2019 में अगर 100 लोग वेतनभोगी थे यानी जिन्हें नियमित सैलरी मिलती थी, उनमें से 21 लोगों की नौकरी 2020 में चली गई है। 2016 से ही यह संख्या कम होने लगी थी लेकिन 2020 में तेज़ी से गिरावट देखी गई है। जिनकी नौकरी नहीं गई है उनकी सैलरी या तो नहीं बढ़ी है या कम बढ़ी है।
लेकिन समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री यह नहीं देख पा रहे हैं कि मध्यम वर्ग ख़ुश कितना है। क्यों ख़ुश है? क्योंकि उसकी व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में धार्मिक कट्टरता और पाखंड की सामग्री की सप्लाई काफ़ी बढ़ी है।नौकरी और सैलरी गंवा कर मिडिल क्लास अपनी इस नई पहचान से ज़्यादा खुश है। इसलिए किसी भी सवाल को लेकर आंदोलन होता है तो गोदी मीडिया और सरकार दोनों मिल कर धार्मिक रूपकों से भरे संदेशों और सूचनाओं की सप्लाई बढ़ा देते हैं।
डेटा देखें तो बिल्कुल सही बात है कि मिडिल क्लास नौकरी और सैलरी से वंचित हुआ है लेकिन यह भी उतनी ही सही बात है कि जड़ता और नफ़रत आधारित धार्मिक पहचान से लबालब वह गदगद रहने लगा है। इतना कि अगर किसी मैनेजर को नौकरी से निकाले जाने के वक्त विदाई पत्र के साथ नेहरू के मुसलमान होने वाले मीम के दो चार पोस्टर फ़्रेम करा कर दिए जाएँ तो वह मिठाई ख़रीद कर घर जाएगा। शाम को सपरिवार गोदी मीडिया पर सांप्रदायिक डिबेट देखेगा। लोगों को बताएगा कि नौकरी चली गई लेकिन मुझे नेहरू के मुसलमान वाला स्पेशल मीम भी मिला है।
मेरी राय में अर्थशास्त्रियों को अब इसका सर्वे करना चाहिए कि मिडिल क्लास कैसे भौतिकवादी क्लास नहीं रहा। उसे नौकरी नहीं चाहिये लेकिन अगर उसे व्हाट्स यूनिवर्सिटी में गुड मार्निंग मैसेज से लेकर नेहरू के मुसलमान या कोरोना को तब्लीग के बहाने मुसलमान से जोड़ने वाले पोस्टर या मीम दिए जाएं तो ज़्यादा खुश रहता है। मेरी राय में मोदी जी को प्रधानमंत्री व्हाट्स एप मैसेज योजना लाँच करनी चाहिए जिसके तहत मिडिल क्लास और सभी क्लास को एक जगह से मैसेज सप्लाई होगी। मेरा मानना है कि मैसेज के बदले में लोग अपनी बाकी सैलरी भी दान कर देंगेँ।
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