बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव कई माइनों में बहुत महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं, सबसे बड़ी बात तो यह है कि कोरोना काल में देश में पहले चुनाव बिना किसी बाधा के सम्पन्न हो गए, चुनाव आयोग को इसके लिए बधाई, दूसरी अहम बात यह रही कि बिहार में 15 साल तक चली नीतीश सरकार के प्रति उकताहट तो साफ नज़र आई, लेकिन PM मोदी का जादू बिहार में चला यानी एंटी इकंबेंसी का असर सत्तारूढ़ गठबंधन की पार्टनर पार्टी बीजेपी पर नहीं पड़ा, बल्कि वह पहले से ज़्यादा गहरी जड़ें जमाने में कामयाब रही.

इस बार के चुनाव ने लालू यादव के परिवार की अगली पीढ़ी को बिहार की सियासी ज़मीन पर मज़बूती से खड़ा कर दिया है, इस बात में कोई संदेह नहीं है, महागठबंधन में तेजस्वी यादव अपनी धाक जमाने में कामयाब रहे, उनके नेतृत्व पर कांग्रेस और सीपीआई-एमएल ने कोई अगर-मगर नहीं दिखाई, तो ये तेजस्वी की पहली कामयाबी थी, चुनाव से पहले जिस तरह तेजस्वी ने पार्टी कार्यालय में अपने कार्यकर्ताओं के सामने कहा कि उनके माता-पिता के शासन काल में अगर कुछ गड़बड़ी हुई थी, तो वे उसके लिए माफ़ी मांगते हैं, उन्होंने कहा कि वे तब छोटे थे, कुछ कर नहीं सकते थे, तेजस्वी ने संदेश दिया कि जिस जंगलराज के लिए उनके पिता लालू यादव को कोसा जाता है, उसमें उनका कोई हाथ नहीं था, बाद में आरजेडी दफ़्तर के बाहर जो बड़ा होर्डिंग लगा, उसमें सिर्फ़ तेजस्वी यादव की बेहद शालीन तस्वीर लगाई गई, यानी उन्होंने अपने पिता की छवि को किनारे करने की पूरी कोशिश की और उसमें कामयाब भी हुए, हालांकि उनकी पार्टी की सीटें 2015 के मुक़ाबले कम हुई हैं, फिर भी 75 सीटें पाकर आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी का तमग़ा बरक़रार रखने में कामयाब हुई है..

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पूरे चुनाव प्रचार में तेजस्वी ने नीतीश कुमार पर तो जमकर आरोप लगाए, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उलटा-पुलटा कुछ नहीं कहा, हालांकि मोदी ने उन्हें जंगलराज के युवराज कहकर उकसाने का पूरा प्रयास किया, लेकिन वे उनके झांसे में नहीं आए, आ गए होते और प्रचार को मोदी के विरोध में केंद्रित करने की ग़लती कर बैठते, तो आरजेडी की सीटें घट सकती थीं, क्योंकि बिहार में इस बार मोदी का जादू चला है, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता, 2019 के आम चुनाव में भी राहुल गांधी से यही ग़लती हुई थी और कांग्रेस ने इसका ख़मियाजा भुगता, राहुल गांधी हर सभा में मोदी विरोध के नाम पर एक तरह से उन्हें सिर पर बिठाकर घूमे, तो नतीजा यह निकला कि 2014 के मुक़ाबले भारतीय जनता पार्टी 303 सीटें पाकर और ज़्यादा मज़बूती से उभरी, अगर राहुल गांधी कांग्रेस के घोषणा पत्र पर ही केंद्रित रहते, तो कांग्रेस को फ़ायदा हो सकता था, उनका अब होगा न्याय का नारा हर ग़रीब को हर साल 72 हज़ार रुपये देने के बहुत लोक-लुभावन लगने वाले वादे के बावजूद फ़ुस्स हो गया, तेजस्वी ने इससे सबक़ लिया और प्रचार में मोदी को बिल्कुल निशाना नहीं बनाया, ज़ाहिर है कि उन्हें इसका फ़ायदा मिला.

बिहार के नतीजों से साफ़ है कि मुस्लिम मतों के बंटवारे ने सीमांचल में तेजस्वी यादव की हार सुनिश्चित की, असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने पांच सीटें जीती हैं, ये सीटें कांग्रेस और आरजेडी के प्रभाव वाली रही हैं, मतलब यह कि आरजेडी और कांग्रेस के परंपरागत एमवाई फ़ैक्टर में इस बार सेंध लगी हुई नज़र आ रही है, मुख्य टिप्पणी से पहले चिराग पासवान की एलजेपी के प्रदर्शन का ज़िक्र भी कर लेना चाहिए, चिराग को एक सीट मिली है, लेकिन वे ख़ुद मान रहे हैं कि उनकी पार्टी में ऊर्जा की नई लहर आई है और उनका वोट प्रतिशत बढ़ा है, हालांकि उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मीदी कह रहे हैं कि अगर एलजेपी नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मोर्चा नहीं खोलती, तो गठबंधन को 150 सीटें तक मिल सकती थीं, इस बात में दम नज़र आता है, अब यह देखने वाली बात होगी कि केंद्र की राजनीति में एलजेपी का भविष्य क्या होता है? राम विलास पासवान के निधन के बाद ख़ाली हुई राज्यसभा सीट अब चिराग के खाते में जा पाएगी, इसमें पूरा संदेह है.

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 बिहार में सियासत की अगली पीढ़ी का चुनाव था, यह कहा जा सकता है, लालू यादव जेल में हैं, रघुवंश प्रसाद सिंह और रामविलास पासवान का निधन हो चुका है, शत्रुघ्न सिन्हा, शरद यादव समेत बहुत से बड़े नेताओं के बेटे-बेटियां चुनाव मैदान में दिखाई दिए, जेडीयू की सियासत वाले परिवार से आने वाली पुष्पम प्रिया चौधरी अपनी पार्टी प्लूरल्स के साथ मैदान में उतरीं, वे हालांकि कुछ ख़ास नहीं कर पाईं, ऐसे माहौल में तेजस्वी यादव ने अपने बूते बिहार की सियासत में पैर जमा लिए हैं, यह स्वीकार लेना चाहिए, बीजेपी और जेडीयू को भी अब अगली पीढ़ी के कंधे मज़बूत करने चाहिए, अन्यथा पांच साल बाद उन्हें ऊहापोह से ग़ुज़रना पड़ सकता है, वैसे भी कहा जाता है कि कि बिहार में बीजेपी के पास मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा नहीं है, अगले पांच साल में बीजेपी को कम से कम इस ओर ज़रूर ध्यान देना चाहिए.

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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