सफ़ेद गमछा आदतन डाले हुए मैं अपनी स्कूटी से बेवजह,सड़को की ख़ाक छानता रहता हूँ ,अक्सर बेमक़सद। कही पुराने पेड़ की कशिश या किसी खंडहर की आवाज़ मुझे जैसे अपने पास बुला लेती है। पहरों मैं शाख ओ बर्ग में या वक़्त के सितम से काली पड़ती जा रही ईंटो में इतिहास के सुनहरे वर्क़ पढ़ने की नाकाम कोशिश करता हूँ।
तभी मेरे बगल से तेज़ जा रही बाइक पर नज़र पड़ती है जिसपे दो युवा बैठे हैं जिन्होंने सर पर जाफ़रानी रंग का गमछा बांध रखा है वो पैदल चल रहे एक मुसाफ़िर को सीधे ले जाके अपनी बाइक से ठोक देते हैं और कुछ बहस शुरू ही होती है लेकिन सुलह की कोई गुंजाइश निकलती उसमें से एक ने उसका नाम पूछा था “का नाम हौ बे” उसने जवाब दिया था”सलीम” फिर क्या था
जाफ़रानी गमछा अब अपनी वतन परस्ती, और एक मज़हब के लिए कुछ सालों से ग़ालिब अपनी नफ़रत का इज़हार पूरी शिद्दत , पूरी ताक़त से कर रहा था। मैंने अपनी बीना आंखों के बावजूद ख़ुद को अंधा बना लिया लेकिन कब तक मुझमे जो इंसान था मुझे ज़लील करता रहा और आख़िर में मेरा ज़मीर करवटे लेने लगा, किसी तरह से मैंने समझाने की कोशिश की और माहौल थोड़ा शांत हुआ। वो जाफ़रानी गमछे वाले युवा(हिन्दू हित की रक्षा करने वाले) अपनी बाइक पर बैठे किक मारी और एक ने कहा था”इन्हा रहे के हौ तो सुधर जा मिया” और अब मुझे एहसास होने लगा था यह कि वो जो जाफ़रानी रंग है वो दरअसल नफ़रत के इज़हार का रंग होता गया है
कुछ दिनों से कहीं पहलू, अख़लाक़, और न जाने कितने और कही वो किसी बंजर जमीन पर जुमा की नमाज़ पढ़ रहे मुसलमानों को, कहीं झारखंड के किसी गांव को, और कहीं पश्चिम बंगाल से लेकर असोम तक इंसानियत को निगल रहा है ।
मुझमे ख़ौफ़ और नदामत अपने शबाब पर है मैं सोच रहा हूँ कि वो मामूली सा झगड़ा मेरी तरफ़ लपका होता और मेरा नाम भी पूछा जाता”तोर का नांव हौ बे” तो…जब कि शक्ल, सूरत और अपने हुलिया से मैं कही से भी मिया मुकुड़ी(यही कहते हैं पूर्वांचल में) दिखाई नही पड़ता,लेकिन खौफ़ की वो सिहरन कोरोना महामारी से ज़्यादा हरास ओ मुज़्महिल करने वाली थी।मैं अपने गमछे को मास्क की तरह लगाए चल पड़ा,अब भी आवारा यहां ,वहां ,न जाने कहाँ! क्योंकि हज़ारों वसवसे अब भी माहौल में तब्लीगीयों के बहाने समाज मे एक महामारी की तरह ही सुरअत से समाज को अपनी गिरफ्त में लेते जा रहे हैं।
रंगों को हमेशा मैंने हिंदुस्तानी मिट्टी में मिली हुई अलग अलग तहजीबो, मज़हबो,ं आस्थाओं और अक़ीदों का खूबसूरत मजमुआ मानता था,लेकिन अब सोच रहा था कि कल से अब हम सफ़ेद गमछा लगाने के बजाए जाफ़रानी गमछा लगा लूं या क्या मैं भी जाफ़रानी गमछे की दहशत और वहशत से वतन परस्ती का ज़िम्मा उठाऊं?
यही सब सोचते हुए मैंने अपनी स्कूटी स्टार्ट की ….
(इस कथा की सारी घटनाएं, चरित्र और कथानक सर्वथा काल्पनिक हैं किसी से इस का संबंध मात्र एक संयोग है ,जिसका उत्तरदायित्व मुझपर नही है)
लेखक: डॉ ख़ुर्शीद अहमद अंसारी, जामिया हमदर्द, नई दिल्ली