नई दिल्ली: कुछ हिंदू पुजारियों पर आधारित संस्था विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ व अन्य की ओर से देश की सर्वोच्च अदालत में मथुरा ईदगाह और ज्ञानवापी मस्जिद को विवादित बनाने के लिए दाखिल की गई याचिकाओं पर आज सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया की 3 सदस्यीय बेंच ने सुनवाई की जिस पर याचिकाकर्ता के वकील विष्णु शंकर जैन ने अदालत से चार हफ्तों का समय मांगा, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया। ज्ञात रहे कि 1991 के प्लेस ऑफ़ वरशिप एक्ट की संवैधानिक मान्यता को उपरोक्त हिंदू संगठनों की ओर से अदालत में चैलेंज किया गया है जिस पर सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने सुनवाई की, जिसमें जस्टिस सुभाष रेड्डी और जस्टिस ऐस बोपन्ना शामिल हैं।

सुप्रीम कोर्ट में जमीयत उलेमा ने इस मामले में पक्षकार बनने की याचिका देते हुए कहा था कि ऐसे मामलों में अदालत सुनवाई ना करें क्योंकि अगर इस मामले की सुनवाई होती है तो बहुत सारे विवाद आगे खड़े हो सकते हैं। इसलिए विवादों को विराम देने के लिए जरूरी है कि ऐसे मामलों का अदालत संज्ञान न ले। अगर अदालत इस मामले की सुनवाई करती है तो भविष्य में बहुत सारी कठिनाइयां पेश आ सकती हैं और भारत की एकता और अखंडता को धूमिल किया जा सकता है और भारतीय सभ्यता को चोट पहुंचाई जा सकती है।

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जमीयत की ओर से देश के जाने-माने वकील राजीव धवन पूरी तैयारी के साथ आज अदालत पहुंचे थे मगर याचिकाकर्ता के वकील की बातों का संज्ञान लेते हुए कोर्ट ने 4 हफ्ते के लिए सुनवाई को टाल दिया। इस पूरे मामले पर जमीअत उलमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना सैयद अरशद मदनी ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि संविधानिक मान्यताओं को कायम रखना और उसकी रक्षा करना हुकूमत के साथ न्यायालय का भी काम है। हमें आशा है कि कानून की हुकूमत कायम रहेगी। उन्होंने यह भी कहा कि बाबरी मस्जिद मामले में पांच जजों की संविधानिक बंच ने प्लेस ऑफ़ वरशिप एक्ट पर कहा था कि यह कानून संविधान की बुनियाद है। दूसरे यह कि इस कानून का पैरा 4 में धार्मिक स्थलों की स्थिति को बदलने से रोकता है, शायद इसीलिए इस कानून की संविधानिक स्थिति को चैलेंज किया जा रहा है। मौलाना मदनी ने आगे कहा कि धार्मिक स्थलों की रक्षा के लिए कानून बनाकर हुकूमत ने यह संवैधानिक जिम्मेदारी ली है कि वह सभी धर्मों के धार्मिक स्थलों की रक्षा करेगी।

मौलाना ने कहा कि इस कानून को लाने का बड़ा मकसद यह भी था कि इससे सेकुलरिज्म की जड़ों को और मजबूत किया जा सके। ज्ञात रहे कि प्लेस ऑफ़ वरशिप कानून 18 सितंबर 1991 को पास किया गया था जिसके अनुसार 1947 में देश आजाद होने के वक्त जिस धार्मिक स्थल की जो स्थिति थी उसे तब्दील नहीं किया जा सकता है। इससे बाबरी मस्जिद मामले को अलग रखा गया था क्योंकि यह मामला न्यालय में विचाराधीन था।

जमीअत उलमा हिंद ने इस मामले में सबसे पहले अदालत से पक्षकार बनने की दरखास्त की है ताकि न्यायालय से यह गुजारिश की जा सके कि वह साधुओं की याचिका को सुनवाई के लिए कबूल ना करे। जमीअत उलमा हिंद लीगल समिति के मुखिया गुलजार आज़मी को पक्षकार की अर्ज़ी पर मुद्दई बनाया गया है, जिसका नंबर 54990/2020 है। आज की न्यायालय की कार्यवाही में डॉक्टर राजीव धवन की सहायता के लिए एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड अजाज़ मकबूल, वकील आकृति चौबे, वकील शाहिद नदीम और वकील ऐश्वर्या सरकार व अन्य मौजूद थे.

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