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महिला की सहमति बनाम सत्ता की ताक़त: लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा

महिला की सहमति बनाम सत्ता की ताक़त: लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा

(अशरफ़ हुसैनी)

लोकतंत्र की सबसे बड़ी परीक्षा यह नहीं होती कि चुनाव कितने प्रतिशत वोटों से जीते गए, बल्कि यह होती है कि सत्ता में बैठा व्यक्ति आम नागरिक, विशेषकर महिला, के साथ कैसा व्यवहार करता है। जब सत्ता संवेदनशील होती है, तब लोकतंत्र मज़बूत होता है, और जब सत्ता अहंकार में डूब जाती है, तब लोकतंत्र केवल एक औपचारिक ढांचा बनकर रह जाता है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा एक सार्वजनिक मंच पर एक महिला का नक़ाब खींचने की घटना ने आज पूरे देश के सामने यही सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या सत्ता को यह अधिकार है कि वह महिला की निजी पसंद और गरिमा में हस्तक्षेप करे? क्या मुख्यमंत्री का पद इतना बड़ा हो गया है कि महिला की सहमति बेमानी हो जाए?

यह घटना कोई मामूली या क्षणिक हरकत नहीं थी। यह उस सोच का प्रतिबिंब थी, जो मानती है कि महिला को “समझाया” जा सकता है, उसकी पहचान को सार्वजनिक रूप से छेड़ा जा सकता है, और अगर महिला मुस्लिम हो तो उसके पहनावे को और भी सहजता से निशाना बनाया जा सकता है। नक़ाब केवल कपड़ा नहीं होता, वह महिला की निजी आस्था, उसकी पहचान और उसके आत्मसम्मान से जुड़ा होता है। उसे बिना अनुमति हटाना केवल बदतमीज़ी नहीं, बल्कि महिला की स्वायत्तता पर सीधा हमला है।

वीडियो में साफ़ दिखाई देता है कि महिला असहज हो जाती है। वह क्षण भर के लिए सिमटती है, माहौल ठहर जाता है, लेकिन सत्ता का रवैया उस असहजता को गंभीरता से लेने के बजाय उसे हल्केपन में बदल देता है। यही वह बिंदु है जहाँ मामला और गंभीर हो जाता है। सवाल उठता है कि क्या सत्ता को यह एहसास ही नहीं है कि उसने एक मर्यादा तोड़ी है, या फिर उसे भरोसा है कि कोई सवाल पूछने वाला नहीं है?

भारतीय संविधान हर नागरिक को गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। यह अधिकार केवल जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता, धार्मिक आस्था और शारीरिक स्वायत्तता भी शामिल है। किसी महिला के शरीर या पहनावे पर पहला अधिकार उसी महिला का होता है। उसकी सहमति के बिना उस पर हाथ डालना न केवल नैतिक अपराध है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों का भी उल्लंघन है। फिर सवाल यह है कि क्या यह संविधान आम नागरिक के लिए है और सत्ता में बैठे लोगों के लिए नहीं?

इस घटना को कुछ समर्थक “मज़ाक” या “अनजाने में हुई हरकत” बताकर बचाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन मज़ाक भी तभी मज़ाक होता है, जब उसमें सामने वाले की सहमति शामिल हो। क्या उस महिला से पूछा गया था कि वह इस “मज़ाक” के लिए तैयार है? अगर यही हरकत किसी आम व्यक्ति ने किसी सार्वजनिक मंच पर की होती, तो क्या उसे भी इसी तरह हल्के में लिया जाता?

यहीं से दोहरे मापदंड का सवाल उठता है। क्या कानून और नैतिकता सत्ता के लिए अलग हैं और आम नागरिक के लिए अलग? क्या महिला सम्मान केवल नारे तक सीमित है और व्यवहार में उसका कोई स्थान नहीं? अगर यही घटना किसी विपक्षी नेता या किसी आम व्यक्ति द्वारा की जाती, तो क्या मीडिया का रवैया यही होता?

इस पूरे मामले में सबसे ज़्यादा परेशान करने वाली बात रही संस्थाओं की चुप्पी। महिला आयोग, जो अक्सर छोटे मामलों पर भी स्वतः संज्ञान ले लेता है, इस मामले में लगभग मौन क्यों है? क्या महिला की गरिमा का सवाल केवल तभी उठाया जाता है, जब मामला सत्ता के अनुकूल हो? क्या महिला सम्मान भी राजनीतिक सुविधा का विषय बन चुका है?

*मीडिया की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। जिन चैनलों और अख़बारों में दिन-रात महिला सुरक्षा पर बहस होती है, वे इस घटना पर उतने मुखर क्यों नहीं दिखे? क्या इसलिए कि मामला सत्ता के शीर्ष से जुड़ा है? अगर यही घटना किसी और राजनीतिक विचारधारा से जुड़े व्यक्ति द्वारा होती, तो क्या यह लगातार सुर्ख़ियों में नहीं रहती?*

मुस्लिम महिला के संदर्भ में यह घटना और भी संवेदनशील हो जाती है। वह पहले ही समाज में कई स्तरों पर सवालों और पूर्वाग्रहों का सामना कर रही है। कभी उसके पहनावे को मुद्दा बनाया जाता है, कभी उसकी आस्था को। ऐसे में जब सत्ता भी उसी पितृसत्तात्मक सोच का प्रदर्शन करे, तो यह संदेश बेहद खतरनाक होता है। यह संदेश जाता है कि महिला की मर्ज़ी, उसकी पहचान और उसकी सहमति सत्ता के सामने महत्वहीन हैं।

अब सवाल सीधे सरकार से पूछे जाने चाहिए। क्या मुख्यमंत्री इस व्यवहार को उचित मानते हैं? क्या उन्हें नहीं लगता कि सार्वजनिक मंच पर किसी महिला की निजी पहचान से छेड़छाड़ करना गलत है? क्या इस कृत्य पर सार्वजनिक माफ़ी की ज़रूरत नहीं बनती? क्या महिला आयोग इस मामले में स्वतः संज्ञान लेगा या फिर चुप्पी ही उसका अंतिम जवाब होगी?

और सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर सत्ता में बैठे व्यक्ति के लिए भी यही आचरण स्वीकार्य है, तो फिर आम समाज को क्या संदेश जा रहा है? क्या यह कहा जा रहा है कि ताक़त मिलते ही मर्यादाएँ खत्म हो जाती हैं?

यह लेख किसी एक व्यक्ति के खिलाफ़ नहीं, बल्कि उस सोच के खिलाफ़ है जो यह मानती है कि सत्ता के सामने महिला की सहमति गौण है। लोकतंत्र तभी जीवित रहता है, जब सवाल पूछे जाते हैं और सत्ता जवाब देने को मजबूर होती है। अगर आज इस घटना को सामान्य मान लिया गया, तो कल यह किसी और महिला के साथ भी हो सकता है।

नक़ाब खींचना केवल कपड़ा हटाना नहीं है। यह सम्मान छीनने जैसा है, यह सहमति की अवहेलना है और यह संविधान की आत्मा पर चोट है। और जब यह सब सत्ता द्वारा किया जाए, तो अपराध और भी बड़ा हो जाता है।

आज ज़रूरत इस बात की है कि हम स्पष्ट कहें कि महिला का सम्मान कोई उपकार नहीं, बल्कि उसका अधिकार है। सत्ता को यह याद दिलाना होगा कि संवैधानिक पद केवल शक्ति नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी भी लेकर आते हैं। लोकतंत्र तभी बचेगा, जब महिला की मर्ज़ी सर्वोपरि मानी जाएगी, चाहे सामने कोई भी हो।

अशरफ हुसैनी

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