नई दिल्ली: क्या पुलिसकर्मियों को ऐसे तर्क देते सुना है कि अपराधियों के ख़िलाफ़ पुलिस सख़्ती से पेश नहीं आएगी तो क्या फूल-माला पहनाएगी? ख़तरनाक अपराधियों को क़ानूनी ट्रायल करने से बेहतर है कि मार दिया जाए तभी दूसरे अपराधियों में खौफ होगा? ज़ाहिर है मानवाधिकार प्रशिक्षण में ऐसे तर्क तो नहीं ही सिखाए जाते होंगे, यह भी सच है कि पुलिस के लिए मानवाधिकार प्रशिक्षण ज़रूरी होता है, तो क्या ऐसे पुलिसकर्मियों को यह प्रशिक्षण ही नहीं दिया जाता है या फिर उस प्रशिक्षण का उन पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता है? क्योंकि फर्क पड़ता तो एक के बाद एक हिरासत में मौत के मामले नहीं आते, तमिलनाडु में बाप-बेटे की पुलिस हिरासत में मौत का मामला भी नहीं आता,
हिरासत में मौत के मामले में पुलिस के रवैये पर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं और कहा जाता रहा है कि पुलिसकर्मियों को मानवाधिकार प्रशिक्षण पर्याप्त रूप से यानी ठीक से नहीं दिया जाता है, कई सर्वे में यह बात सामने आई है, ये सर्वे जब तब इसलिए होते रहे हैं क्योंकि हिरासत में मौत के मामले अक्सर देश के अलग-अलग हिस्सों से आते रहे हैं, इसकी पुष्टि आधिकारिक तौर पर भी होती है, हालाँकि आधिकारिक आँकड़ों में मौत की वजह अलग-अलग बताई जाती रही है, अब नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आँकड़ों को ही देखें, इसके अनुसार, 2018 में पुलिस हिरासत में 70 लोगों की मौत हुई, इनमें से 12 मौतें तमिलनाडु में हुई थीं,
देश में यह राज्य दूसरे स्थान पर रहा था, गुजरात में सबसे अधिक 14 ऐसी मौतें हुई थीं, इन 70 मौतों में से केवल तीन मौत के मामलों में दिखाया गया था कि पुलिस द्वारा शारीरिक हमला किया गया था, 70 में से 32 मामलों में मृत्यु के कारण के रूप में बीमारी दर्ज की गई थी, इन मौतों में से 17 को आत्महत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था, सात मामलों में बताया गया कि उनको चोटें पुलिस हिरासत में लिए जाने से पहले लगी थीं, सात की मौत हिरासत से भागते समय- एक सड़क दुर्घटना में या जाँच से जुड़ी यात्रा के दौरान, जबकि बाक़ी तीन की मौत अन्य कारणों से हुई,
‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी में 2019 में पुलिस हिरासत में कम से कम 117 लोगों की मौत की रिपोर्ट दर्ज की गई, इस संदर्भ में ही पुलिसकर्मियों को मानवाधिकार प्रशिक्षण दिए जाने के बारे में ग़ैर-सरकारी संगठन कॉमन कॉज और सीएसडीएस-लोकनीति ने पिछले साल सर्वे किया था, इसने स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया की रिपोर्ट जारी की थी, इससे पता चलता है कि भारत में पुलिस पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, जिससे उसका ऐसा व्यवहार हो सकता है, यह रिपोर्ट 21 राज्यों के क़रीब 12,000 पुलिसकर्मियों के सर्वेक्षण पर आधारित थी,
स्टेटस ऑफ़ पुलिसिंग इन इंडिया की रिपोर्ट से पता चला है कि 12% पुलिस कर्मियों को कभी भी मानवाधिकार प्रशिक्षण नहीं दिया गया,
अलग-अलग राज्यों में ये आँकड़े अलग-अलग थे, बिहार में 38%, असम में 31% और भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में यह 19% था, मानवाधिकार में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले कर्मियों में भी अधिकांश ने कहा कि उन्हें यह प्रशिक्षण पुलिस बल में शामिल होने के समय ही मिला था, अध्ययन के अनुसार, पाँच साल से ज़्यादा समय से कार्यरत पुलिसकर्मियों की भी यही स्थिति थी, एचटी के अनुसार, सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि बड़ी संख्या में पुलिस कर्मियों ने अपराधियों के ख़िलाफ़ न्यायिक उपायों से परे जाकर की जाने वाली कार्रवाई को सही ठहराया, सर्वेक्षण में शामिल हर चार पुलिस कर्मियों में से तीन ने महसूस किया कि अपराधियों के प्रति पुलिस का हिंसक होना उचित है, जबकि पाँच में से एक को लगा कि ख़तरनाक अपराधियों को मारना क़ानूनी ट्रायल से बेहतर है, अधिक शिक्षित पुलिसकर्मी, जिनकी अधिकारी बनने की अधिक संभावना थी, उनमें भी यह विचार था कि अपराधियों के प्रति पुलिस का हिंसक होना ठीक था,
ऐसे हालात में पुलिस हिरासत में मौतों पर सवाल तो उठेंगे ही, पुलिस हिरासत में मौत को लेकर हाल ही में कई ग़ैर सरकारी संगठनों की संयुक्त पहल पर गठित ‘नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर’ ने एक रिपोर्ट जारी की है, इस रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस हिरासत में मौतें मुख्य रूप से यातना के कारण होती हैं, इस समूह द्वारा इकट्ठे किए गए आँकड़ों के अनुसार 2019 में पुलिस हिरासत में 125 मौतों में से 93 व्यक्तियों की मौत कथित तौर पर यातना या साज़िश के कारण हुई, जबकि 24 की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई, पुलिस ने दावा किया कि उन्होंने या तो आत्महत्या कर ली या बीमारी या दुर्घटना से मर गए, रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि संदिग्धों को पुलिस हिरासत में प्रताड़ित करने, जानकारी जुटाने, इकबालिया बयान निकालने या रिश्वत माँगने के लिए प्रताड़ित करने की प्रथा व्याप्त थी,
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि हिरासत में मौत पर क्या पुलिस कर्मी दोषी पाए जाते हैं और उन पर कार्रवाई होती है? यह अहम इसलिए है क्योंकि अक्सर माना जाता है कि अपराधियों को सज़ा मिलने से अपराध कम होता है और सज़ा नहीं मिलने पर ऐसे लोगों के हौसले बुलंद होते हैं, एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि 2018 में हिरासत में 89 मौत के मामलों में कस्टोडियल किलिंग और ग़ैरक़ानूनी हिरासत जैसे मानवाधिकारों के उल्लंघन के केस दर्ज किए गए थे, लेकिन एक को भी अपराध के लिए दोषी नहीं पाया गया, जबकि हिरासत में मौत के मामलों के सिलसिले में नौ पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन किसी के ख़िलाफ़ चार्जशीट भी दायर नहीं हो पाई, प्रताड़ित करने के मामले में एक को गिरफ़्तार किया गया था और एक चार्जशीट दायर की गई थी, लेकिन किसी को दोषी नहीं पाया गया है