तुभाष गाताडे
आखिर एक अदद समन- जो बुनियादी तौर पर एक कानूनी नोटिस होती है – शहर से सात सौ किलोमीटर दूर रह रहे वेब जर्नल के एक सम्पादक को पहुंचाने के लिए कितने पुलिसकर्मियों की जरूरत होती है, जबकि ईमेल, वाटसअप आदि के जरिए पल भर में सूचना पहुंचायी जा सकती है?
यह बड़ा विचित्र सवाल लग सकता है !
अलबत्ता उत्तर प्रदेश के पुलिस की हालिया कार्रवाई ने ही इस सवाल को मौजूं बना दिया है, जबकि अयोध्या के पुलिस थाने से सात-आठ पुलिसकर्मियों का एक दस्ता सादी वर्दी में बिना नम्बर प्लेट वाली एक काली एसयूवी में जाने माने पत्रकार एवं संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के घर पहुंचा ताकि उन्हें अदालती नोटिस थमायी जा सके। यह भी जाहिर था कि इस समन को जारी करते वक्त़ थाने के बाबुओं ने इस बात पर भी सोचा नहीं था कि जब हवाई सेवा, रेल तथा बस सेवा पूरी तरह बन्द हो, तब जनाब वरदराजन 14 अप्रैल के दिन कैसे वहां हाजिर हो सकते हैं?
यह जानी हुई बात है कि ‘द हिन्दू’ के सम्पादक रह चुके तथा विगत कई सालों से ‘द वायर’ नाम से वेब जर्नल का सम्पादन कर रहे रहे सिद्धार्थ वरदराजन- जो कई पश्चिमी विश्वविद्यालयों में अध्यापन भी कर चुके हैं – के खिलाफ उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा दर्ज मुकदमे को लेकर देश एवं दुनिया भर के न्यायविदों, विद्वानों, कलाकारों, लेखकों में गुस्से की एक लहर उठी है और ऐसे साढ़े तीन हजार अग्रणियों द्वारा हस्ताक्षरित ज्ञापन में यह पुरजोर मांग की गयी है कि उनके खिलाफ दायर मुकदमे को रद्द किया जाए और सरकार को चाहिए कि वह ‘चिकित्सा आपातकाल को राजनीतिक आपातकाल में तब्दील करने की कोशिशों से बाज आए।’ (https://thewire.in/rights/the-wire-siddharth-varadarajan-up-police-fir)
अब योगी सरकार इस ज्ञापन में प्रगट चिन्ताओं के प्रति सकारात्मक रूख अख्तियार करती है या नहीं यह तो वक्त़ बताएगा लेकिन यह स्पष्ट है कि तबलीगी जमात और कोविद 19 के प्रसंग पर केन्द्रित ‘वायर’ में प्रकाशित स्टोरी – जिसको अब वापस लिया जा चुका है – जिसमें भारतीय आस्थावानों के भी ढीले ढाले रवैये की चर्चा की गयी थी और जिन्होंने पर्याप्त सूचनाओं के बावजूद सावधानी बरतने और एकत्रित होने से बचने का पालन नहीं किया था, उसी ने योगी सरकार को कार्रवाई के लिए प्रेरित किया है। अब मुकदमे का बहाना जो भी हो, यह स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश पुलिस की उपरोक्त कार्रवाई ने – चाहे, अनचाहे – कोविद समय में सरकार की प्राथमिकताओं को भी उजागर किया है, जिसका यह दावा है कि वह इस महामारी से ‘युद्ध’ स्तर पर निपट रही है।
यह जानना भी विचलित करने वाला है कि एक ऐसे समय में जबकि पूरा मुल्क लॉकडाउन में है, सभी राजनीतिक गतिविधियां गोया स्थगित हैं और नागरिक तथा अन्य जन अपने-अपने घरों तक सिमटे हैं, उस दौर में भाजपा शासित सरकार की यह कार्रवाई कोई अपवाद नहीं है।
हम देख रहे हैं कि दिल्ली पुलिस – जिसे विगत कुछ माह में अपनी बहुत सारी नाकामियों के चलते काफी आलोचना का सामना करना पड़ा है, फिर वह चाहे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर जनवरी माह की शुरुआत में दक्षिणपंथी गिरोह द्वारा किए गए हमले का मामला हो, जिसमें कई हमलावर बाकायदा सीसीटीवी कैमरे में कैद हो गए हैं, लेकिन कोई भी गिरफ्तार नहीं किया गया या उत्तरी पूर्वी दिल्ली में हुई साम्प्रदायिक हिंसा का मामला हो, जहां यह बताया जा रहा है कि किस तरह पुलिस एवं उसके जवानों ने अकर्मण्यता बरती जबकि दक्षिणपंथी दस्तों हमलों के दौरान पीड़ितों द्वारा पुलिस से सम्पर्क करने की कोशिशें की गयी, मगर कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी – इन दिनों अत्यधिक सक्रिय हो उठी है और उसने जामिया के दो छात्र नेताओं को इन्हीं दंगों में कथित संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किया है। यह भी सुनने में आया है कि वह कई अन्यों की तलाश में भी है।
मालूम हो कि गिरफ्तार दो छात्र अग्रणियों में सुश्री सरूफा जरगर हैं – जो वहां एमफिल की छात्रा हैं तथा जो जामिया कोआर्डिनेशन कमेटी की मीडिया समन्वयक थी तथा मिरान अहमद, पीएचडी के छात्र हैं तथा राष्ट्रीय जनता दल की दिल्ली की युवा शाखा के पदाधिकारी हैं। विदित हो कि जरगर तथा मिरान उन तमाम छात्रों में शामिल थे जो संविधान की रक्षा के लिए खड़े ऐतिहासिक आन्दोलन की अगुआई कर रहे थे, जिसने पूरे मुल्क में एक नये माहौल का आगाज़ किया था।
यहां यह बताना जरूरी है कि यह दोनों छात्र उन तमाम छात्रों युवाओं में शामिल थे जो संविधान संशोधन अधिनियम /सीएए/ और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर /नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स/ के खिलाफ उठी व्यापक जन सरगर्मी के अग्रिम कतारों में थे, इतिहास इस बात की गवाही देगा कि किस तरह जामिया के छात्रों के शांतिपूर्ण संघर्ष ने एक नज़ीर कायम की थी। इस आन्दोलन ने न केवल पुलिस के बहकावे या दक्षिणपंथी गिरोहों के बहकावे से भी बचते हुए आन्दोलन को अहिंसक रास्ते पर कायम रखा। यहां तक कि कोरोना के नाम से वैश्विक महामारी का विस्फोट हुआ तो अपने आन्दोलन को वापस ले लिया।
यह भी स्पष्ट है कि महज इन दो छात्रों की ही गिरफ्तारी नहीं हुई है, कई अन्यों को – जिनकी संख्या 50 के करीब है – उन्हें दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल द्वारा नोटिस भेज कर पूछताछ के लिए बुलाया गया है। इन गिरफ्तारियों को लेकर अध्यापकों के अग्रणी संगठनों तथा विभिन्न सांस्कृतिक संगठनों के साझे बयान में कहा गया है कि किस तरह यह कदम ‘उन तमाम लोगों के खिलाफ बदले की कार्रवाई की मानसिकता दर्शाता है जो सीएए विरोधी आन्दोलन में शामिल थे और किस तरह इन कार्यकर्ताओं पर उत्तरी-पूर्वी दिल्ली के दंगों में कथित संलिप्तता को लेकर आधारहीन, मनगढंत आरोप लगाए गए हैं।’ हस्ताक्षर करने वालों में फेडकुटा (FEDKUTA) , दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन /डूटा/, जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन और जामिया टीचर्स एसोसिएशन तथा जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच आदि के नाम शामिल हैं।
आप गौर करेंगे कि दिल्ली तथा देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी गिरफ्तारियों के समाचार मिले हैं। मिसाल के तौर पर ख़बर आयी कि नौजवान भारत सभा से सम्बद्ध युवा नेता योगेश स्वामी – जो सीएए विरोधी आन्दोलन में सक्रिय थे तथा इन दिनों प्रवासी मजदूरों की सहायता में मुब्तिला थे – को दिल्ली के करावलनगर से पुलिस ने उठा लिया तो ‘रिहाई मंच’ द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार अलीगढ़ विश्वविद्यालय परिसर से छात्रा नेता आमिर मिन्टोई को उठाया गया। आमिर को भी पुलिस के लोगों ने तब उठा लिया जब वह जरूरतमंद लोगों को खाना बांटने गए थे। /16 अप्रैल 2020/
इन छात्र नेताओं / कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का समय भी काबिलेगौर है।
ध्यान रहे यह वही कालखंड है जब गृह मंत्रालय – जो सीधे अमित शाह के मातहत है – कई विवादास्पद वजहों से सुर्खियों में रहता आया है। सबसे अहम है दिल्ली पुलिस का व्यवहार जो विगत चार-पांच माह से बार-बार मीडिया की पड़ताल का हिस्सा बन जाता है। याद रहे कि दिल्ली पुलिस सीधे अमित शाह के मातहत आती है।
आप मरकज़ के प्रसंग को ही देखें जहां तबलीगी जमात ने अपना कार्यक्रम आयोजित किया – जिसमें विदेशों से आने वाले डेलीगेट भी शामिल हुए – जहां पहले से ही कोरोना का प्रभाव दिख रहा है, और किस तरह मीडिया के एक अहम हिस्से ने इस कार्यक्रम को ही नफरत फैलाने के लिए इस्तेमाल किया। निश्चित ही विश्वभर में कोहराम मचायी स्वास्थ्य की इस महामारी को देखते हुए तबलीगी जमात को भी यही चाहिए था कि वह कार्यक्रम को टाल देती, लेकिन क्या इस सम्मेलन के लिए महज वही जिम्मेदार है ? क्या दिल्ली पुलिस यहां तक कि विदेश मंत्रालय की इसमें कोई भूमिका नहीं है।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि तबलीगी जमात का कार्यक्रम दिल्ली में नहीं हो सकता था अगर दिल्ली पुलिस ने उसे अनुमति नहीं दी होती, या प्रस्तुत कार्यक्रम में विदेशों से सहभागी नहीं आ पाते, अगर विदेश मंत्रालय ने उन्हें वीसा नहीं दिया होता।
यह बात भी गौर करने लायक है कि उन्हीं दिनों महाराष्ट्र के मुंबई में भी तबलीग जमात का कार्यक्रम करने की योजना थी, जिसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र सरकार को लिखा था, मगर कोरोना महामारी के खतरे को देखते हुए सरकार ने इस कार्यक्रम को मंजूरी नहीं दी थी। महाराष्ट्र के गृहमंत्री अनिल देशमुख ने अपने हालिया प्रेस सम्मेलन में इसी बात को रेखांकित किया जब उन्होंने पूछा आखिर जनाब अमित शाह की अगुआई में कार्यरत गृह मंत्रालय ने दिल्ली में मरकज़ में आयोजित इस कार्यक्रम को अनुमति क्यों दी जबकि हम लोगों ने साफ मना किया था।( https://www.mumbailive.com/en/politics/letter-issued-by-maharashtra-home-minister-anil-deshmukh-he-accused-the-national-security-advisor-ajit-doval-of-spreading-corona-infection-47914)
निश्चित ही एक ऐसे शख्स के लिए जिनकी तुलना उनके मुरीद ‘सरदार पटेल’ के साथ करते हों, यह कोई सुकूनदेह सवाल नहीं है।
हम यह भी जानते हैं कि जिन दिनों लॉकडाउन को बिना किसी तैयारी के लागू करने के लिए लाखों प्रवासी मजदूरों को झेलनी पड़ी भारी यातनाओं एवं विपदाओं का सवाल सुर्खियों में था, खुद जनाब अमित शाह की दखलंदाजी से हुई एक कार्रवाई से संगठन के निष्ठावानों में भी काफी बेचैनी पैदा हुई थी।
एक तरफ जहां अमित शाह श्रमिकों के इस हाल पर बिल्कुल खामोश रहे वहीं उन्हें लगभग 2,000 गुजरातियों के लिए – जो श्रद्धालु बन कर उत्तराखंड के अलग अलग इलाकों में यात्रा कर रहे थे तथा वहां फंसे थे – तीस से अधिक सुपर लक्जरी बसों का इंतज़ाम कर गुजरात भेजने में कुछ भी गुरेज नहीं हुआ।
यह समूचा ऑपरेशन इतना गुपचुप चलाया गया कि उत्तराखंड के यातायात मंत्री को भी तभी पता चला जब बसें निकल चुकी थीं। (https://www.indiatoday.in/india/story/1-800-people-stranded-in-uttarakhand-to-return-to-gujarat-in-28-buses-1660760-2020-03-28)
उस वक्त़ कुछ विश्लेषकों ने वाजिब सवाल पूछा कि अमित शाह गुजरात के गृहमंत्री हैं या भारत के ?
एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के सम्पादक के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज करना, शांतिपूर्ण एवं जनतांत्रिक आन्दोलन चलाने के लिए जो संविधान की अंतर्वस्तु की बहाली के लिए लड़ा जा रहा हो, उसमें शामिल कार्यकर्ताओं को फर्जी मुकदमों में फंसाना या हाल के दिनों में हुई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं जन बुद्धिजीवियों – गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्बडे – की गिरफ्तारी, यह अब स्पष्ट होता जा रहा है कि कोविड 19 के नाम पर अब ‘नागरिक आज़ादियों के उत्पीड़न और असहमति को निशाना बनाने का सिलसिला पूरे देश में चल रहा है।
जनान्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय की तरफ से अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर जारी वक्तव्य में देश के मौजूदा हालात पर जो कुछ कहा गया है, वह काबिलेगौर है। समन्वय के मुताबिक किस तरह हुकूमत
‘‘कोविड लॉकडाउन के बहाने जनतांत्रिक संस्थानों एवं प्रक्रियाओं को नष्ट करने, बुनियादी अधिकारों एवं आज़ादी को सीमित करने तथा किसी भी आलोचना का अपराधीकरण करने तथा उसे देशद्रोह की श्रेणी में या राष्ट्रविरोधी की श्रेणी में डालने के लिए तत्पर दिखती है। भारतीय राज्य के संघीय स्वरूप को लगातार दांव पर लगाया जा रहा है और उसका निरंतर ह्रास हो रहा है।
बयान में जाने माने वकील एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण, पूर्व आईएएस अधिकारी कन्नन गोपीनाथन, एशलीन मैथ्यू आदि के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने ; किसान नेता अखिल गोगोई तथा डॉ. कफील खान की अभी भी जारी हिरासत के बारे में ; पंतनगर विश्वविद्यालय में ठेका मजदूर कल्याण समिति के सेक्रेटरी अभिलाख सिंह, मणिपुर में अध्यापक कोन्सम विक्टर सिंह और डॉक्टर देबब्रत रॉय आदि के जेल में डाले जाने की भी चर्चा है। और बताता है कि किस तरह फेसबुक पोस्ट के नाम पर, वाटसअप फारवर्ड के नाम पर और सबसे बढ़ कर सरकारी कार्रवाइयों पर सवाल उठाने के चलते लोगों को जेल में ठूंसा जा रहा है।
यह स्पष्ट है कि सरकारें कोविड स्थिति का इस्तेमाल दमन बढ़ाने, जनतांत्रिक अधिकारों को स्थगित करने और निगरानी को तेज करने में, जोरदार ढंग से कर रही हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ जब एक अग्रणी अख़बार ने एक कैबिनेट नोट के प्रसंग को उजागर किया जिसमें इस बात की चर्चा हो रही थी कि काम के घंटे आठ के बजाय बारह किए जाएं। आप देख सकते हैं कि कोविड काल में श्रमिक अधिकारों पर भी कुठाराघात करने की संगठित तैयारी हो रही है।
अब आगे क्या होता है यह तो धीरे-धीरे उजागर होगा, लेकिन प्रख्यात जनबुद्धिजीवी और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बडे द्वारा अपनी गिरफ्तारी के पहले जो अपील भारत की जनता के नाम की गयी थी, वह मौजूं दिखती है:
‘‘राष्ट्र के नाम पर ऐसे दमनकारी कानून – जो मासूम लोगों से उनकी आज़ादियों और उनके सभी संवैधानिक अधिकारों को छीनते हैं – को संवैधानिक तौर पर वाजिब ठहराया जा रहा है।
असहमति को कुचलने और लोगों का ध्रुवीकरण करने के लिए अंधराष्ट्रवादी मुल्क और राष्ट्रवाद का राजनीतिक वर्ग द्वारा हथियारीकरण किया जा रहा है। इसके चलते उत्पन्न जन उन्माद ने एक तरह से लोगों की तर्कशीलता को खत्म कर दिया है और अर्थों को भी सर के बल खड़ा किया जा रहा है, जहां अब देश को तबाह करने वाले देशभक्त हो गए हैं और जनता की निःस्वार्थ सेवा में मुब्तिला लोग अब देशद्रोही करार दिए जा रहे हैं।
आज जब मैं अपने भारत को तबाही के कगार पर खड़ा देखता हूं तो इस चिन्ताजनक अवसर पर मैं आप सभी से इसी उम्मीद के साथ लिख रहा हूं कि अब मैं तो एनआईए की हिरासत में जा रहा हूं और फिलवक्त़ यह नहीं पता कि मैं आप से फिर बात करूंगा, लेकिन मैं तहेदिल से उम्मीद करता हूं कि इसके पहले कि आप की बारी आए, आप जरूर बोलेंगे।