नई दिल्ली: अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं हम ‘होमो सेपियन्स’ अपनी तमाम असहमतियों के साथ युवाल नोआ हरारी के दिलचस्प ऐतिहासिक किस्सों में लपेट कर परोसे गए जीव विज्ञान से जुड़े रोमांचक आख्यानों का पूरा आनंद ले रहे थे और हमने उसके प्रश्नों पर ध्यान देना शुरू कर दिया था कि ‘अमरता की खोज की गिलगमेश परियोजना को पूरा होने में कितना समय लगेगा? सौ साल? पाँच सौ साल? एक हजार साल? जब हम यह याद करते हैं कि मानव शरीर के बारे में 1900 में हम कितना कम जानते थे और एक सदी के भीतर ही हमने कितना ज्ञान अर्जित कर लिया है, तो आशावादी होने की वजह दिखाई देती है। जेनेटिक इंजीनियरों ने हाल ही में काइनोर्हेब्डीटीज़ एलिगेंस कीड़ों की औसत जीवन-संभावना को छह गुना बढ़ा दिया है।
क्या वे यही काम होमो सेपियन्स के संदर्भ में भी कर सकते हैं? नैनोटेक्नोलॉजी के विशेषज्ञ लाखों ऐसे नैनो-रोबॉट्स से निर्मित एक बाइओनिक इम्यून सिस्टम को विकसित करने में लगे हैं, जो हमारे शरीरों में रहा करेंगे, अवरुद्ध रक्त-वाहिकाओं को खोलेंगे, वायरसों और बैक्टीरियाओं से लड़ेंगे, कैंसर-कोशिकाओं को नष्ट करेंगे और उम्र बढ़ने की प्रक्रिया तक को उलट देंगे।‘ हरारी के साथ-साथ हम भी कुछ गंभीर अध्येताओं की इस बात को पूरे होशो-हवास में रहते हुए मानने लगे थे कि 2050 तक कुछ मनुष्य अमरता को प्राप्त ना भी हुए तो भी ‘अ-नश्वर’ जरूर बन जाएँगे। बस ऐन उसी वक़्त यह कमबख़्त कोरोना वायरस आ गया और हम शासितों के तमाम छोटे-बड़े दिवा-स्वप्नों को तहस-नहस कर गया।
आम आदमी के सपनों का टूट जाना तो आम बात है लेकिन आम आदमी को सपनों के टूटने की आदत पड़ गयी हो ऐसा भी नहीं है। काल से होड़ लेते हुए मनुष्य के भीतर जब तक जिजीविषा जीवित रहती है तब तक वह सपने देखता रहता है। आज कोरोना और लॉक डाउन से पीड़ित भारत में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनकी जिजीविषा दम तोड़ती नज़र आने लगी है। मेनस्ट्रीम मीडिया ने लॉक डाउन के इतने दिनों बाद भी मस्जिदों में ‘छुपे हुए’ मुसलमान और मंदिर-गुरुद्वारों में ‘रुके हुए’ हिन्दू-सिख दिखाने शुरू कर दिये हैं। लेकिन टीवी के माध्यम से घोला जा रहा यह हिन्दू-मुस्लिम वाला ज़हर ना ही रामानन्द सागर वाले ‘रामलला’ लोगों का ध्यान बटाने में सफल हो पा रहे हैं। वजह यह है कि लॉक डाउन से जुड़ी कुछ ज्यादा ही भयावह तस्वीरें सामने आने लगी हैं जो किसी मीडिया का हिस्सा नहीं हैं। एक तस्वीर मेरे घर से कुछेक किलोमीटर की दूरी पर एक कमरे में बंद कमलेश यादव नाम के अप्रवासी दिहाड़ी-मजदूर और उसके परिवार के पाँच सदस्यों की है।
लॉक डाउन की वजह से पिछले सात दिनों में इनके पेट में एक निवाला भी नहीं गया है और वह भूखे-प्यासे अपने कमरे में बंद हैं। दूसरी एक तस्वीर और सामने आई है जिसमें इन अप्रवासी दिहाड़ी-मजदूरों के कमरे से कुछ ही दूरी पर, घर से बच्चों के लिए राशन की तलाश में निकले अंग्रेज़ सिंह नामक एक शख़्स ने निराश होकर एक पेड़ पर फंदा लगाकर कर आत्महत्या कर ली है। अर्थशास्त्री और ऐक्टिविस्ट ज्यां द्रेज की पिछले दिनों कही यह बात एक क्षण को सही, क्या सच मान लें कि ‘भूखे-प्यासे लोग बगावत नहीं करते’। कमलेश यादव और अंग्रेज़ सिंह जैसे लाखों और हैं जो देश भर में इस भूख से लड़ रहे हैं।
जिस किसी ने भी अरुण प्रकाश की कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ पढ़ी है वह बेहद असुरक्षित एक अप्रवासी मज़दूर की कभी ना खत्म होने वाली भूख के खिलाफ़ हो रही इस ‘अकेले लड़ी जा रही’ जंग को समझ सकता है। इंसान अपनी भूख तो फिर भी बर्दाश्त कर लेता है लेकिन अपनी औलाद को भूख से रोते हुए देखना नाकाबिल-ए—बर्दाश्त हो जाता है। शायद इसी लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में लोग सड़कों पर रोटी की तलाश में निकल रहे हैं, पुलिस की लाठियाँ खा रहे हैं, गिरफ्तार हो रहे हैं और उन्हें प्रधानमंत्री की दिया जलाने की अपील आश्वस्त नहीं कर रही। क्योंकि वह जानते हैं दीया जलाने से उनके बच्चे का पेट नहीं भर जाएगा।
भारत जैसे देश में जहां लगभग आधी आबादी पहले से ही दुनिया में सबसे ज्यादा कुपोषण का शिकार है बिना किसी तैयारी या योजना के लॉक डाउन की घोषणा सियासी सूझ के दिवालियापन का सबसे सटीक उदाहरण कहा जा सकता है। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हम यूनिसेफ की रिपोर्ट पर ही नज़र डालें तो भारत की स्थिति उप-सहारा अफ्रीका और नेपाल और अफगानिस्तान जैसे ‘सबसे कम विकसित देशों’ से भी नीचे है। उस पाकिस्तान से भी नीचे जिसे 24 घंटे हमारा मीडिया कोसता रहता है। दक्षिण एशिया (केवल भारत नहीं) में बाल कुपोषण के ऊँचे स्तर की प्रवृत्ति को, जिसकी बराबरी उप-सहारा अफ्रीका के उन देशों से की जा सकती है जिनके आय या स्वास्थ्य संबंधी संकेतक कमजोर हैं, ‘दक्षिण एशियाई पहेली’ क्यों कहा जाता है यह बात अमर्त्य सेन बेहतर ढंग से ‘दीया जलाओ’ या ‘थाली बजाओ’ की अपील करने वाले प्रधानमंत्री मोदी को समझा सकते थे, अगर उन्हें यहाँ टिकने दिया गया होता।
हम उस देश के वासी हैं जहाँ तंबाकू के इस्तेमाल से होने वाले कैंसर से 3500 नागरिक प्रतिदिन मर जाते हैं। हम उस देश के वासी हैं जहाँ ‘बेटी बचाओ’ जैसे जुमले तो उछले जाते हैं लेकिन बच्चे दानी के कैंसर से हरेक आठ मिनट बाद एक बेटी मर जाती है। तकरीबन 22 लाख लोग हर साल टीबी के संक्रमण के शिकार हो जाते हैं और जो एक लाख लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं उनके बारे में कोई ख़बर किसी की नज़रों से होकर गुज़री है क्या? और अब यह कोरोना का संकट! जाहिल से जाहिल आदमी भी इस बात को समझता है कि किसी भी धर्म के गुरु-पैगंबर, भगवान या देवी-देवता के पास इसका इलाज नहीं है।
सब के सब धर्मस्थलों के दरवाजों पर ताले जड़ दिये गए हैं। कण-कण में करोना और सिर्फ़ दूरदर्शन में राम हैं। हल निकलेगा तो वैज्ञानिक शोध-अनुसन्धानों से ही निकलेगा। थाली बजाने या दीया जलाने से नहीं निकलेगा। यह लोगों को भ्रमित करने का टोटका तो हो सकता है लेकिन शासकों को यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाए अच्छा है कि कर्फ़्यू और पुलिस की परवाह किए बगैर अगर लाखों लोग सड़कों पर उतर आए हैं तो इसका सीधा-सा मतलब यह है कि लोगों का अपने शासकों और इस व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है। मुहल्लों में गए स्वास्थ्य-कर्मियों पर अगर लोग पत्थर बरसा रहे हैं तो यह बात इस ओर इशारा करती है कि लोगों का सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य-कर्मियों पर भरोसा नहीं है।
देश की राजधानी दिल्ली में बाड़ा हिंदूराव अस्पताल के डॉक्टर-नर्सें अगर अपने इस्तीफ़े सौंप रहे हैं तो इसलिए नहीं कि वे डर गए हैं बल्कि इसलिए कि उनके पास जो प्राथमिक सुरक्षा साधन होने चाहिए वह भी नहीं हैं। डॉक्टर-नर्सें तेजी से कोरोना-संक्रमण के शिकार हो रहे हैं और आप कहते हैं कि जंग है, जंग है। इस जंग में दूर-दूर तक विदेशी फंडों पर पल रही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कोई स्वयं सेवक तो दिखाई नहीं दे रहा है और आप स्वास्थ्य-कर्मियों से बिना हथियारों के जंग लड़ने को कह रहे हैं, जो संभव नहीं है। पहले उन्हें जैसे भी हो बुनियादी सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाने होंगे। सयाने कहते हैं कि घर में आग लगी हो तो मश्क़ों के भाव नहीं पूछता करते।
लॉक डाउन के दूसरे दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों की भोजन आवश्यकता और उसके खातों में धन उपलब्ध कराने के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपए की राहत योजना की घोषणा की है। इस घोषणा की कई जानकारों ने यह कहते हुए आलोचना की है कि यह राशि आवश्यक धन से बहुत कम है। अब यह राशि आवश्यक धन से कम है, एक चौथाई है, आधी है या जितनी भी है कागजों पर बनी एक योजना का हिस्सा है।
अब यह योजना लागू होगी या नहीं होगी या होगी भी तो लॉक डाउन खत्म होने तक यह पैसा गरीबों तक पहुँच जाएगा या कितने प्रतिशत पहुंचेगा या नहीं पहुंचेगा, कोई नहीं कह सकता। फिलहाल 635 सुविख्यात शिक्षाविदों और सिविल सोसाइटी कार्यकर्ताओं और नीति विश्लेषकों ने एक पत्र जारी कर राज्यों और केंद्र की सरकारों से संकट के बचाव के लिए न्यूनतम आपातकालीन उपाय लागू करने के लिए अपील की है। अब यह अपील लॉक डाउन ख़त्म होने तक या लॉक डाउन की मियाद बढ़ा दिये जाने के बाद, उस मियाद के ख़त्म होने तक सरकारों तक पहुंचेगी या नहीं, कोई नहीं कह सकता। हाँ यह जरूर है कि कोरोना की वजह बता कर एक तरफ बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के कर्ज़ माफ कर दिये जाएंगे दूसरी तरफ उन्हें वेंटिलेटर जैसे उपकरण बनाने के बड़े ठेके देकर मालामाल कर दिया जाएगा।
रहिमन विपदा हूँ भली जो थोड़े दिन होए, हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोए। कॉर्पोरेट घरानों का कोई मजहब, कोई मुल्क नहीं होता। अमेरिकी कॉर्पोरेट घरानों में और भारतीय कॉर्पोरेट घरानों में क्या फर्क है? इस वैश्विक संकट की घड़ी में नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ़ स्टीग्लिज़ भी उसके समर्थन में उतर आते हैं जब कनाडाई लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और फिल्म निर्माता नाओमी क्लेन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पर कटाक्ष करते हुए मिल्टन फ्रीडमैन के शब्दों को दोहराती हैं कि ‘सयाना पूंजीपति भी वही होता है जो किसी सामाजिक-राजनीतिक संकट को व्यर्थ नहीं जाने देता’।
गरीब दिहाड़ीदार मज़दूरों को ना तो मिल्टन फ्रीडमैन की मुक्त-बाज़ार वाली ‘ट्रिकल-डाउन थियरी’ समझ में आती है, ना ही ‘लॉकडाउन प्रैक्टिस’ पल्ले पड़ती है। भूख से ऐंठी हुई अंतड़ियों के साथ उन्हें दीया जलाने और कोरोना-दीवाली मनाने का तर्क भी समझ में नहीं आएगा। उनके लिए कोरोना से पहले यह ‘लॉक डाउन’, अस्तित्व का संकट बन गया है। इस संकट के खिलाफ़ वह कई जगह सड़कों पर उतरने भी लगे हैं। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में कहें तो ‘जब भी/ भूख से लड़ने/ कोई खड़ा हो जाता है/ सुन्दर दीखने लगता है।‘