(उबैद उल्लाह नासिर)
अब हमारे बच्चे तुलसी दास रचित राम चरित्र मानस ( रामायण ) तो पढ़ेंगे, लेकिन उनको यह नहीं मालूम होगा कि यह किस दौर में लिखी गयी थी। उस दौर का शासक कौन था। शासन तन्त्र क्या था, यह बच्चे दुनिया भर में भारत की आंन बान शान का प्रतीक बन चुके ताज महल और लाल किला तो देखेंगे, लेकिन यह नहीं जान पायेगे की यह भव्य इमारतें कब बनी। यह बच्चे उस दौर की कला, संस्कृति, साहित्य,संगीत,स्थापत्य कला आदि के बारे में भी नहीं जान पायेंगे, क्योंकि 330 साल के उस दौर को इतिहास की पुस्तक से निकाल दिया गया है। यह बच्चे दुसरे विश्व युद्ध की विनाश लीला के बाद मानवता को शान्ति प्रेम सह अस्तित्व और विश्व बंधुत्व की लड़ी में पिरोने वाले और दुनिया जो दो फौजी ब्लाकों में बंट कर शीत युद्ध का दंश झेल रही थी और जो कभी भी वास्तविक युद्ध में बदल सकता था और हेरोशिमा नागासाकी जैसी तबाही ला सकता था उस विभीषिका से बचाने वाले गुट निर्पेक्ष आन्दोलन के बारे में भी नहीं जान सकेंगे। हालांकि इसी आन्दोलन की बदौलत नया नया आज़ाद हुआ आर्थिक और सामरिक तौर से कमज़ोर भारत सोवियत यूनियन और अमरीका जैसे दो ताक़तवर फौजी ब्लाकों के बीच अपना अलग स्थान बना चुका था और जिसके प्रेरणास्रोत भारत के प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु थे। गुट निरपेक्ष आन्दोलन अपने समय में और आज भी संयुक्त राष्ट्र के बाद दुनिया के देशों का सब से बड़ा समूह है और उसके सर्वमान्य नेता जवाहर लाल नेहरू थे। यह हमारे लिए गर्व का विषय होना चाहिए था। लेकिन नेहरू से नफरत करने वाले हमारे वर्तमान शासकों को नेहरू से इतनी नफरत है कि भारत के लिए गर्व का विषय होने वाले गुट निर्पेक्ष आन्दोलन के बारे में भी अब हमारे नवजवान नहीं जान पायेंगे। इसके अतिरिक्त अफ्रो एशियाई क्षेत्र में मुस्लिम शासन के उदय, मुग़ल काल, औद्योगिक क्रांति खाध्य सुरक्षा, कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव के साथ ही साथ धर्म, साम्प्रदायिक और धर्मनिरपेक्ष राजनीति आदि विषयों के चैप्टर भी पाठ्यक्रम से हटा दिया गए हैं।
विश्व विख्यात उर्दू शायर फैज़ अहमद फैज़ की कालजयी रचना हम कि ठहरे अजनबी इतनी मुलाकातों के बाद –फिर से होंगे आशना कितनी मुलाकातों के बाद को भी पाठ्यक्रम से निकालने का कारण भी समझ पाना कठिन है, सिवाय इसके कि फैज़ पाकिस्तानी थे और उर्दू के कवि। हालांकि उनकी रचनाये दुनिया भर के शोषितों.कमज़ोरों और अत्याचार का शिकार लोगों में इन्किलाब और उठ खड़े होने की प्रेरणा देती हैं। शायद यही प्रेरणा आज के भारत के नेताओं को स्वीकार नहीं।
शिक्षा के भगवाकरण की अपनी मुहीम के तहत भारत सरकार ने यह और ऐसे बहुत से विषयों को सीबीएसई के हाई स्कूल और इंटर के पाठ्यक्रम से निकालने का निर्णय लिया है और यह क्यों किया गया है, इसको समझने के लिए अंतरिक्ष विज्ञान पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। सभी जानते हैं कि इन सभी विषयों को ले कर आरएसएस की एक विशेष सोच है जो तर्क,वैज्ञानिकता और शोध के बजाय मनगढ़ंत आस्था, दुराग्रह,घृणा और बदले की भावना पर आधारित है। अपने स्कूलों,शिशु मंदिरों,और शाखाओं में वह अपनी यह विचारधारा का प्रचार कर के एक विशेष सोच के लोग तैयार करती रही है और अब जब उसके हाथ में सत्ता है तो वह अपनी इस विचारधारा का प्रचार प्रसार व्यापक पैमाने पर कर रही है। आरएसएस एक ऐसा समाज तैयार करना चाहता है, जहाँ तर्क,वाद विवाद,शोध, वैज्ञानिक सोच के लिए कोई जगह नही है। तस्वीर का केवल वही रुख देखने वाला भेड़ों के रेवड़ जैसा एक ऐसा समाज वह चाहता है, जहाँ उसे जो बता दिया जाए, वह उसे ही पूर्ण सच मान ले। वह भारत को एक प्रगतिशील,स्वतंत्र विचार वाला, सहिष्णु,सह अस्तित्व,धर्म निरपेक्ष देश नहीं, बल्कि एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र चाहती है जहाँ केवल हिन्दू धर्म हिन्दू आस्था हिन्दू धर्म की श्रेष्ठ
ता ही स्थापित रहे। हालांकि सनातन धर्म तो सर्व धर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बकम का विचार देने वाला धर्म है जो दुनिया का सब से प्राचीन ही नहीं बल्कि सब से सहनशील,प्रगतिशील और लिबरल धर्म है।
अपनी इस संकुचित विचारधारा के प्रचार प्रसार इसे अवाम में स्वीकार्य बनाने और इसके द्वारा अपने सपनो का भारत बनाने के लिए आरएसएस ने अल्प और धीर्ध कालीन योजनाएं तैयार की थी और लगभग सौ साल पहले अपने स्थापना से ले कर आज तक वह इन सपने को सच करने के लिए पूरी निष्ठा और लगन से काम कर रहा है। आज राजनैतिक और समाजी स्तर पर उसकी यह प्रतिगामी विचारधारा यदि सफल हो रही है तो उसमें आरएसएस के नेताओं, प्रचारकों और कार्यकर्ताओं की यही लगन मेहनत और निष्ठा शामिल है। यह अलग बात है कि यह सफलता उसने जिन रास्तों पर चल कर प्राप्त की है, इसका नैतिकता,सामाजिक ज़िम्मेदारी,कानून की पाबंदी और देश प्रेम से कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन जब ध्येय ही गलत हो, सपने भी गलत हों तो इनकी प्राप्ति का रास्ता यदि गलत हो तो उसमें बुराई क्या है। ध्येय की प्राप्ति के दो रास्ते बताए गए हैं। नेक मकसद की प्राप्ति के लिए नेक रास्ता की चुना जाना चाहिए और दूसरा कहता है सफलता के लिए कोई भी रास्ता दुरुस्त हो जाता है। कहा जाता है कि अनैतिकता से प्राप्त सफलता को मत सराहो, लेकिन आरएसएस इसकी उलटी गंगा बहाने पर विश्वास रखता है।
जंग आज़ादी के दौरान आजाद भारत कैसा होगा उस समय भी दो धाराएं चल रही थी। इसी समय अंग्रेजों की साज़िश और अदूरदर्शी मुस्लिम नेताओं की मूर्खता कथित एलिट वर्ग के मुसलमानों ज़मींदार ताल्लुकदार नवाब और सरकारी अफसरान का यह वर्ग कांग्रेस के इस एलान से चिंतित था कि आज़ाद भारत एक सोशलिस्ट गणराज्य होगा, ज़मींदारी खत्म की जायेगी, किसानों को ज़मीनों का मालिक बनाया जाएगा आदि। मुसलमानों के इस वर्ग को इस एलान से अपने पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती दिखाई दी और अपने हित के खतरों को इस्लाम के लिए खतरा बता कर पाकिस्तान बनाने की जिद पकड़ ली और बनवा के ही दम लिया, हालांकि मानवीय त्रासदी की शक्ल में इसकी इतनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी, जिसकी कोई मिसाल दुनिया के इतिहास में नहीं मिलतीI धर्म के आधार पर देश के इस बटवारे की सब से बड़ी कीमत भी मुसलमानो को ही अदा करनी पड़ी। पहले पाकिस्तान के नाम अपर उनका खून बहा, फिर बंगला देश के नाम पर। आज भी भारत और पाकितान में किसी न किसी बहाने उनका खून बहता ही रहता है। आज भारत के मुसलमान जिन हालत से गुज़र रहे हैं और अपने वजूद के जिस खतरे से दो चार हैं उसकी जड़ में यही मूर्खतापूर्ण बंटवारा है।
महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू, मौलाना आज़ाद, डॉ आंबेडकर, सरदार पटेल जैसे दूरदर्शी नेताओं ने बंटवारे के बावजूद मुसलमानों से किसी प्रकार के भेदभाव को नकार दिया और संविधान में उनके समान अधिकारों की गारंटी भी दी। थोड़ा बहुत ऊपर नीचे होते हुए उस पर विगत सत्तर वर्षों से अमल भी होता रह। लेकिन एक दूसरी विचारधारा भी पनप रही थी, जो वैसे तो आज़ादी से पहले भी मुसलमानों से दुश्मनी पर ही आधारित थी, लेकिन आज़ादी के बाद भारतीय मुसलमानों को बराबर का नागरिक बनाने और उनकी सभी अधिकार देने की विरोधी थी उसका मत था कि जब देश धर्म के नाम पर बंट गया तो अव्वल तो सभी मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए था। लेकिन अगर नहीं गए तो उन्हें यहाँ बराबर के अधिकार कैसे दिए जा सकते हैं। वह यहाँ दूसरी श्रेणी के नागरिक बन कर रहें, जिनके कोई अधिकार नहीं होंगे। वह केवल हिन्दुओं की दया दृष्टि पर ही यहाँ रह सकते हैं। आरएसएस के दूसरे सब से बड़े विचारक और अध्यक्ष रह चुके गुरु गोल्वालाकर अपनी किताब बंच आफ थाट्स और हम तथा हमारी राष्ट्रीयता में इस विषय पर बहुत विस्तार से अपने विचार रख चुके हैं। हालाँकि आज़ादी के बाद के भारत ने उनके इस विचार को पूरी तरह
रिजेक्ट कर दिया था, लेकिन राजनीति ने कुछ ऐसी करवट बदली कि 2014 के बाद मुसलमानों के प्रति आंबेडकर रचित संविधान बिना बदले ही लगभग निष्प्रभावी कर दिया गया और गोल्वालकर लिखित बंच आफ थाट्स के प्रावधानों को धीरे धीरे लागू किया जाने लगा। शिक्षा का भगवाकरण उसी सिलसिले की कड़ी है।
वैसे शिक्षा का भगवाकरण कोई नयी मुहीम नहीं है। यह असल में आज़ादी के बाद ही आरएसएस ने कांग्रेस में घुसे अपने स्लीपिंग मोडयुल्स द्वारा शुरू कर दी थी। उर्दू की हत्या इस सफ़र का पहला क़दम था। एक ओर जहाँ प्रधान मंत्री नेहरू अपने शिक्षा मंत्री मौलाना आज़ाद के साथ मिल कर देश में आई आई टी,आई आई एम,वैज्ञानिक शोध संस्थान,आदि स्थापित कर रहे थे, वहीं हिंदी पट्टी की कांग्रेस सरकारें ही हिन्दू देवमालाइ कथाओं और व्यक्तियों को पाठ्यक्रम में शामिल कर रही थीं,लेकिन इतनी शर्म बाक़ी थी कि हर कक्षा की पाठ्य पुस्तक में एक दो मुस्लिम धार्मिक व्यक्तियों को भी शामिल कर लिया गया था। लेकिन धीरे धीरे यह समाप्त कर दिया गया। इतिहास खासकर मध्य युगीन इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसे मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाने का साधन बना लिया गया है। इतिहास किसी के बदलने से नहीं बदला सकता और यदि उसे पाठ्यक्रम में न भी शामिल किया जाए तो उसे छुपाया नहीं जा सकता। क्योंकि यह केवल देश और काल तक ही सीमित नहीं है
अगर हमारे बच्चे इतिहास अपने स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे तो क्या दुनिया भर की किताबों में सिमटे उसी इतिहास को नहीं पढ़ पायेंगे? हाँ गरीब और उच्च शिक्षा से महरूम रह जाने वाले बच्चे शायद वहां तक न पहुँच सकें और आरएसएस यही चाहता भी है कि जैसे प्राचीन भारत में ज्ञान केवल कुलीन वर्ग तक ही महदूद था, वैसे ही आधुनिक भारत में भी ज्ञान वर्ग विशेष तक ही महदूद रहे बाक़ी लोग कूप मंडूक बनके जीवन व्यतीत करें।
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