मनीष सिंह

ये लाइन फिल्मी जरूर है, मगर सुभाष और नेहरू का अफसाना किसी फ़िल्म की कथा से कम नही। ये दो युवा, दो जुदा शख्सियतें, जिनकी राहें भी जिंदगी अलग कर गयी, मगर जीवन की अंतिम सांस तक वह मित्रभाव और म्युचुअल रिस्पेक्ट बना रहा। गांधी के युग की शुरुआत होते ही कांग्रेस की मुम्बई और हिंदूवादी लॉबी का पराभव शुरू हुआ। यह सेकुलर युग का आगाज था। जिनकी चलनी बन्द हुई, उन्होंने अपने-अपने नए ठिये खोज लिए। कोई लीग में भागा, कोई हिन्दू महासभा में।

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इधर कांग्रेस के लिए गांधी ने देश भर में नेतृत्व उभारना शुरू किया। उत्तरप्रदेश, बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक और दीगर प्रदेशों से नए नए लीडर कांग्रेस में जुड़ने लगे। एलीट अखबारी क्लब रही कांग्रेस, अब देश भर में जड़ें जमाने लगी। इसी में दो लड़के गांधी की टीम में आये। बंगाल में सीआर दास का एक चेला, जो आईसीएस पास करने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़ा था। नेशनल यूथ कांग्रेस का प्रेजिडेंट बना। दूसरा यूपी में मोतीलाल का लड़का, जो ब्रिटेन से बैरिस्टरी करके आया, और यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) कांग्रेस कमेटी का स्टेट सेक्रटरी था।

दोनो का स्वभाव अलग था। जवाहर नर्म, शांतचित्त, ओपन माइंड और सुभाष जरा गर्म, लेकिन जहीन वाद विवाद पसन्द करने वाले। मगर समानताएँ भी थी। दोनो बड़े परिवारों से थे, दोनो अंग्रेजीदां, दोनो कैम्ब्रिज में पढ़े, दोनो ने अच्छे कैरियर ऑप्शन त्यागकर आंदोलन जॉइन किया था। दोनो दुनिया में चल रही गतिविधियों से वाकिफ थे, दोनो की सोच समाजवादी थी, दोनो पढ़ाकू थे, और दोनो गांधी से प्रेरणा लेते थे।

वक्त असहयोग आंदोलन के बाद का था। कांग्रेस होमरूल की हल्की मांग छोड़, अब पूर्ण स्वराज की मांग करने लगी थी। चैलेंज आया कि भारतीयों की औकात नही कि अपना संविधान तक लिख सकें। मोतीलाल नेहरू को जिम्मा मिला, एक ड्राफ़्ट लिखने का। सुभाष और जवाहर , मोतीलाल के सचिव हुए। नेहरू रिपोर्ट आई, जाहिर है इसमें दोनो लड़कों के व्यूज और सहमति रही थी। ध्यान रहे कि सन 47 के बाद जिन दस्तावेजो की रोशनी में भारत का संविधान लिखा गया, उसमे नेहरू रिपोर्ट भी प्रमुख थी।

1921-30 का वह दौर बड़े लीडर्स का था, ये दोनो बैकरूम सपोर्ट की गतिविधियों में शामिल होते। पर वक्त के साथ दोनो का कद बढ़ता गया। पहले सुभाष को मौका मिला, 1927 में कांग्रेस महासचिव हुए। जवाहर को मौका मिला अध्यक्ष होने का 1929-30 में। अध्यक्षी के साथ ही जेल की सौगात भी आई। दौर सविनय अवज्ञा आंदोलन का था। नेहरू जेल से छूटकर घर जाते हुए रस्ते में एक धरने प्रदर्शन में शामिल हो जाते, और वापस जेल पहुंच जाते। सुभाष भी कलकत्ते में गिरफ्तार हुए। सरकार ने राजनैतिक गतिविधियों में प्रतिबन्ध की शर्त पर छोड़ा गया तो यूरोप चले गए। छोरे को वहीं प्यार हुआ, एमिली से ब्याह किया। इस चक्कर मे यूरोप आना जाना अब नियम सा हो गया था। इस दौर में मुसोलिनी से भी मिले, फासिस्ट मूवमेंट का अध्धयन भी किया।

इसी दौर में जेल में पड़े दोस्त की बीवी, कमला सख्त बीमार हुई। यूरोप में मौजूद सुभाष थे, जो कमला को विएना से प्राग लेकर गए और सेनिटोरियम में भर्ती करवाया। नेहरू जब शर्तो के तहत छूटकर बीवी के पास पहुंचे, सुभाष ने उन्हें सन्देसा लिखा- “इधरिच हूँ, अगर जरूरत पड़े तो भाई को याद करना” कमला न बच सकीं। नेहरू वापस आये। दो बार कॉंग्रेस प्रेजिडेंट रह चुके थे। प्रोविंशियल इलेक्शन में सुभाष और नेहरू ने कांग्रेस को अधिकांश स्टेट में जीत दिलाई। जनवरी 1938 में सुभाष फिर यूरोप में थे। गांधी की चिट्ठी मिली- “तुम्हे कांग्रेस के 51 वें हरिपुरा अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुन लिया गया है, अतएव घर आजा परदेसी.. “

कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष ने कई निर्णय लिए। इसमें देश के लिए योजनाबद्घ विकास और समाजवादी नीतियों का आधार बनाना था। यह ख्याल ही बाद के प्लानिंग कमीशन का आधार हुआ। इस कमेटी के अध्यक्ष कौन थे? जवाहर .. और कौन। लेकिन सुभाष, अध्यक्ष जरा दूजे किस्म के थे। तेज, चपल.. याद रहे कि कलकत्ते में श्यामा प्रसाद मुखर्जी नाम के एक महासभाई छुटभैये को ठोक पीट दिया था। पार्टी में भी कुछ सीनियर लीडर्स को छेड़ दिया। अगला साल आया तो प्रेजिडेंट के लिए सहमति न बनी। त्रिपुरी में इलेक्शन हुआ, सुभाष जीत गए। माला पहने सुभाष के संग नेहरू खड़े थे, मगर गांधी नही।

गांधी को सुभाष की अल्ट्रा लेफिस्ट पॉलिसी और आक्रमकता से ओल्ड गार्ड की असहमति में कांग्रेस का विभाजन दिखता था। गांधी का मान रखते हुए सुभाष ने इस्तीफा फेंक दिया। आगे एआईसीसी की कलकत्ता मीटिंग थी। नेहरू सुभाष के घर पर ही रुके थे। बैठक में उन्होंने सुभाष से इस्तीफा वापस लेने का आग्रह किया। बड़े भाई शरतचंद्र बोस सहित, पूरा बोस परिवार गांधी के रवैये से आहत था। नेहरू से अपेक्षा थी कि वे सुभाष के साथ लामबन्द हों।मगर नेहरू गांधी के खिलाफ नही जा सकते थे। इस्तीफा हो गया। दिल अवश्य टूटे होंगे। सुभाष ने गतिविधियां सीमित की। कांग्रेस के भीतर ही, फारवर्ड ब्लॉक बनाया। अब तक वर्ल्ड वार भी शुरू हो गयी थी।

सुभाष गांधी से निराश हो, दो साल में हिटलर तक पहुंच गए। मगर गांधी पर उनकी भी श्रद्धा कभी कम न हुई। जब गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। सुभाष ने जर्मन रेडियो पर इसे गांधी का अहिंसक गुरिल्ला युध्द कहा, शुभकामनाएं दी। आजाद हिंद फौज का गठन हुआ तो एक ब्रिगेड गांधी के नाम से बनी। और दूसरी- वह नेहरू के नाम पर। जब जापान के साथ मिलकर ब्रिटिश पर हमला शुरू किया, रेडियो पर ऐतिहासिक सन्देश में सुभाष ने गांधी को राष्ट्रपिता कहा, (जी हां, गांधी को यह नाम उन्होंने दिया) और उनकी ब्लेसिंग चाही।

अगस्त 1945 का वो दिन भी आया। बड़े भाई शरतचंद्र हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की बंगाल सरकार में मंत्री पद स्वीकार कर चुके थे। अगले दिन फजलुल हक की सरकार में शामिल होना था, कि सुभाष की मौत की खबर आई। सरकार ने शरत को डिटेन कर लिया। सुभाष की मौत ने परिवार को मुस्लिम लीग से हाथ मिलाने के कलंक से बचा लिया।

यूरोप में एमिली अकेली हो गयी थी। एक बेटी भी थी-अनिता। नेहरू प्रधानमंत्री हो चुके थे। उनकी अनुपस्थिति में कभी सुभाष ने उनके परिवार का ख्याल रखा था। अब बारी जवाहर की थी। नेहरू ने एक ट्रस्ट फंड बनाया , जिसनमें एमिली के लिए दो लाख रुपये रखे गए। ट्रस्ट फंड याने बेनेफिशियरी ब्याज को स्वेच्छा से यूज करेगा। इसके साथ अनिता के लिए एक और ट्रस्ट बना, जिसमे कांग्रेस की ओर से माह में 500 रुपये दिए जाते। याद रहे, तब डॉलर 4 रुपये का था, कलेक्टर की तनख्वाह 300 थी। 1961 की सर्दियो में सुभाष की बेटी अनिता पहली बार भारत आई। वह प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास तीन मूर्ति भवन में रुकी। नेहरू की बेटी ने उनका ख्याल रखा। कमला के साथ जाकर, जब सुभाष प्राग में उन्हें सेनेटोरियम में दाखिल करा रहे थे, किशोरवय इंदिरा को भी स्थानीय स्कूल में दाखिल करवाया था। याने कुछ कर्ज इंदिरा पर भी था।

यह सारी जानकारी लिखित में मौजूद है, अलग अलग स्थानों पर है। अलग अलग लेखकों और संस्मरणो मे है। सरकारी फाइलों में है। जो फाइलें खोली गई, बड़ी उत्सुकता से.. कि उनमें नेहरू सुभाष की दुश्मनी के किस्से निकलेंगे, व्हाट्सप पर फेक की जगह असली दस्तावेज तैराये जा सकेंगे.. उनसे ट्रस्ट फॉर्मेशन, सुभाष के गुप्त विवाह, परिवार उसकी फाइनेंशियल हेल्प के किस्से निकले। खीझकर फाइलें वापस रद्दी में डाल दी गयी। कुछ साल पहले, सुभाष के भाई शरत के बेटे के बेटे ने सत्ता वाला दल जॉइन किया उन्होंने भी स्कोर बढ़ाने वाले बयान दिए। सुभाष की मौत से जो काम दादा न कर सके, पोते ने कर दिया। बट्टा लगा ही दिया।

मगर पिछले सात साल में, सत्तर सालों से कहे गए सारे झूठ औंधे गिरे हैं। नकली पत्र, नकली फोटो नकली किस्से तार तार होते गए। रह गया तो सच.. जिसमे दो दोस्तों ने एक दूसरे का साथ दिया, इज्जत दी , दोस्ती निभाई और जिम्मेदारी भी। जीतेजी और जिंदगी के बाद भी। इस अफ़साने को याद रखा जाना चाहिए।

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