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कांग्रेस को गांधी और चाणक्य दोनों की आवश्यकता है,राहुल की भारत जोड़ो यात्रा क्रांतिकारी साबित हो सकती है

कांग्रेस को गांधी और चाणक्य दोनों की आवश्यकता है,राहुल की भारत जोड़ो यात्रा क्रांतिकारी साबित हो सकती है

उबैदउल्लाह नासिर

देश की राजनीति के फलक पर नरेन्द्र मोदी के प्रादुर्भाव के बाद देश की राजनीति और समाज में जो बदलाव आया है और जिस प्रकार धार्मिक ध्रुवीकरण अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और हिंसा को सरकार की सरपरस्ती में बढ़ावा दिया जा रहा है, जिस प्रकार उनके लिए जीवन दिन प्रति दिन कठिन किया जा रहा है, उनके आत्मसम्मान को प्रति दिन किसी न किसी तरह से ठेस पहुंचाई जा रही है, उनके उपासना स्थलों को निशाना बनाया जा रहा है और उनमें यह एहसास पैदा किया जा रहा है कि वह इस देश के संविधन के अनुसार बराबर के नागरिक नहीं हैं, बल्कि गोलवालकर की सोच के अनुसार दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। उनके लिए सुरक्षा ही नही न्याय के दरवाज़े भी बंद किये जा रहे हैं, उनमें अलग-थलग किये जाने का एहसास पैदा किया जा रहा है। उनको आर्थिक तौर से तबाह करने के लिए उनके आर्थिक और समाजिक बायकाट का जो घृणित प्रयास किया जा रहा है, उससे देश के 30 करोड़ मुसलमान ही चिंतित नहीं हैं, बल्कि देश के न्याय पसंद, मानवतावादी,देश में न्याय और कानून का राज चाहने वाले अधिकतर हिन्दू भी चिंतित हैं। क्योंकि वह देख रहे हैं कि इस देश को धर्म और राष्ट्रवाद के नाम पर गृह युद्ध की ओर धकेला जा रहा है, देश को यूगोस्लाविया बनाया जा रहा है। जो धर्म के नाम पर ही गृह युद्ध में फँस कर अपना वजूद ही खो चुका है। श्रीलंका का ताज़ा उदाहरण भी उनके सामने है, जहाँ ठीक ऐसे ही हालात राजपक्षे ने पैदा किये थे और जहाँ की अवाम दाने-दाने को मोहताज होकर मजबूरन उसी राजपक्षे के खिलाफ सड़कों पर उतर आई, जिसकी वह कभी पूजा करते थे। नाज़ी जर्मनी से ले कर श्रीलंका तक के हालात हमारे सामने हैं कि किस प्रकार धर्म और राष्ट्रवाद ने इन देशों को बर्बाद किया था। इतिहास बहुत निर्मम होता है, अगर उससे सबक़ न लिया गया तो फिर वह सबक़ बना देता है। आज भारत को उसके संवैधानिक मूल्यों से ही नहीं, बल्कि सनातन हिन्दू धर्म की सर्व धर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से ही काटकर बहुसंख्यकवाद और जिसकी लाठी उसकी भैंस के निजाम को थोपा जा रहा है।
देश का यह न्याय पसंद मानवतावादी वर्ग यह भी जनता है कि देश को इस मकड़जाल से निकालने की क्षमता केवल कांग्रेस में है, क्योंकि अपनी तमाम कमजोरियों और पिछली गलतियों के बावजूद केवल कांग्रेस ही देश के मिजाज़ को समझती है और समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने की सलाहियत रखती है। लेकिन यह वर्ग कांग्रेस की जड़ता से भी चिंतित है, क्योंकि 2014 नकी शर्मनाक हार से लेकर आज तक वह कदम-कदम पर हारती रही, जीत के भी कई बार हार गयी है, लेकिन आज तक ऐसा कुछ नहीं किया पार्टी में ऐसा कोई बदलाव नहीं आया, जिससे लगे कि वह उठ खड़ी होना चाहती है। कभी बीजेपी के लोकसभा में केवल दो सांसद थे, लेकिन उसमें कभी जड़ता नहीं आई, लड़ने का उसका जज्बा कमज़ोर नहीं पड़ा। हर हार के बाद ही नहीं बल्कि अब तो हर जीत के बाद भी वह अगली लड़ाई की तैयारी शुरू कर देती है। जबकि कांग्रेस हर असफलता के बाद चिंतन मनन करके ढाक के वही तीन पात वाली कहावत चरितार्थ कर देती है। यही नहीं पार्टी वैचारिक आवारगी का भी शिकार है, क्योंकि वह अपनी मूल विचारधारा से डिग चुकी है। वह आज भी नहीं निश्चित कर पा रही है कि वह नर्म हिंदुत्व की धारा में बहे या नेहरुवाद की धारा में। वह यह समझ ही नहीं पा रही है कि नर्म हिंदुत्व एक छलावा है, अगर वोटर को हिंदुत्व के नाम पर वोट देना है तो वह पूर्ण हिंदुत्ववादी पार्टी को वोट देगा, फिफ्टी फिफ्टी वाली हिंदुत्व वादी पार्टी को क्यों देगा? कांग्रेस गाँधी नेहरु के रास्ते पर चल कर ही अपना वैचारिक और राजनैतिक वजूद बचाए रख सकती है, लेकिन पार्टी में हमेशा दक्षिण पंथियों का एक वर्ग रहा है और आज यही वर्ग पार्टी को बार बार दिग्भर्मित करता रहता है। पंडित नेहरु के समय में पंत से लेकर आज प्रमोद कृष्णम तक पार्टी को घ ुन की तरह चाट रहे हैं। आज यह वर्ग राहुल गांधी की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देख रहा है, क्योंकि चाहे कांग्रेस में हो या पार्टी से बाहर, यही अकेला शख्स दुश्मनों से घिरा अभिमन्यु की तरह देश को फासीवाद साम्प्रदायिकता आर्थिक तबाही समाजी बिखराव और सरहदों की असुरक्षा के खिलाफ लड़ रहा है। उसको असफल करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है, उसके खिलाफ अनर्गल बातें की जाती हैं, झूठे इलज़ाम लगाए जाते हैं, बात का बतंगड़ बनाया जाता है, मगर आज तक उसके कदम नहीं डिगे, आज भी साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ वह चट्टान बना खड़ा है। राहुल गाँधी ने देश की आर्थिक बर्बादी, कोरोना की तबाहकारी, समाजी बिखराव आदि पर जो बातें भी कही, वह सब एक एक करके सच साबित होती रहीं, जिससे जाहिर होता है कि उनमें आर्थ और समाज शास्त्र की कितनी समझ है और वह कितनी दूर की सोचते हैं तथा देश के लिए उनकी क्या परिकल्पना और सोच है। हारी हुई कांग्रेस ही नहीं, आर्थिक तौर से खोखले, समाजी तौर से बिखरे और सामरिक तौर से असुरक्षित हो चुके भारत को भी आज ऐसे ही नेता की ज़रूरत है।
जोधपुर के कांग्रेस शिविर में जहाँ देशभर के सभी वरिष्ठ कांग्रेसजन मौजूद थे, राहुल को पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग उठी, लेकिन सूचना के अनुसार सोनिया गांधी ने यह कहकर यह मांग नहीं मानी कि पार्टी के चुनावों का एलान हो चुका है और यह प्रक्रिया पूरी की जाएगी, अर्थात पार्टी अध्यक्ष भी चुना जायेगा। जैसा खुद सोनिया जी चुनाव लड़ कर पार्टी अध्यक्ष बनी थीं। अभी यह भी क्लियर नहीं है कि राहुल गांधी अध्यक्ष बनने को तैयार भी है या अपनी पहले वाली बात पर ही अडिग हैं। यह बात तो तय है कि कांग्रेस की आत्मा नेहरु गांधी परिवार में बसती है। पार्टी अध्यक्ष कोई भी हो सकता है, लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व नेहरु गांधी परिवार के पास ही रहेगा और राहुल ही उसके असल उत्तराधिकारी हैं और शायद इसी कारण पार्टी ने उन्हें भारत जोड़ो यात्रा का “मीरे कारवां”( हेड ऑफ़ कारवां) बनाया है। बेहतर यही है कि पार्टी अध्यक्ष का चुनाव हो और वह कोई दक्षिण भारत का हो, क्योंकि हिंदी पट्टी से ज्यादा कांग्रेस के लिए दक्षिण भारत में सम्भावनाएं हैं। उधर का अध्यक्ष चुना गया तो एक अच्छा संदेश जाएगा। राहुल गांधी महात्मा गांधी वाली भूमिका संभालें और चुने हुए पार्टी अध्यक्ष को चाणक्य बनाएं। आज कांग्रेस को गांधी और चाणक्य दोनों की आवश्यकता है, क्योंकि मोदी अमित शाह ब्रांड राजनीति की काट केवल चाणक्य ही कर सकता है गांधीवाद नहीं।
पिछले कई वर्षों से अनेक पत्रकारों, राजनैतिक विश्लेषकों और देश को सम्प्र्दायिक फासीवाद से बचाने की चाह रखने वाले करोड़ों लोगों की चाह थी कि राहुल महात्मा गांधी की तरह देश को जागृत करने के लिए पदयात्रा पर निकलें। जोधपुर इजलास में कश्मीर से कन्या कुमारी तक की राहुल गांधी के नेतृत्व में निकलने वाली पदयात्रा का फैसला उनकी इस चाहत और देश की बड़ी ज़रूरत पूरी करने का फैसला है। विश्वास कीजिये राहुल के पीछे बिना बुलाये लाखों लोग चल पड़ेंगे। क्योंकि सभी के दिलों में देश को बचाने की ज्वाला धधक रही है। मोदी-शाह ब्रांड राजनीति ने संवैधानिक लोकतंत्र ही नहीं, अपितु भारत और हिन्दू धर्म की आत्मा पर हमला किया है। जिससे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग विचलित है और देश को इस तबाही से बचाना चाहता है। यहाँ यह बात समझना ज़रूरी है कि बीजेपी की चुनाव सफलताओं के पीछे उसकी लोकप्रियता नहीं, बल्कि उसकी पोलिटिकल स्ट्रेटेजी,असीमित धन, मुर्दा हो चुकी संवैधानिक संस्थाएं, बेशर्म मीडिया और कार्यकर्ताओं की लगन शामिल है।
आज देश में जो हो रहा है, वह एक बहुत बड़ी तबाही की पटकथा है। दुनिया चाँद पर जा रही है, वहां पानी खोजा जा रहा है, ताकि वहाँ आदमी बस सकें। जबकि भारत में खुदाई की जा रही मुस्लिम दौर की हर इमारत, हर मस्जिद के नीचे मंदिर, शिवलिंग बताकर कपोल कल्पना को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को ध्वस्त करने की कोशिश की जा रही है। दुनिया में कहीं किसी देश में ऐसा नहीं होता है, लेकिन संघ परिवार भारत में यह सब कर रहा है। संख्या और सत्ता के अहंकार में वह देश को खोद कर एक बहुत बड़े गड्ढे में बदलना चाहता है, ताकि देश फिर पाषाण युग में वापस चला जाए। संघ परिवार इतिहास बदलने की कोशिश कर रहा है, लेकिन इतिहास तो अमिट होता है, उसे बदला नहीं जा सकता, छुपाया नहीं जा सकता। यहाँ यह बात याद रखने की है कि बाबरी मस्जिद राम जन्म भूमि विवाद के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरएसएस के सभी दावों को ख़ारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में साफ़ लिखा है कि 1- बाबरी मस्जिद के नीचे किसी मंदिर के अवशेष नहीं मिले 2-बाबरी मस्जिद कोई मंदिर तोड़ कर नहीं बनाई गयी 3- मस्जिद में मूर्ती गैर कानूनी तौर से रखी गयी थी 4- बाबरी मस्जिद का तोडना गैर कानूनी था इतने साफ फैसले के बाद जब बाबरी मस्जिद के नीचे किसी मंदिर की बात गलत साबित हो गयी तो भी संघ परिवार हर मस्जिद और मुस्लिम दौर की हर इमारत के नीचे मन्दिर और शिवलिंग की बात कहता है, जिसका मकसद मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाना है, लेकिन इसकी बहुत बड़ी कीमत देश को अदा करनी पड़ेगी। क्योंकि फूट, घृणा, हिंसा, अविश्वास और समाजिक वैमनस्य किसी भी देश किसी भी समाज की तबाही का मुख्य कारण होता है।
बाबरी मस्जिद के बाद आशा की जा रही थी कि ऐसे विवाद समाप्त हो जायेंगे। ख़ासकर जब 1991 में तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार ने यह कानून बना दिया था कि 15 अगस्त 1947 को जो धर्मस्थल जैसा था, वैसा ही रहेगा और बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून को संविधान का अभिन्न अंग माना उसके बावजूद जिला अदालतों में ऐसे मुक़दमे दायर किये जाते हैं और वह अदालतें 1991 के कानून को नज़र अंदाज़ करके उस पर एक तरफा फैसले भी दे रही है। ज्ञानवापी मस्जिद में तो जिला अदालत ने हदें ही खत्म कर दीं। 1991 में ही इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस पर स्टे आर्डर दे रखा है, लेकिन जज साहब ने न इस स्टे ऑर्डर की चिंता की और न ही उक्त कानून की।सीधे मस्जिद परिसर के सर्वे का आदेश दे दिया। उधर सर्वे कमिश्नर ने मस्जिद के वजूखाने के तालाब से प्राप्त एक पत्थर को सीधे शिवलिंग बता दिया। जबकि कोर्ट में अपनी रिपोर्ट भी नहीं पेश की। यह कोई संयोग या आकस्मिक नहीं था, बल्कि एक सोची समझी साज़िश थी। उनके इस बयान को देश की मीडिया ख़ास कर चैनल ले उड़े और अब वह पत्थर जिसकी हैसियत को अभी तक अदालत ने कुछ भी नहीं माना है, उसकी पूजा अर्चना की बात शुरू हो गयी है। कहने का तात्पर्य यह है कि देश में संविधान कानून समाजिक ज़िम्मेदारी आदि सबको किनारे करके बहुसंख्यकवाद थोपा जा रहा है। जो निकट भविष्य में ही बहुत बड़ी तबाही लाएगा और कांग्रेस को ही इस तबाही से देश को बचाने की ज़िम्मेदारी अदा करनी पड़ेगी।
मोदी-शाह ब्रांड राजनीति ने देश के हालात ऐसे बना दिए हैं कि मुसलमानों पर चाहे जितना अत्याचार हो, चाहे जितना उनके साथ अन्याय हो, मॉब लिंचिंग में उन्हें मार दिया जाए, उनकी लड़कियों के साथ बलात्कार हो, उनके मकान-दुकान बुलडोज़र से गिरा दिए जाएं, कोई भी पार्टी उनके हक में बोलने को तैयार नहीं होती,क्योंकि उसे हिन्दू वोट खोने का खतरा दिखाई देता है। इस घटाघोप अँधेरे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जोधपुर इजलास में इसके खिलाफ खुल कर आवाज़ उठाई और दो टूक शब्दों में मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार, ध्रुवीकरण की राजनीति और इस्लामोफोबिया के खिलाफ मोदी सरकार को आड़े हाथों लिया। इसने मुसलमानों के जख्मों पर मरहम जैसा काम किया है। सोनिया गांधी की यह दो टूक बातें न सिर्फ मोदी सरकार, न सिर्फ आरएसएस बल्कि कांग्रेस में घुसे संघियों को भी खुला सन् देश है कि पार्टी नेहरुवाद पर ही चलेगी। विचारधारा की यह क्लियरटी बहुत आवश्यक थी। कांग्रेस ने 1991 के धर्म स्थल सुरक्षा कानून को बाक़ी रखने पर भी जोर दिया, ताकि देश ऐसे विवादों से ऊपर उठ कर सद्भाव के साथ विकास की मंजिले तय करे।
कांग्रेस के जोधपुर इजलास में और बही बहुत महत्त्व पूर्ण फैसले हुए। जैसे पार्टी में हर स्तर पर युवाओं को पचास प्रतिशत भागीदारी, महिलाओं के 33% रिजर्वेशन के अंदर कोटे में कोटा का प्रावधान, पार्टी में हर स्तर पर दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों को पचास प्रतिशत पद दिया जाना,एक परिवार एक टिकट, किसी पद पर पांच साल से ज्यादा न रहना आदि शामिल हैं। अब देखना है कि इस पर कितना अमल होता है।
कुल मिलाकर देश की ज्वलंत समस्याओं और कांग्रेस में फैली जड़ता पर इस इजलास में न केवल चर्चा हुई, बल्कि उससे निकलने का रास्ता भी ढूंढा गया। आवश्यकता है कि पार्टी अध्यक्ष का लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव कराके राजनातिक विमर्श बदले और पार्टी में नवजीवन का संचार करके देश को बचाने की लड़ाई में कूद पड़े।

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