2011 की आर्थिक एवं जाति जनगणना के अनुसार भारत के कुल परिवारों में से 4.42 करोड़ परिवार अनुसूचित जाति (दलित) से सम्बन्ध रखते हैं। इन परिवारों में से केवल 23% अच्छे मकानों में, 2% रहने योग्य मकानों में और 12% जीर्ण शीर्ण मकानों में रहते हैं। इन परिवारों में से 24% परिवार घास-फूस, पॉलीथीन और मिट्टी के मकानों में रहते हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अधिकतर दलितों के पास रहने योग्य घर भी नहीं हैं। काफी दलितों के घरों की ज़मीन भी उनकी अपनी नहीं है।

यह भी सर्वविदित है कि शहरों की मलिन बस्तियों तथा झुग्गी झोंपड़ियों में रहने वाले अधिकतर दलित एवं आदिवासी ही हैं। यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इतने छोटे मकानों और झोंपड़ियों में कई-कई लोगों के एक साथ रहने से कोरोना की रोकथाम के लिए फिज़िकल डिस्टेंसिंग कैसे संभव है। महाराष्ट्र का धारावी स्लम इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जहाँ बड़ी तेजी से संक्रमण के मामले आ रहे हैं। यदि ऐसी ही परिस्थिति रही तो इससे मरने वालों की संख्या का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। 

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उपरोक्त जनगणना के अनुसार केवल 3.95% दलित परिवारों के पास सरकारी नौकरी है। केवल 0.93% के पास राजकीय क्षेत्र तथा केवल 2.47% के पास निजी क्षेत्र का रोज़गार है। इससे स्पष्ट है कि दलित परिवार बेरोज़गारी का सबसे बड़ा शिकार हैं। वास्तव में आरक्षण के 70 साल लागू रहने पर भी सरकारी नौकरियों में दलित परिवारों का प्रतिनिधित्व केवल 3.95% ही क्यों है? क्या आरक्षण को लागू करने में हद दर्जे की बेईमानी नहीं बरती गयी है? क्या मेरिट के नाम पर दलित वर्गों के साथ खुला धोखा नहीं किया गया है और दलितों को उनके संवैधानिक अधिकार (हिस्सेदारी) से वंचित नहीं किया गया है? यदि दलितों में मेरिट की कमी वाले झूठे तर्क को मान भी लिया जाए तो फिर दलितों में इतने वर्षों में मेरिट पैदा न होने देने के लिए कौन ज़िम्मेदार है? 

इसी जनगणना में यह उभर कर आया है कि देश में दलित परिवारों में से केवल 83.55% परिवारों की मासिक आय 5,000 से अधिक है। केवल 11.74% परिवारों  की मासिक आय 5,000 से 10,000 के बीच है और केवल 4.67% परिवारों की आय 10,000 से अधिक है। सरकारी नौकरी से केवल 3.56% परिवारों की मासिक आय 5,000 से अधिक है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि गरीबी की रेखा के नीचे दलितों  का प्रतिशत बहुत अधिक है जिस कारण दलित ही कुपोषण का सबसे अधिक शिकार हैं। 

इसी प्रकार उपरोक्त जनगणना के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 56% परिवार भूमिहीन हैं। इनमें से भूमिहीन दलितों का प्रतिशत 70 से 80% से भी अधिक हो सकता है। दलितों की भूमिहीनता की दशा उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है जिस कारण वे भूमिधारी जातियों पर पूरी तरह से आश्रित रहते हैं। इसी प्रकार देहात क्षेत्र में 51% परिवार हाथ का श्रम करने वाले हैं जिन में से दलितों का प्रतिशत 70 से 80% से अधिक हो सकता है। जनगणना के अनुसार दलित परिवारों में से केवल 18.45% के पास असिंचित, 17.41% के पास सिंचित तथा 6.98% के पास अन्य भूमि है।

इससे स्पष्ट है की दलितों की भूमिहीनता लगभग 91% है। दलित मजदूरों की कृषि मजदूरी पर सब से अधिक निर्भरता है। जनगणना के अनुसार देहात क्षेत्र में केवल 30% परिवारों को ही कृषि में रोज़गार मिल पाता है जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इनमें कितने दलितों को कृषि से रोज़गार मिल पाता होगा। यही कारण है कि गाँव से शहरों की ओर पलायन करने वालों में सबसे अधिक दलित ही हैं। हाल में कोरोना संकट के समय शहरों से गाँव की ओर उल्टा पलायन करने वालों में भी बहुसंख्यक दलित ही हैं।

दलितों की भूमिहीनता और हाथ की मजदूरी की विवशता उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। इसी कारण वे न तो कृषि मजदूरी की ऊँची दर की मांग कर सकते हैं और न ही अपने ऊपर प्रतिदिन होने वाले अत्याचार और उत्पीड़न का मजबूती से विरोध ही कर पाते हैं। अतः दलितों के लिए ज़मीन और रोज़गार उन की सब से बड़ी ज़रूरत है। परन्तु इस के लिए मोदी सरकार का कोई भी एजेंडा नहीं है। इस के विपरीत मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण करके दलितों को भूमिहीन बना रही है और कृषि क्षेत्र में कोई भी निवेश न करके इस क्षेत्र में रोज़गार के अवसरों को कम कर रही है। अन्य क्षेत्रों में भी सरकार रोज़गार पैदा करने में बुरी तरह से विफल रही है।

सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के कारण दलितों को आरक्षण के माध्यम से मिलने वाले रोज़गार के अवसर भी लगातार कम हो रहे हैं। इसके विपरीत ठेकेदारी प्रथा से दलितों एवं अन्य मज़दूरों का खुला शोषण हो रहा है। मोदी सरकार ने श्रम कानूनों का शिथिलीकरण करके मजदूरों को श्रम कानूनों से मिलने वाली सुरक्षा को ख़त्म कर दिया है। इससे मजदूरों का खुला शोषण हो रहा है जिसका सबसे बड़ा शिकार दलित परिवार हैं। 

अमेरिका में वर्तमान कोरोना महामारी के अध्ययन से पाया गया है कि वहां पर संक्रमित/मृतक व्यक्तियों में गोरे लोगों की अपेक्षा काले लोगों की संख्या अधिक है। इसके चार मुख्य कारण बताये गए हैं: अधिक खराब सेहत और कम स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता एवं भेदभाव, अधिकतर काले अमरीकी लोगों का आवश्यक सेवाओं में लगे होना, अपर्याप्त जानकारी एवं छोटे घर। भारत में दलितों के मामले में तो इन सभी कारकों के अलावा सबसे बड़ा कारक सामाजिक भेदभाव है। इसी लिए यह स्वाभाविक है कि हमारे देश में भी काले अमरीकियों की तरह समाज के सबसे निचले पायदान पर दलित एवं आदिवासियों के ही कोरोना से सबसे अधिक प्रभावित होने की आशंका है।  

वर्तमान कोरोना संकट से जो रोज़गार बंद हो गए हैं उसकी सबसे अधिक मार दलितों/ आदिवासियों पर ही पड़ने वाली है। हाल के अनुमान के अनुसार कोरोना की मार के फलस्वरूप भारत में लगभग 40 करोड़ लोगों के बेरोज़गारी का शिकार होने की आशंका है जिनमें अधिकतर दलित ही होंगे। इसके साथ ही आगे आने वाली जो मंदी है उसका भी सबसे बुरा प्रभाव दलितों एवं अन्य गरीब तबकों पर ही पड़ने वाला है। यह भी देखा गया है कि वर्तमान संकट के दौरान सरकार द्वारा राहत सम्बन्धी जो घोषणाएं की भी गयी हैं वे बिल्कुल अपर्याप्त हैं और ऊंट के मुंह में जीरा के सामान ही हैं। इन योजनाओं में पात्रता को लेकर इतनी शर्तें लगा दी जाती हैं कि उनका लाभ आम आदमी को मिलना असंभव हो जा रहा है। 

उत्तर कोरोना काल में दलितों की दुर्दशा और भी बिगड़ने वाली है क्योंकि उसमें भयानक आर्थिक मंदी के कारण रोज़गार बिल्कुल घट जाने वाले हैं। चूँकि दलितों के पास उत्पादन का अपना कोई साधन जैसे ज़मीन तथा व्यापार कारोबार आदि नहीं है, अतः मंदी के दुष्परिणामों का सबसे अधिक प्रभाव दलितों पर ही पड़ने वाला है। इसके लिए ज़रूरी है कि भोजन तथा शिक्षा के अधिकार की तरह रोज़गार को भी मौलिक अधिकार बनाया जाये और बेरोज़गारी भत्ते की व्यवस्था लागू की जाये। इसके साथ ही स्वास्थ्य सुरक्षा को भी मौलिक अधिकार बनाया जाये ताकि गरीब लोगों को भी स्वास्थ्य सुरक्षा मिल सके। इसके लिए ज़रूरी है कि हमारे विकास के वर्तमान पूंजीवादी मॉडल के स्थान पर जनवादी समाजवादी कल्याणकारी राज्य के मॉडल को अपनाया जाये। 

यह उल्लेखनीय है कि डॉ. आंबेडकर राजकीय समाजवाद (जनवादी समाजवाद) के प्रबल समर्थक और पूंजीवाद के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने तो दलित रेलवे मजदूरों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था कि “दलितों के दो बड़े दुश्मन हैं, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूँजीवाद।” वे मजदूर वर्ग की राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी के बहुत बड़े पक्षधर थे। डॉ. आंबेडकर के मस्तिष्क में समाजवाद की रूप-रेखा बहुत स्पष्ट थी। भारत के सामाजिक रूपान्तरण और आर्थिक विकास के लिए वे इसे अपरिहार्य मानते थे।

उन्होंने भारत के भावी संविधान के अपने प्रारूप में इस रूप-रेखा को राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत भी किया था जो कि “स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज अर्थात राज्य एवं अल्पसंख्यक” नामक पुस्तक के रूप में उपलब्ध है। वे सभी प्रमुख एवं आधारभूत उद्योगों, बीमा, कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण एवं सामूहिक खेती के पक्षधर थे। वे कृषि को राजकीय उद्योग का दर्जा दिए जाने के पक्ष में थे। डा. आंबेडकर तो संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार नहीं बनाना चाहते थे परन्तु यह उनके वश में नहीं था। 

वर्तमान कोरोना संकट ने यह सिद्ध कर दिया है कि अब तक भारत सहित अधिकतर देशों में विकास का जो पूँजीवाद मॉडल रहा है उसने शोषण एवं असमानता को ही बढ़ावा दिया है। यह आम जन की बुनियादी समस्याओं को हल करने में बुरी तरह से विफल रहा है। जबसे राजनीति का कॉरपोरेटीकरण एवं फाइनेंस कैपिटल का महत्व बढ़ा है, तब से लोकतंत्र की जगह अधिनायकवाद और दक्षिणपंथ का पलड़ा भारी हुआ है। इस संकट से यह तथ्य भी उभर कर आया है कि इस संकट का सामना केवल समाजवादी देश जैसे क्यूबा, चीन एवं वियतनाम आदि ही कर सके हैं। उनकी ही व्यवस्था मानव जाति के जीवन की रक्षा करने में सक्षम है। वरना आपने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को तो सुना ही होगा जिसमें वह कहते हैं कि लगभग ढाई लाख अमरीकियों को तो कोरोना से मरना ही होगा और इसमें वह कुछ नहीं कर सकते।

पूंजीवाद के सर्वोच्च मॉडल की यह त्रासद पुकार है जो दिखा रही है कि मुनाफे पर पलने वाली पूंजीवादी व्यवस्था पूर्णतया खोखली है। इसलिए दलितों के हितों की रक्षा भी जनवादी समाजवादी राज्य व्यवस्था में ही सम्भव है। बाबा साहब की परिकल्पना तभी साकार होगी जब दलित, पूंजीपतियों की सेवा में लगे बसपा, अठवाले, रामविलास जैसे लोगों से अलग होकर, रेडिकल एजेंडा (भूमि आवंटन, रोज़गार, स्वास्थ्य सुरक्षा, शिक्षा, एवं सामाजिक सम्मान आदि) पर आधारित जन राजनीति के साथ जुड़ेंगे। यही राजनीति एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करेगी जिसमें उत्तर कोरोना काल की चुनौतियों का जवाब होगा। इसी दिशा में जनवादी समाजवादी राजनीति का प्रयास जारी है।

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