खुर्शीद रब्बानी
इन दिनों तक़रीबन हर न्यूज़ चैनल पर सुबह शाम, हिन्दू-मुसलमान पर डिबेट हो रही है या फिर मुसलमानों के नाम पर नफ़रत, ज़हर और झूठ फैलाने का कम किया जा रहा है और मुसलमानों के साथ साथ इस्लाम को भी बदनाम करने की पूरी कोशिश की जा रही है। अफ़सोस की बात यह है कि मुसलिम आलिम-ए-दीन की लाख मुख़ालिफ़त और मनाही के बावजूद भी कुछ (लगभग 12, 15) “टीवी मौलाना” महज़ चंद रुपयों और सस्ती शोहरत के लिए टीवी चैनलों और न्यूज़ एंकर्स की साज़िशों और उनके प्रोपेगेंड़ा के शिकार हो रहे हैं।
इन ज़रूरत से ज़्यादा ‘समझदार’ और स्याने “टीवी मौलानाओं” को टीवी स्टूडियो में ऐंकर्स और दूसरे पैनलिस्ट द्वारा बात-बात पर ज़लील किया जाता है, दुत्कारा और फटकारा जाता है, यहां तक कि इनमें से कुछ पर तो हाथ भी ‘साफ़’ किया जा चुका है। इन चंद मगर बेहद शातिर “टीवी मौलानाओं” की हरकतों से पूरी क़ौम का मज़ाक़ उड़ाया जाता है, मगर पूरी तरह बे’ग़ैरत और बेशर्म हो चुके कुछ ‘मौलाना’ बाज़ आने या टीवी स्क्रीन से हटने को क़तई तैयार नहीं हैं।
अब सवाल ये उठता है कि टीवी डिबेट के नाम पर सुबह शाम मुसलमान-मुसलमान चिल्लाने से क्या हासिल हो रहा है? क्या मुसलमानों के अलावा और कोई मुद्दा नहीं बचा इस मुल्क में? पिछ्ले कुछ बरसों में मीडिया को दुनिया जहान की सारी बुराइयां मुसलमानों में ही क्यूं नज़र आने लगी हैं? और क्या दुनिया जहान की तमाम बुराइयां या सारे मुद्दे अब, टीवी डिबेट से ही हल किए जाएंगे?
जिस तरह से 12-15 “जाहिल क़िस्म के मौलाना” (एक गलाफाड हैदराबादी ‘मौलाना’ भी) और कुछ “So Called Islamic Scholars” बिना प्रोपर होमवर्क के इन डिबेट्स में जाकर चीख़ते चिल्लाते हैं, जिस तरह से बिना सर-पैर की उल्टी-सीधी बातें करते हैं और जिस तरह से बात-बात पर अपना आपा खो बैठते हैं उससे ना सिर्फ़ “मुसलमान और इस्लाम” की छवि ख़राब हो रही है बल्कि हिन्दू-मुसलमानों के बीच नफ़रत, दूरियां और गलतफ़हमियां भी लगातार बढ़ती जा रही हैं। यहां सवाल यह भी उठता है कि आख़िर कब तक पूरी क़ौम, इन “12-15 जाहिल, लालची और बेवक़ूफ़ क़िस्म के मौलानाओं” और चंद “So Called Islamic Scholars” की वजह से यूं ही न्यूज़ चैनल्स और कुछ बेहूदा एंकर्स के प्रोपेगेंड़ा का शिकार बनती रहेगी? टीवी डिबेट्स का पूरा खेल (पॉलिटिक्स, पैसा, प्रोपोगेंड़ा और TRP का खेल) इनकी समझ में क्यूं नहीं आ रहा? या फिर टीवी पर दिखने की इनकी लालसा, मशहूर या बदनाम होने की सनक और कुछ पैसे कमाने के लालच ने इन्हें इतना अंधा और बेग़ैरत बना दिया है कि ये “तथाकथित मौलाना” और ‘इस्लामिक स्कॉलर’ नहीं समझ पा रहे हैं कि ये लोग ना सिर्फ क़ौम, दीन, बल्कि इस मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब और आपसी सौहार्द को भी बहुत बड़ा नुक़सान पहुंचा रहे हैं।
इन चंद “टीवी या बिकाऊ मौलानाओं” के गोरखधंधे को समझना भी बेहद ज़रूरी है, ये लोग महज़ दो-पांच हज़ार रुपयों या सस्ती शोहरत के लिए ही टीवी चैनलों पर नहीं जाते बल्कि इसके पीछे एक पूरा नेक्सस काम करता है, इनमें से ज़्यादतर के कुछ चेले चपाटे या एजेंट मार्केट में घूम रहे हैं, जो ‘सियासी गलियारों’ में इनकी सेटिंग बिठाते हैं और कुछ के एजेंट मज़हबी हल्कों में इन “टीवी मौलानाओं” की बाक़ायदा मार्केटिंग करते हैं। ज़रूरत पड़ने पर इनमें से कई मौलाना चुनाव के वक़्त या कई बार ‘ऊपर’ से आदेश होने पर अपने आक़ाओं के मुताबिक़ टीवी डिबेट्स में बयान जारी करते हैं। इनमें से कई अलग अलग सूबों में होने वाले मज़हबी या सियासी जलसों में शामिल होने के लाखों रुपए वसूलते हैं। कई टीवी मौलानाओं के बारे में तो बाक़ायदा ट्रांसफर, पोस्टिंग, आयोगों में सदस्य बनवाने और चुनाव के वक़्त टिकट दिलवाने जैसी दलाली की बातें भी सामने आ चुकी हैं। कुल मिला कर इस्लाम और मुसलमानों के नाम पर “टीवी वाले मौलाना” खुद तो चांदी कूट रहे हैं, लेकिन क़ौम की इज़्ज़त को मिट्टी में मिला रहे हैं। अफ़सोस की बात ये है कि ये गिने चुने दाढ़ी और टोपी वाले लोग लगभग हर विवादित मुद्दे पर अपने आधे अधूरे ज्ञान का प्रदर्शन करके अपना और क़ौम का मज़ाक़ बनवा रहे हैं।
दरअसल, डिबेट का एजेंडा एडिटर, एंकर और प्रोड्यूसर द्वारा मिल कर (कई बार ऊपर से आए आदेश के मुताबिक़) तैय्यार किया जाता है और उसके बाद इन ‘मौलानाओं’ को बता दिया जाता है कि आज आपको किस “लाईन” पर बोलना है, लिफ़ाफ़ा लेकर चेहरा चमकाने टीवी स्टूडियो पहुंचे ‘मौलाना साहब’ एंकर द्वारा दिए गए “निर्देशों और इशारों” की बडी ही ईमानदारी से पालना करते हैं। मज़े की बात ये है कि, टीवी एंकर्स को ऐसे ही “आंख के अंधे, नाम नयन सुख” टाइप बेवक़ूफ़ लोग चाहिए होते हैं जिनसे वो अपने “मतलब की बात” निकलवा सकें या फिर जो आसानी से सियासत के शातिर खिलाडियों के जाल में फंस सकें, और इस तरह टीवी स्टूडियो में होने वाली “बकवास” को आधार बना कर देश और दुनिया के मुसलमानों और इस्लाम के बारे में बाक़ायदा एक नेगेटिव नैरेटिव तैय्यार किया जाता है।
यहां लाख टके का सवाल ये भी है कि इन ‘मौलानाओं’ को पूरे हिंदुस्तान के मुसलमानों का नुमाइंदा मान कैसे लिया जाता है? और बार बार वही गिने चुने लोग TV पर अपनी बे’इज़्ज़ती करवाने क्यों पहुंच जाते हैं? कमाल की बात ये है कि ना तो इन्हें देश के (किसी भी छोटे या बड़े) मुस्लिम इदारे ने टीवी पर बोलने के लिए ऑथराईज़ किया और ना ही मुसलमानों ने कभी इन्हें अपना रहनुमा माना, इसके बावजूद भी बेशर्म बन कर वो रोज़ किसी ना किसी स्टूडियो पहुंच जाते हैं और टीवी स्क्रीन की ‘शोभा’ बढ़ाते दिख जाते हैं। अब इन ‘समझदारों’ को कौन समझाए कि देश और दुनिया अभी जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें किसी को भी ग़ैर ज़रूरी बहस में नहीं पड़ना चाहिये था, ख़ासकर ऐसी कोई भी बहस जो मज़हबों के बीच की खाई को और गहरा और चौड़ा करती हो, मगर आंखों पर “दौलत और नक़ली शोहरत की पट्टी” बांध चुके इन “टीवी मौलानाओं” को शायद ही ये बातें कभी समझ आएं।
अब, अगर इनमें थोड़ी सी भी शर्म व हया बची है तो आज ही इन्हें टीवी डिबेट्स से तौबा कर COVID-19 और “कम्युनल वायरस” जैसी ख़तरनाक वबा को शिकस्त देने और समाज सुधार के नेक काम में लग जाना चाहिए, क्योंकि टीवी ड़िबेट्स से भले ही आपको कुछ पैसे या सस्ती शोहरत मिल जाए लेकिन आपकी इस हरकत से मुल्क, क़ौम और दीन का बहुत बड़ा नुक़सान हो रहा है। आज इस बात को गहराई से समझने और इस पर ईमानदारी से ग़ौरो फ़िक्र करने की सख़्त ज़रूरत है।
आख़िर में एक बात और, सुबह शाम गला फाड़- फाड़ कर चीख़ने-चिल्लाने वाले इन चुनिंदा और वाहियात क़िस्म के न्यूज़ एंकर्स को ना तो आपसे हमदर्दी है, ना कोई मतलब है, ना क़ौम और ना ही आपके असल मुद्दों से कुछ लेना-देना। दरअसल, इनमें से कई तो सिर्फ़ अपनी नौकरी बचा रहे हैं, जबकि कुछ ऐंकर आपको “ज़लील” कर के ना सिर्फ़ “दौलत और शोहरत” बटोर रहे हैं बल्कि हुज़ूर के “दरबार” में अपना “मर्तबा” भी “आला” कर रहे हैं।।
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लेखक जाने माने एंकर है, ये उनके निजी विचार हैं
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