होगा वही संवैधानिक लोकतंत्र की रक्षा कर सकेगा।
क्या सरकारी समारोहों में होने वाले ब्रह्मण वादी कर्म कांडों से दलितों (अछूतों ) को दूर रखने की मनुवादी व्यवस्था के कारण ही आदि वासी (एसटी) महिला राष्ट्रपति को इस समारोह में नहीं बुलाया गया था,इससे पहले जब इस संसद भवन के निर्माण के लिए भूमि पूजन हुआ था तो तत्कालीन दलित (एससी) राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को भी नहीं बुलाया गया था I यही नहीं सेना के सर्वोच्च कमांडर होते हुए भी तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को वॉर मेमोरियल के उद्घाटन में भी नहीं बुलाया गया था,आखिर क्यों ? इस क्यों के दो जवाब दिए जा रहे हैं, पहला तो वही कि मनुवादी व्यवस्था में दलितों और आदिवासियों के धार्मिक कर्मकांडों से दूर रखा जाए दूसरा है मोदी जी का अहंकार, वह नहीं चाहते की किसी शिलापट पर या किसी महत्वपूर्ण अवसर के फोटो में उनके अलावा किसी और का नाम हो किसी और की फोटो हो I दिल पर हाथ रख कर सोचिये कि आज राम नाथ कोविंद और श्रीमती द्रोपदी मुर्मू की जगह मोदी जी के राष्ट्रपति यदि ज्ञानी जैल सिंह, डॉ शंकर दयाल शर्मा और केआर नरायणन होते तो क्या वह भी संविधान और संवैधानिक मूल्यों के साथ इस खिलवाड़ पर यूँही मूक दर्शक बने रहते ?
नए संसद भवन के उदघाटन से जो सन्देश दिया गया है वह बिलकुल साफ़ है यह देश धर्म निर्पेक्ष संवैधानिक लोकतंत्र की व्यवस्था छोड़ कर आरएसएस के सपनो के हिन्दू राष्ट्र की मंजिल के बहुत निकट पहुँच चुका है। जिसके एलान की औपचारिकता भर बाक़ी रह गयी है। संविधान के शब्दों को बदलने की जगह संविधान की आत्मा को मार दिया गया है और हिन्दुओं के उस वर्ग (एससी/एसटी और महिलायें) की ऐसी ब्रेन वाशिंग कर दी गयी है कि जो इस व्यवस्था के सब से बड़े भुक्त भोगी हों,गे वही आज इस व्यवस्था के वाहक बने हुए हैं। 2024 का आम चुनाव भारतीय लोकतंत्र के लिए एक टर्निंग पॉइंट होने जा रहा है जो देश की दिशा और दशा तय करेगाI यह चुनाव वास्तव में लोकतंत्र (धर्म निर्पेक्ष संवैधानिक व्यवस्था ) और राजतन्त्र (हिन्दू राष्ट्र मनुवादी व्यवस्था ) के बीच होने जा रहा है। देश का भविष्य जनता के हाथ में है।
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