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दास्ताने मुग़ल-ए-आज़म: दो मुग़ल-ए-आज़म थे, बादशाह अकबर और करीमउद्दीन आसिफ़, जिन्हें दुनिया आसिफ़ के नाम से जानती है- रवीश कुमार

रवीश कुमार 

आसिफ़ को अपने सपनों से ही प्यार नहीं था। अपने वतन से भी था। आसिफ़ के सपने एक नए मुल्क के सपने की तरह बड़े थे। ऊंची और लंबी छलांग लगाना चाहते थे। एक फ़िल्म को लेकर इस तरह के जुनून के किस्से कम हैं। शीश महल जैसे सेट बनाने के लिए एक निर्देशक एक साल इंतज़ार करता है। एक ऐसा सेट तैयार करता है जिसकी कल्पना न पहले के इतिहास में थी, न उसके बाद के इतिहास में की गई। इस किताब के ज़रिए मेरी आखें कैमरे की तरह के आसिफ़ के पीछे-पीछे चल रही हैं। अभी आधी मंज़िल ही तय हो सकी है। जिस तरह से मुगल-ए-आज़म के संवाद वाले जोड़े में बिकने वाले कसेट की धूम थी, यह किताब भी वही मुकाम हासिल करेगी। 


एक फिल्म के बनने के पीछे की फिल्म का यह किस्सा आसिफ़ के पैदा होने से शुरू होता है। 

“1922 में एक साथ दो घटनाएं हुईं जिनका ज़ाहिरा तौर पर एक दूसरे से कोई ताल्लुक नज़र नहीं आता था एक तरफ़ लाहौर में बैठे एक ड्रामानिगार इम्तियाज़ अली ‘ताज’ ने एक नाटक लिखा ‘अनारकली’ तो दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश के इटावा ज़िले में 14 जून 1922 को डॉक्टर फ़ज़ल करीम और बीबी गुलाम फ़ातिमा के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। नाम रखा गया करीमउद्दीन आसिफ़। 
पूरे 22 साल बाद जाकर इन दो घटनाओं के बीच का रिश्ता उस वक्त उजागर हुआ जब करीमउद्दीन आसिफ़, जो उस वक्त तक बम्बई पहुंचकर के आसिफ़ बन चुका था, ने ‘अनारकली’ की कहानी सुनी और उसे अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया।” 
मुग़ल-ए-आज़म बनने की कहानी से पहले यह किताब एक दर्ज़ी के निर्देशक बनने की कहानी कहती है। जैसे कोई के आसिफ़ के जीवन को निर्देशित कर रहा हो, उस अंदाज़ में जिस शख़्स ने इस किस्से को बयां किया है उसका नाम राजकुमार केसवानी है। आसिफ़ की ऐसी शानदार एंट्री कोई उनकी कहानी कहने निकला जुनूनी ही कर सकता है, जैसे आसिफ़ के मुग़ल-ए-आज़म के पहले सीन में हिन्दुस्तान की एंट्री होती है। वह अकबर का हिन्दुस्तान नहीं था, वह आसिफ़ का हिन्दुस्तान था, जिसने अकबर के हवाले से पूरी दुनिया के सामने पेश की थी। 


“मैं हिंदोस्तान हूं। हिमालिया मेरी सरहदों का निगहबान है। गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध। तारीख़ की इब्तदा से मैं अंधेरों और उजालों का साक्षी हूं और मेरी ख़ाक पर संगे-मरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतें दुनिया से कह रही है कि ज़ालिमों ने मुझे लूटा और मेहरबानों ने मुझे संवारा। नादानों ने मुझे ज़ंजीरें पहना दीं और मेरे चाहने वालों ने उन्हें काट फेंका। 

मेरे इन चाहने वालों में एक इंसान का नाम जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर था। अकबर ने मुझसे प्यार किया। मज़हब और रस्मी-रिवाज़ की दीवार से बलन्द होकर, इंसान को इंसान से मोहब्बत करना सिखाया और हमेशा के लिए मुझे सीने से लगा लिया। “  
लंबे समय तक यमुना नदी को पार करते वक्त अपनी कार में मुग़ल-ए-आज़म का डबल कैसेट लगा देता था। इस पहले संवाद को सुनने के लिए। सुनते सुनते संवाद अदायगी की कशिश तो न आई मगर अपने वतन को देखने और महसूस करने का पैमान बन गया। उसकी भव्यता दिलो-दिमाग़ पर हावी हो गई। आज भी जब अपने वतन के लिए प्यार उमड़ता है, यू ट्यूब में जा जाकर इस संवाद को देखता हूँ। 


कुछ ऐसा ही असर किया है दास्ताने मुग़ल-ए-आज़म के कहानीकार ने।


राजकुमार केसवानी की कहानी अतीत से निकाल कर यहां नहीं लाना चाहता। उन्होंने जो कहानी अतीत से निकाल कर लाई है उसकी कीमत पर यह ठीक नहीं होगा। बस इतना कहने से ख़ुद को रोक नहीं पा रहा हूं। के आसिफ़ ने हमें मुग़ल-ए-आज़म दी तो आसिफ़ की दास्तान सुनाने के जुनून ने एक और आसिफ़ पैदा कर दिया है। इस आशिक़ और आसिफ़ का नाम है राजकुमार केसवानी। 


इस किताब का हर पन्ना और हर पन्ने का हर किस्सा एक नए सीन की तरह शुरू होता है और अगले सीन के आने से पहले ख़त्म हो जाता है। इसे पढ़ते हुए आप एक बार फिर से के आसिफ़ को देखने लगते हैं। मुग़ल-ए-आज़म को बनते हुए देखने लगते हैं। बल्कि इस महान फ़िल्म को पहले से बेहतर समझते हैं। 

पिछले दिनों दिल्ली में फिरोज़ ख़ान ने जब रंगमंच पर मुग़ल-ए-आज़म का मंचन किया था तब उसकी भव्यता और कलाकारों के अनुशासन और अभिनय का कमाल देखा था। लंबे समय तक अपनी आंखों की किस्मत पर इतराता रहा कि क्या ख़ूब देखना हुआ है। इस किताब को पढ़ते हुए आज वैसा ही लग रहा है। एक निर्देशक के सपनों का पीछा करते हुए और फिल्म को फिर से बनते देखने के लिए। 


भोपाल के मंजुल प्रकाशन ने छापा है। दुर्लभ जानकारियां हैं। तस्वीरें हैं। हर पन्ना शानदार है। यह किताब जिस रवानगी से लिखी गई है उस लिहाज़ से इसकी कीमत बेहद मामूली है। ये बात कदरदान ही समझेंगे। नादान नहीं समझेंगे। मात्र 1599 रुपये की है।

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