कलीमुल हफ़ीज़
मेरे दोस्तों! बदलाव की बातें सब करते हैं। मस्जिद के इमाम से लेकर सियासत के इमाम तक भाषण देते हैं। मश्वरे देते हैं, लेकिन उससे एक क़दम आगे बढ़ने का काम नहीं करते और इसलिये क़ौम जहाँ थी वहीँ रह जाती है। सुननेवालों के दिलों में भी जज़्बात पनपते हैं, अज़्म और पक्के इरादे की कोंपलें फूटती हैं लेकिन कोई आगे नहीं बढ़ता तो सारी कोंपलें मुरझा जाती हैं, सारे जज़्बात सर्द हो जाते हैं। मैं कहता हूँ आप ख़ुद आगे बढ़िये, एक गली के लोग, एक ख़ानदान के लोग, एक मस्जिद के मुक़्तदी, एक बस्ती के अवाम ख़ुद आगे बढ़ें, इकट्ठा हों। मसायल की लिस्ट बनाएँ, उनके हल पर ग़ौर करें, तब्दीली के लिये उनमें से जो लोग जो किरदार अदा कर सकता हो वो ख़ुद को पेश करे। इख़्लास के साथ, ईसार और क़ुर्बानी के साथ, सब्र और तहम्मुल (बर्दाश्त) के साथ आगे बढ़ें। अल्लाह से लौ लगाते हुए, अपनी कोताहियों पर माफ़ी माँगते हुए, इन्सानियत की फ़लाह का जज़्बा रखते हुए क़दम से क़दम मिलाकर जब हम चलेंगे तो तब्दीली आएगी, इन्क़िलाब दस्तक देगा।
ये हमारी ख़ुशनसीबी है कि हम हिन्दुस्तान के शहरी हैं। जहाँ तरक़्क़ी के सारे मौक़े हासिल हैं। यहाँ जम्हूरी निज़ाम (लोकतान्त्रिक व्यवस्था) है। जिसमें अपनी बात अगर सलीक़े से कही जाती है तो सुनी भी जाती है। आज के हालात हालाँकि सख़्त हैं, हमें अपना वुजूद भी ख़तरे में नज़र आ रहा है। लेकिन यहाँ संविधान है जिसमें बुनियादी हुक़ूक़ दर्ज हैं। यहाँ ब्रादराने-वतन में ऐसे मुख़लिस लोग हैं जो हर क़दम पर हमारा साथ देने को तैयार हैं। ये मुल्क हमारा है। हमारी तरक़्क़ी इस मुल्क की तरक़्क़ी है। मुल्क से मुहब्बत का तक़ाज़ा है कि हम मुल्क की सलामती, इसकी एकता और अखण्डता के लिये काम करें। ये उसी वक़्त मुमकिन होगा जब हमारी क़ौम अपने वतन के दूसरे भाइयों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलेगी।
अल्लाह का तरीक़ा ये है कि किसी एक इन्सान का मामला हो या क़ौम का वो उसके हालात उस वक़्त नहीं बदलता जब तक कि ख़ुद वो इन्सान या क़ौम अपने हालात बदलने की कोशिश नहीं करती। इसके लिये मंसूबा नहीं बनाती, इसके लिये जिद्दोजुहद नहीं करती। ये ख़ुदा का तरीक़ा है। ये तरीक़ा सबके साथ है, इसमें ईमान, इस्लाम, कुफ़्र और शिर्क की कोई क़ैद नहीं है। एक इन्सान अपने तालीमी पिछड़ेपन को दूर करना चाहता है तो उसे किताब भी लेनी होगी, क़लम भी पकड़ना होगा, किसी उस्ताद के सामने लिखना पढ़ना भी होगा। इनके बग़ैर वो पढ़ नहीं सकता। ऐसा नहीं होगा कि अल्लाह अपने फ़रिश्ते को सब कुछ लेकर भेजे। फ़रिश्ता आए और फूँक मारे और बस काम हो गया। पलक झपकते ही एक अनपढ़, पढ़ा लिखा हो गया। देहात में एक मिसाल दी जाती है कि जन्नत देखना है तो मरना ख़ुद ही पड़ेगा। हालात और ज़्यादा इन्तिज़ार के क़ाबिल नहीं हैं। इमाम मेहदी और ईसा अलैहिस्सलाम (जिनके दुबारा दुनिया में आने का वादा किया गया है) के इन्तिज़ार तक तो हम ख़ाक में मिल जाएँगे। हमें अपने हिस्से का काम शुरू करना चाहिये। मैं भी जिस लायक़ हूँ आपके साथ-साथ चलने को तैयार हूँ।
उठ कि अब बज़्मे-जहाँ का और ही अन्दाज़ है।
मशरिक़ो मग़रिब में तेरे दौर का आग़ाज़ है॥
नई दिल्ली (hilalmalik@yahoo.com)
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