कलीमुल हफ़ीज़
तालीम का अमल सिर्फ़ बच्चे, किताब और टीचर्स पर ही डिपेंड नहीं होता। इनके अलावा भी बहुत-से फ़ैक्टर्स हैं जो बच्चे की तालीम, उसकी तरबियत (शिक्षण-प्रशिक्षण) और उसके मुस्तक़बिल को बनाने पर असर डालते हैं। इसलिये कि इन्सान एक सामाजिक जीव है। इसकी परवरिश समाज मिलकर करता है।
इसकी शख़्सियत को बनाने और उसके विकास में समाज के बहुत-से इदारे अपना रोल अदा करते हैं। इसमें सबसे पहला रोल उसके घर और ख़ानदान का है। घर का माहौल, घरवालों के अख़लाक़ और आदतें, उनके रोज़मर्रा के काम, उनकी सोच और फ़िक्र सब बच्चे पर गहरे नक़्श छोड़ते हैं और बच्चा सबसे ज़्यादा घर से सीखता है।
बच्चे की माँ उसका पहला मदरसा होता है। बच्चे की तरबियत और तालीम का अमल हमल यानी गर्भ के दौरान ही शुरू हो जाता है। उसके दिमाग़ और उसकी सलाहियतों पर माँ की ग़िज़ा से लेकर सभी हरकतों और आदतों के असरात पड़ते हैं।
यहूदियों पर एक रिसर्च के मुताबिक़ यहूदी माएँ गर्भ की शुरुआत से ही बाक़ायदा तौर पर गणित के सवालात हल करना शुरू कर देती हैं। गर्भ के दौरान वे ख़ुश रहती हैं। उनकी ख़ुराक का पूरा ख़याल रखा जाता है। ये पेट में मौजूद बच्चे को ट्रेंड करने के लिये किया जाता है ताकि वह बाद में होशियार और समझदार हो सके।
यहूदी गर्भवती महिला ख़ुराक में हमेशा, बादाम, खजूरें, दूध और मछली शौक़ से लेती हैं। सलाद में बादाम और दूसरे गिरी वाले मेवे मिक्स करके खाती हैं। उनका यक़ीन और तहक़ीक़ है कि मछली दिमाग़ को बढ़ाने के लिये बहुत फ़ायदेमन्द है। गर्भ के दौरान उन्हें पुरसुकून और रिलैक्स माहौल दिया जाता है।
उन्हें कोई ज़ेहनी परेशानी या डिप्रेशन नहीं होता, बल्कि हर वक़्त उनकी सोच पॉज़िटिव रहती है और वे बच्चे की क़ाबिलियत के लिये अपने आपको बिज़ी रखती हैं। हमारे देश में भी आर-एस-एस के कुछ सह-संगठन गर्भवती महिलाओं की काउन्सलिंग और गाइडेंस के लिये वर्कशॉप करते हैं।
इसके बरख़िलाफ़ मुस्लिम समाज में न गर्भवती औरत की ख़ुराक पर तवज्जोह दी जाती है और न उसके लिये पुरसुकून माहौल दिया जाता है। अक्सर घरों में शौहर की बे-रुख़ी और ग़ैर-मौजूदगी, सास और नन्दों के तानों के बीच बच्चे की पैदाइश होती है। पैदा होने के बाद वाहियात क़िस्म की दर्जनों रस्में अंजाम दी जाती हैं, मगर यह कोई नहीं सोचता कि अब इस बच्चे को किस तरह काम का इन्सान बनाना है।
अगर कोई तवज्जोह दिलाता भी है तो तदबीर (कुछ करने) पर आमादा होने के बजाय तक़दीर के सिपुर्द कर दिया जाता है और फिर वह तक़दीर के भरोसे ही आगे की मंज़िलें तय करता है। जिसका नतीजा सबके सामने है। जबकि घरवालों की ज़िम्मेदारी है कि वो माँ के पेट में ही बच्चे और उसकी माँ का ख़याल रखें।
एक बच्चे का दुनिया में आना कोई मामूली बात नहीं है। यह वही बच्चा है जिसके लिये कायनात के बनानेवाले ने इस कायनात को सजाया, नबियों और रसूलों को भेजा। अगर आप चाहें तो इस बच्चे को कमाल का इन्सान बना सकते हैं।
जिससे इन्सानियत को फ़ायदा पहुँचे और आपकी बे-तवज्जोही उसको समाज के लिये नुक़सानदेह भी बना सकती है। इसलिये नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया ”हर बच्चा इस्लाम की फ़ितरत पर पैदा होता है माँ-बाप उसे यहूदी या ईसाई बना देते हैं” और अल्लामा इक़बाल ने कहा था कि
अफ़राद के हाथों में है अक़वाम की तक़दीर।
हर फ़र्द है मिल्लत के मुक़द्दर का सितारा॥
दूसरा बड़ा फ़ैक्टर जो बच्चे की तालीम व तरबियत और शख़्सियत यानी पर्सनालिटी को बनाने में असरदार रोल अदा करता है वो समाज है। बच्चा जब कुछ बड़ा होता है तो वह घर से बाहर क़दम निकालता है और बाहर की दुनिया देखता है।
मोहल्ले के माहौल का असर उसपर पड़ता है और वह उसे क़बूल भी करता है। हम मुस्लिम मोहल्लों की गंदगियों को ख़ूब जानते हैं। बच्चे, बूढ़े और जवान बीड़ी-सिगरेट पीने में लगे हुए हैं, बात-बात पर गालिययाँ दे रहे हैं। बच्चा ये सब कुछ देखता और सुनता है और फिर नक़ल करता है।
कोशिश करनी चाहिये कि बच्चे को कम से कम बाहर भेजा जाए। आप उसके खेल-खिलोने का इन्तिज़ाम घर के अन्दर ही कर दें। उसके साथ खेलने का वक़्त निकालें। अगर बाहर जाएँ तो अपने साथ लेकर जाएँ। वहाँ जो अच्छी चीज़ें हैं उनकी तरफ़ उसका ज़ेहन फेर दें और बुराइयों से नफ़रत दिलाएँ तो उम्मीद की जा सकती है कि वह मोहल्ले के बुरे असरात कम क़बूल करे। बच्चे के दोस्तों के चुनाव में भी बच्चे की मदद करने की ज़रूरत है। क्योंकि इन्सान अपने दोस्तों से ही पहचाना जाता है।
तीसरा बड़ा फ़ैक्टर उसका स्कूल है। स्कूल के चुनाव में ग़ौर-फ़िक्र से काम लिया जाए। स्कूल का चुनाव करते वक़्त आपके सामने तालीम का मक़सद साफ़ रहना चाहिये। आपको मालूम होना चाहिये कि आप अपने बच्चे को क्यों पढ़ाना चाहते हैं? क्या बनाना चाहते हैं?
आपके सामने ये बात रहनी चाहिये कि बच्चे को एक मुसलमान की हैसियत से किस तालीम की ज़रूरत है और देश का एक अच्छा शहरी बनने के लिये किस-किस इल्म की ज़रूरत है। बग़ैर सोचे-समझे किसी भी स्कूल में दाख़िल कर देने से और फिर साल दो-साल में स्कूल बदलते रहने से तालीम और तरबियत दोनों मुतास्सिर होती हैं।
बच्चों की तालीम पर असर डालने वाले फ़ैक्टर्स में माँ-बाप की माली हालत भी शामिल है। हर बच्चा अक़ल, ज़हानत और क़ाबिलियत लेकर दुनिया में आता है। लेकिन हर बच्चे के बाप के माली हालात अलग होते हैं। ये अलग-अलग क़िस्म के माली हालात बच्चे की तालीम पर बहुत गहरा असर डालते हैं।
पैसे की कमी, फ़ीस की अदायगी में रुकावट बन जाती है। एक ग़रीब बाप अपने ज़हीन और होनहार बच्चे को कोचिंग की सहूलत नहीं जुटा पाता। इस तरह मिल्लत का बड़ा टैलेंट सिर्फ़ ख़ाक छानता रह जाता है, इस सूरते-हाल में माँ-बाप को तालीमी बजट बनाने की ज़रूरत है क्योंकि बजट बनाये बग़ैर ख़र्च करते रहने से भी मसायल पैदा हो जाते हैं।
कितने ही ग़रीब और कम आमदनी वाले माँ-बाप के बच्चे भी ऊँचे पदों तक पहुँच जाते हैं। यह तभी सम्भव होता है जब माँ-बाप पक्का इरादा, हिम्मत और प्लानिंग के साथ तालीम का सिलसिला जारी रखें। क़ौम के सरमायादारों (धनी वर्ग) और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी ज़िम्मेदारी है कि वे ग़रीब और होनहार बच्चों की सरपरस्ती और रहनुमाई करें।
बच्चों की तालीम पर सरकार की एजुकेशन पॉलिसियाँ भी असर डालती हैं। एक वक़्त था कि उस्ताद बच्चे को ग़लती करने पर सज़ा दे सकता था अब सज़ा देने पर पाबंदी है। एक वक़्त था कि बच्चे को फ़ेल होने का डर सताता था अब आठवीं क्लास तक फ़ेल होने का कोई ख़तरा नहीं।
ज़ाहिर है न उस्ताद का डर न फ़ेल होने का डर तो फिर बच्चा क्यों पढ़े। इसका नतीजा है कि सरकारी स्कूलों में पढ़नेवाले स्टूडेंट्स आठवीं क्लास पास कर लेते हैं और कुछ तो सही तरीक़े से अपना नाम भी नहीं लिख सकते।
इसलिये मेरी गुज़ारिश हर उस शख़्स से है जो मुल्क और मिल्लत की तरक़्क़ी और उरूज का ख़ाहिशमन्द है कि वह बच्चे की तालीम पर असर डालने वाले तमाम फैक्टर्स पर नज़र रखे ताकि हर बच्चा मिल्लत के मुक़द्दर का सितारा बन सके।
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली