जितेंद्र चौधरी
भारत की जनता से महान कवि दुष्यंत के शब्दों में कहता हूं;
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
सपनों की दुनिया में छोटी मोटी गड़बड़ी होती रहती है। अब एक व्यापारी अगर गुंडे, बदमाशों के सपनो को तोड़ेगा तो वही होगा जो फिरोजाबाद में व्यापारी के साथ हुआ। उसे जिंदा जला दिया गया। जंगलराज की यही खौफनाक तस्वीर तो आप चाहते थे। इसी रामराज के लिए तो आपने सरकार को चुना था। अगर ऐसा नहीं है तो जिंदा कौम 5 साल इंतजार नहीं करती, किसी महान राजनीतिज्ञ ने कहा था।
लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, नोएडा और अब सहारनपुर में बच्चियों की अस्मत रोज तार-तार हो रही है। कहीं आंखें निकाली जा रही है, कहीं जीभ काटी जा रही है। देश महिलाओं के लिए बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं रह गया है। सरकार पूरी तरह निश्चिंत है कि उन्हें ध्रुवीकरण करके वोट मिल ही जाएगा। कुछ अपवाद जरूर है। इलाहाबाद की 16 वर्षीय शीषा साहू ने अपनी इज्जत बचाने के लिए दो हरामजादो को मौत के घाट उतार दिया। भारतीय महिलाओं को हथियार उठा लेने ही चाहिए। पुरुष समाज आसानी से मानने वाला नहीं है। मंदिर हो या मस्जिद या आश्रम, सब जगह भेड़िए बैठे हुए हैं। महिलाओं के लिए भगवान के दर सबसे ज्यादा खतरनाक रूप धारण कर चुके हैं। ढोंगियों के जाल में फँस कर हजारों महिलाएं अपनी इज्जत गवां चुकी है।
हर मोर्चे पर सरकार से सवाल पूछने वाले पत्रकार प्रशांत कनौजिया की आवाज को दबाने के लिए सरकार ने उसे जेल में डाल दिया क्योंकि सरकार के पास जवाब देने की हिम्मत नहीं है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर इस तरह का हमला तानाशाही की पराकाष्ठा है। अभिव्यक्ति की आजादी पर ताला है, लोकतंत्र के लिए एक बदनुमा दाग है। हर मोर्चे पर फेल सरकार पत्रकारों की आवाज को दबाकर अपना रसूख कायम करना चाहती है। अर्थव्यवस्था पाताल में चली गई है, चीन देश के अंदर बैठ गया है, नेपाल ने काफी जमीन पर कब्जा कर लिया है और सरकार सोशल मीडिया को काबू कर अपना विजय उत्सव मना रही है।
आगरा में 34 सवारियों सहित एक बस को अगवा करके लोग ले जाते हैं। शुक्र हो इटावा पुलिस का जिन्होंने समय रहते बस को बरामद कर लिया। असुरक्षा की भावना लोगों में इस कदर घर कर गई है कि लोग घर से बाहर निकलने में डर रहे हैं। कहीं पर भी, कोई भी सुरक्षित नहीं है और सरकार सुशासन के ढोल पीट रही है। बेटियों को इज्जत बचाने में मुश्किल आ रही है। युवाओं को रोजगार की मुसीबत है। किसान को फसल का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। पैदल चलते मजदूरों की हालत आप सबने देखी है और अब व्यवसायियों को जलाकर मारने का दुःसाहस, पता नहीं किस के अच्छे दिन आए हैं। बलात्कारियों के, हत्यारों के, अपहरणकर्ताओं के, सत्ता के दलालों के या अडानी अंबानी के अच्छे दिन आए हैं।
सुशांत सिंह की मौत पर हो-हल्ला मचाने वाली मीडिया ने पुलवामा हमले पर बिल्कुल हो-हल्ला नहीं मचाया। सुशांत सिंह के साथ हमारे रियल हीरो, हमारे जवानों को भी इंसाफ मिल जाए अगर उनकी भी सीबीआई जांच हो जाए? पुलवामा हमले में कोई 1-2 नहीं बल्कि 44 जवान शहीद हुए थे और 35 जवान घायल हुए थे। कितनी बहनों का सुहाग उजड़ा था, कितनी माएँ बेऔलाद हुई थी। सीमा पर खड़ा जवान सीने पर गोली खाता रहा पर रुपहले पर्दे पर गोली नहीं खायी, क्या उनका यही गुनाह था? क्या शहीदों के शहादत की निष्पक्ष जांच नहीं होनी चाहिए?
जनता है तो सवाल भी पूछेगी और जवाब भी चाहेगी। जनता सड़क से उठाकर संसद में बैठा सकती हैं तो संसद से घसीटकर सड़क पर भी ला भी सकती है। यह देश के हर राजनेता को याद रखना होगा। जज कॉलेजियम से बनेंगे, लेटरल एंट्री होगी, नौकरियां ठेके पर होंगी और रेलवे स्टेशन और हवाई अड्डे ठेकेदारों के पास और शिक्षा इतनी महंगी कि ईमानदार व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकता। भारत के तथाकथित नीति नियंता आखिर किस तरह का भारत बनाना चाह रहे हैं?