आनंद तेलतुम्बडे
(लेखक, दलित एक्टिविस्ट और प्रोफ़ेसर आनंद तेलतुंबडे ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत आज मुंबई में सेशन कोर्ट के सामने समर्पण कर दिया। भीमा कोरेगाँव से जुड़े इस मामले में कोर्ट ने उनकी अग्रिम ज़मानत की अवधि बढ़ाने से इंकार कर दिया था और तेलतुंबडे के साथ इस मामले के दूसरे आरोपी मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को 14 अप्रैल यानि आज के दिन एनआईए के सामने समर्पण का निर्देश दिया था। इसके तहत तेलतुंबडे ने मुंबई में जबकि गौतम नवलखा ने दिल्ली में एनआईए हेडक्वार्टर के सामने समर्पण करने का फ़ैसला किया। यह अपने आप में अजीब विडंबना है। अंबेडकर के एक रिश्तेदार को गिरफ़्तार करने के लिए उनकी जयंती का दिन चुना गया। और इसका नतीजा यह है कि जब पूरा देश उनकी जयंती मना रहा है तो उनके अपने (अंबेडकर के) पैतृक निवास पर काला झंडा फहर रहा है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी अड्डा ने आज एक बयान दिया है कि कांग्रेस ने आंबेडकर को उचित सम्मान नहीं दिया। लेकिन यह बात कैसे वह पार्टी बोल सकती है जिसके शासन काल में ख़ुद उनके परिजनों को अपने घर पर काला झंडा फहराना पड़ रहा है। समर्पण करने से पहले आनंद तेलतुंबडे ने देश के नाम एक खुला पत्र जारी किया है। जिसमें उन्होंने ख़ुद और केस से जुड़े तमाम पहलुओं पर विस्तार से लिखा है।
भारत के लोगों के नाम खुला पत्र
मैं इस बात से अवगत हूं कि यह आवाज़ पूरी तरह से बीजेपी-आरएसएस गठबंधन और इस गठबंधन के सामने दंडवत हो चुके मीडिया से प्रेरित शोर में गुम हो सकती है, लेकिन मुझे अब भी लगता है कि आपसे बात करना ज़रूरी है, क्योंकि मुझे नहीं पता कि इसका मुझे एक और मौक़ा मिलेगा भी या नहीं।
अगस्त 2018 में, जब पुलिस ने गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के फ़ैकल्टी हाउसिंग कॉम्प्लेक्स स्थित मेरे घर पर छापा मारा था, तबसे मेरी दुनिया पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गयी है। अपने सबसे बुरे सपने में भी मैं उन चीज़ों की कल्पना नहीं कर सकता था, जो मेरे साथ होने लगीं। हालांकि, मुझे पता था कि पुलिस मेरे व्याख्यान के आयोजकों, जिनमें ज़्यादातर विश्वविद्यालय थे, उनका दौरा किया करती थी, और उन्हें मेरे बारे में पूछताछ से डराती भी थी, मैंने सोचा कि वे मुझे,यानी अपने उस भाई को ग़लत समझ सकते हैं, जिसने अपने परिवार को वर्षों पहले छोड़ दिया था।
जब मैं आईआईटी खड़गपुर में पढ़ा रहा था, तो खुद को मेरे प्रशंसक और शुभचिंतक के रूप में पेश करते हुए बीएसएनएल के एक अफ़सर ने फ़ोन किया था और मुझे सूचित किया था कि मेरा फ़ोन टेप किया जा रहा है। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया, लेकिन कुछ किया नहीं, अपना सिम भी नहीं बदला। मैं इन अनुचित हस्तक्षेपों से परेशान था, लेकिन ख़ुद को दिलासा दिया था कि पुलिस को समझाया जा सकता है कि मैं एक सामान्य व्यक्ति हूं और मेरे आचरण में अवैधता का कोई तत्व नहीं है। पुलिस आम तौर पर नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को नापसंद करती है, क्योंकि वे पुलिस पर सवाल उठाते हैं। मैंने सोचा की यह सब इस कारण हो सकता है, क्योंकि मैं भी उसी प्रजाति का हूं। लेकिन, फिर से मैंने ख़ुद को इस बात से तसल्ली दी कि वे आख़िरकार पायेंगे कि मैं अपनी नौकरी के साथ अपने फुल टाइम एंगेजमेंट की वजह से वह भूमिका निभा नहीं पा रहा हूं।
लेकिन,जब मुझे मेरे संस्थान के निदेशक का सुबह-सुबह फ़ोन आया, तो उन्होंने मुझे सूचित किया कि पुलिस ने कैंपस में छापा मारा है और मुझे ढूंढ रही है, मैं कुछ सेकंड के लिए अवाक था। मैं कुछ घंटे पहले ही आधिकारिक काम से मुंबई आया था और मेरी पत्नी वहां पहले ही आ चुकी थीं। जब मैंने गिरफ़्तारियों की जानकारी ली कि उस दिन किन व्यक्तियों के घरों पर छापे मारे गये थे, तो मैं इस एहसास से हिल गया था कि मैं गिरफ़्तारी से महज कुछ ही क़दम दूर हूं। पुलिस को मेरे ठिकाने का पता था और वह मुझे तब भी गिरफ़्तार कर सकती थी, लेकिन केवल ज्ञात कारणों से उन्होंने ऐसा नहीं किया।
उन्होंने जबरन सुरक्षा गार्ड से डुप्लीकेट चाबी लेकर हमारे घर के दरवाज़े भी खोल दिये, लेकिन उन्होंने सिर्फ़ वीडियो-ग्राफ़ी की और उसे फिर से बंद कर दिया। हमारी अग्निपरीक्षा वहीं से शुरू हो गयी। हमारे वक़ीलों की सलाह पर, मेरी पत्नी ने गोवा के लिए अगली उपलब्ध उड़ान भरी, और बिचोलिम पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज करायी कि पुलिस ने हमारी ग़ैर-मौजूदगी में हमारे घर का दरवाज़ा खोला है और अगर उन्होंने कुछ भी रखा है, तो हम उसके ज़िम्मेदार नहीं होंगे। मेरी पत्नी ने स्वेच्छा से हमारे टेलीफ़ोन नंबर भी दे दिये, ताकि पुलिस हमारे साथ पूछताछ करना चाहे, तो कर सके।
अजीब तरह से पुलिस ने माओवादी कहानी शुरू करने के तुरंत बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस करना शुरू कर दिया। यह स्पष्ट रूप से मेरे और अन्य गिरफ़्तार लोगों के ख़िलाफ़ मीडिया की मदद से सार्वजनिक रूप से पूर्वाग्रह के कोड़े मारने जैसा था। 31 अगस्त 2018 को, इसी तरह की एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक पुलिस अधिकारी ने पिछली गिरफ्तारियों के कंप्यूटर से कथित तौर पर बरामद एक पत्र को मेरे ख़िलाफ़ सबूत के तौर पर पढ़ा। इस पत्र को बेढंगे तौर पर उस अकादमिक सम्मेलन की जानकारी के साथ गढ़ा-बुना गया था, जिसमें मैंने भाग लिया था और जो कि पेरिस स्थित अमेरिकी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध है। शुरू में तो मैंने इसे हंसी में उड़ा दिया, लेकिन इसके बाद, इस अधिकारी के ख़िलाफ़ एक दीवानी और आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर करने का फ़ैसला किया और 5 सितंबर, 2018 को प्रक्रिया के मुताबिक़ मंज़ूरी के लिए महाराष्ट्र सरकार को एक पत्र भेजा। सरकार की ओर से आज तक उसका कोई जवाब नहीं मिला है। हालंकि, जब हाईकोर्ट ने उन्हें फटकार लगाई, तो पुलिस की प्रेस कॉन्फ्रेंस को रोक दिया गया।
इस पूरे मामले में आरएसएस का हाथ था, यह कोई छुपी हुई बात नहीं रह गयी थी। मेरे मराठी मित्रों ने मुझे बताया कि आरएसएस के एक कार्यकर्ता रमेश पतंगे ने मुझ पर निशाना साधते हुए अप्रैल 2015 में अपने मुखपत्र, पांचजन्य में एक लेख लिखा था। मेरी पहचान मायावी अम्बेडकरवादी के साथ-साथ अरुंधति रॉय और गेल ओमवेट साथ जुड़ाव के रूप में की गयी थी। हिंदू पौराणिक कथाओं में ‘मायावी’ शब्द किसी विध्वंसकारी दानव के लिए इस्तेमाल किया जाता है। जब मुझे सुप्रीम कोर्ट के संरक्षण में रहते हुए पुणे पुलिस द्वारा अवैध रूप से गिरफ़्तार किया गया था, तब हिंदुत्व के एक साइबर गिरोह ने मेरे विकिमीडिया (Wikimedia) पेज के साथ छेड़-छाड़ की थी। यह पृष्ठ एक सार्वजनिक पृष्ठ है और वर्षों से मैं इससे अवगत भी नहीं था। उन्होंने सबसे पहले सभी जानकारी को नष्ट कर दिया और केवल यह लिखा कि “उसका जुड़ाव माओवादियों से है…उसके घर पर छापा मारा गया… उसे माओवादी के साथ रिश्ते के लिए गिरफ़्तार किया गया”, आदि।
कुछ छात्रों ने बाद में मुझे बताया कि जब भी वे पृष्ठ को पुनर्स्थापित करने की कोशिश करते, या पृष्ठ को संपादित करते, तो यह गिरोह पलक झपकते सब कुछ मिटा देता और अपमानजनक सामग्री डाल देता। अंततः, विकिमीडिया ने हस्तक्षेप किया और पृष्ठ को उनकी कुछ नकारात्मक सामग्री के साथ स्थिर कर दिया। यह एक तरह का मीडिया हमला था, जो आरएसएस के कथित नक्सली विशेषज्ञों के माध्यम से सभी प्रकार के निराधार विवरण को धड़ल्ले से डाल देता था। चैनलों और यहां तक कि इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फ़ाउंडेशन के ख़िलाफ़ मेरी शिकायतों का एक मामूली सा जवाब भी नहीं मिला। फिर, अक्टूबर 2019 में जासूसी कहानी सामने आयी कि सरकार ने मेरे फ़ोन पर एक बहुत ही ख़तरनाक इज़रायली स्पाइवेयर डाला था। मीडिया में कुछ देर के लिए तो उथल-पुथल मच गयी, लेकिन यह गंभीर मामला भी अब अपने अंत की ओर ही है।
मैं एक ऐसा मामूली व्यक्ति रहा हूं, जो ईमानदारी से अपनी रोज़ी-रोटी कमा रहा है और लोगों को लेखन के माध्यम से जितना मुमकिन हो सकता है, उतना अपने ज्ञान से लोगों की मदद करता हूं। देश भर के अलग-अलग कॉर्पोरेटों में अलग-अलग भूमिकाओं में कभी एक शिक्षक के रूप में, कभी एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता के रूप में और कभी एक सार्वजनिक बौद्धिक के रूप में लगभग पांच दशकों की सेवा का मेरा एक बेदाग रिकॉर्ड रहा है। मेरी 30 से अधिक पुस्तकों, और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित कई पत्रों / लेखों / टिप्पणियों / स्तंभों / साक्षात्कारों या लेखन में किसी भी तरह की हिंसा का परोक्ष संकेत या किसी भी विध्वंसक आंदोलन का समर्थन नहीं मिलता है। लेकिन, जीवन के अंतिम छोर पर, मुझ पर कठोर यूएपीए के तहत जघन्य अपराध का आरोप लगाया जा रहा है।
मेरे जैसा व्यक्ति स्पष्ट रूप से सरकार और उसके अधीन मीडिया के उत्साही दुष्प्रचार का मुक़ाबला नहीं कर सकता। इस केस का विवरण पूरे नेट पर बिखरा पड़ा है और कोई भी व्यक्ति आसानी से देख सकता है कि यह मामला एक मनगढ़ंत और आपराधिक साज़िश है। AIFRTE वेबसाइट पर एक सारांश टिप्पणी पढ़ी जा सकती है। आपकी सुविधा के लिए मैं यहां उसका भावार्थ दे रहा हूं:
मुझे उन 13 में से पांच पत्रों के आधार पर फंसाया गया है, जो पुलिस ने इस मामले में दो अन्य गिरफ़्तारियों के कंप्यूटरों से बरामद किये हैं। मेरे पास से कुछ भी बरामद नहीं हुआ। इस पत्र में भारत में प्रचलित सामान्य नाम, “आनंद” का ज़िक़्र है, लेकिन पुलिस ने निर्विवाद रूप से इस नाम के साथ मेरी पहचान जोड़ दी है। इन पत्रों के उन रूप-रंग और सामग्री को विशेषज्ञों द्वारा और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायधीश द्वारा बकबास क़रार दिये जाने के बावजूद सबूतों की प्रकृति में डाल दिया गया है। ये विषय सामग्री किसी भी ऐसी चीज़ की तरफ़ कोई ऐसा इशारा नहीं करती है, जिसे दूर-दूर तक एक सरल अपराध भी माना जा सके। लेकिन, यूएपीए अधिनियम के उन कठोर प्रावधानों के सहारे,जो किसी व्यक्ति को अपने बचाव से दूर कर देता है, उसी के तहत मुझे जेल हो रही है।
आपकी समझ के लिए इस मामले को नीचे कुछ इस तरह चित्रांकित किया जा सकता है:
अचानक, पुलिस आपके निवास पर धावा बोलती है और बिना किसी वारंट के आपके घर में तोड़फोड़ मचाती है। अंत में, वे आपको गिरफ्तार कर लेती है और पुलिस हिरासत में ले लेती है। अदालत में तो वे यही कहेंगे कि xxx जगह (भारत में किसी भी कल्पित स्थान) में चोरी (या किसी अन्य शिकायत) मामले की जांच करते समय पुलिस ने yyy से एक पेन ड्राइव या एक कंप्यूटर (कोई भी कल्पित नाम) बरामद किया, जिसमें कुछ प्रतिबंधित संगठन के एक कथित सदस्य द्वारा लिखे गये कुछ पत्र बरामद किये गये, जिनमें एक ज़िक़्र zzz का भी था, जो पुलिस के मुताबिक़ आपके अलावा कोई नहीं है। वे आपको गहरी साज़िश के हिस्से के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अचानक, आप पाते हैं कि आपकी दुनिया बदल गयी है। आपकी नौकरी चली जाती है, आपका परिवार छूट जाता है, मीडिया आपको बदनाम कर रहा होता है, जिसे लेकर आप लानत-मलानत भी नहीं कर सकते।
पुलिस न्यायाधीशों को यक़ीन दिलाने के लिए एक “सीलबंद लिफ़ाफ़े” को प्रस्तुत करेगी कि आपके ख़िलाफ़ प्रथम दृष्टया एक मामला तो बनता है, जिसके लिए हिरासत में पूछताछ की ज़रूरत है। कोई सबूत नहीं होने को लेकर कोई तर्क नहीं दिया जायेगा, क्योंकि न्यायाधीश जवाब देंगे कि इसे सुनवाई के दौरान देखा जायेगा। हिरासत में पूछताछ के बाद आपको जेल भेज दिया जायेगा। आप ज़मानत की भीख मांगेंगे और अदालतें उन्हें ख़ारिज कर देंगी, जैसा कि ऐतिहासिक आंकड़ों से पता चलता है कि ज़मानत मिलने या बरी होने से पहले, जेल में रहने की औसत अवधि 4 से 10 साल तक की रही है। और सच्चाई तो यही है कि ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है।
’राष्ट्र’ के नाम पर ऐसे क्रूर क़ानून हैं, जो निर्दोषों को उनकी स्वतंत्रता और सभी संवैधानिक अधिकारों से वंचित करते हैं। लोगों को असहमति को दबाने और ध्रुवीकरण को लेकर राजनीतिक वर्ग द्वारा कट्टर राष्ट्र और राष्ट्रवाद को हथियार बनाया गया है। व्यापक उन्माद ने अवैज्ञानिकता और उलटे-पुलटे मायने का वह चक्र पूरा कर लिया है, जहां राष्ट्र को तबाही की तरफ़ ले जाने वाले देशभक्त बन गये हैं और निस्वार्थ सेवा में लगे लोग देशद्रोही क़रार दिये जा रहे हैं। जैसा कि मैं देख रहा हूं कि मेरा भारत बर्बाद हो रहा है, एक क्षीण उम्मीद के साथ मैं आपको इस तरह के विकट पल में यह सब लिख रहा हूं।
बहरहाल, मैं एनआईए की हिरासत से बाहर हूं और मुझे नहीं पता कि मैं आपसे दुबारा कब बात कर पाऊंगा। हालांकि, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप अपनी बारी आने से पहले ज़रूर बोलेंगे।