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भाग्य विधाता कहाँ है?- रवीश कुमार

रवीश कुमार 

अर्थ और राजनीति की गहरी समझ के लिए ऑनिन को पढ़ना चाहिए। इस वक्त भी देश की राजनीति एक नया आकार ले रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने समाज की जिस निचली ज़मीन पर अपना आधार बनाया है उसे और मज़बूत किया है। बाक़ी दल ट्विटर ही खेलते रह गए। रह जाएँगे। 

मिडिल क्लास के बच्चे ( लड़कियाँ- लड़के ) महँगी शिक्षक दांव लगा कर बेरोज़गार हैं। लाखों युवाओं को सरकारी भर्तियों में तड़पने के लिए छोड़ दिया गया है। अहंकार इतना है कि लोक सभा चुनाव के समय निकाली गई रेलवे की भर्ती अभी तक पूरी नहीं हुई है। युवा नौकरी पास कर ज्वाइनिंग के लिए महीनों से इंतज़ार कर रहा हैं। लोको पायलट की अभी तक ज्वाइनिंग पूरी नहीं हुई है। इस अहंकार का आधार ये है कि ये युवा मुसलमानों के खिलाफ नफ़रत के कारण वोट देंगे ही। राष्ट्रवाद के नाम पर फ़र्ज़ी मुद्दे आते रहेंगे। एक तबलीग के फ़र्ज़ी मसले से कोरोना का माहौल बदल गया। राजनीति समझ गई है कि इसे सिर्फ़ झूठ और मीम चाहिए। वो दे दो। 

लेकिन क्या यह दावा सही होगा? 

सरकार जानती हैं कि ये सबका बेरोज़गारी की बात करेगा। वो इस युवा का न तो सामना करना चाहती है और न ढोना चाहती है। इसलिए कोचिंग पुत्रों के दिन मुश्किल भरे होंगे। 

क्या इसी भरपाई के लिए सड़क निर्माण में लगे सारे मज़दूरों को रोज़गार में गिना जा रहा है। ये रोज़गार तो है लेकिन यही सारा रोज़गार नहीं है। रोज़गार की दूसरी श्रेणियों की बात क्यों नहीं हो रही है ? 

क्या मिडिल क्लास को छोड़ कर साठ करोड़ ग़रीबों पर मोदी की राजनीति का यह गाँव उन्हें राजनीति में अक्षय होने का वरदान दिला देगा ? चुनावी जीत यही कहती है। आगे रहेगी या नहीं, आगे देखेंगे। 

मज़दूरों की भलाई हो समाज और अर्थव्यवस्था के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है मगर इस भलाई के नाम की राजनीति उनके हाथ में बस इतना ही रखना चाहती है कि उन्हें लगे कि ज़िंदा तो हैं। कोई दाता है।

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