रवीश कुमार
कुछ किताबें शेल्फ पर रखी किताबों की भीड़ से अलग चमकती रहती हैं। चन्नबसवण्णा के सफ़ेद पन्नों पर पीले रंग के ख़ानदान के एक रंग का कोर आकर्षक लगता है। इसलिए यह किताब कई बार सेल्फ से उतर कर मेरे हाथों मे आ चुकी है। कवर का पन्ना खुरदरेपन से मुक्त है। हथेली से किताब ऐसे सरकती है जैसे वक्त। कई बार उतार कर देखकर सेल्फ पर रख चुका हूं। इस बार पढ़ने लगा। किताब के भीतर की बातों पर बात फिर कभी। इसके रचनाकार प्रो काशीनाथ अंबलगे ने 12 वीं सदी के कन्नड साहित्य की थाती हमारे सामने रख दी है। उनकी मेहनत पर अलग से बात होगी। आज बात सिर्फ इस किताब के बहाने किताबों की बाह्य ख़ूबसूरती पर होगी।
कई बार मुझे लगता है कि किसी किताब की समीक्षा दो लोग करें। एक किताब के भीतर के कंटेंट की और दूसरा किताब के बाहरी रंग-रूप की करे। किताब का बाहरी आकार और कवर और पन्नों पर डिज़ाइन एक कला है। हम इसे यूं ही जाने देते हैं। जब पहली बार इश्क में शहर होना छप कर आई थी तो वह भीतर से कहीं ज्दा बाहर से ख़ूबसूरत थी। उस पहले संस्करण का आकार और कवर कुछ नया कह रहा था। हर किताब के आकार की अपनी एक परंपरा बनती चली जाती है। मुमकिन है कि वो पहले से चली आ रही किसी अनाम परंपरा का हिस्सा हो मगर यह भी मुमकिन है कि बिल्कुल नई शुरूआत हो। इसलिए किताबों के बनने की प्रक्रिया की समीक्षा होनी चाहिए। ऐसी अनेक किताबें है जो इन ख़ूबियों के कारण मेरी पसंद बनी हैं।
किताबों के कवर के कलाकारों को हम कभी जान नहीं पाते हैं। उनकी डिज़ाइन और छपाई पर कोई लेख तक नहीं दिखता। काश कोई होता तो राजकमल के सत्यानंद और सीगलबुक्स की सुनंदिनी की कलकारी की समीक्षा करता। बेशक एक टीम होती है लेकिन ऐसी समीक्षाओं से उस टीम का भी मनोबल बढ़ता कि वे सिर्फ क्लिप बोर्ड में दबाए गए पन्नों और उन्हें लैंप की गहरी रौशनी में टाइप करने वाले जंतु नहीं हैं। स्पीकिंग टाइगर्स के रवि के भीतर भी इस तरह की बेचैनियां देखी हैं। उनकी हथेली में किताबें अलग तरीके से खेलती हैं। उसे देखकर ही आप समझ जाएंगे कि प्रकाशक अपनी रचना से कितना ख़ुश है। जिसे बाज़ार की भाषा में सिर्फ प्रोडक्ट कहा जाता है। सीगल बुक्स के ही नवीन किशोर हैं। उनकी भेजी तस्वीरों को देखकर यही लगता है कि वे हर चीज़ में एक किताब का कवर खोज रहे हैं। उनका कैनवस किताब का कवर है। मैंने चंद नाम लिए क्योंकि इन्हीं दो को जानता हूं मगर और भी लोग होंगे जिनके बारे में जानना चाहता हूं।
पाठक का किताब से पहला संबंध इन्हीं अहसासों से बनता होगा। हाथ में आते ही इंद्रयों की अनुभूतियों में वह कैसे दर्ज होती होगी यह इस पर निर्भर करता है कि किताब बनाने वाली टीम ने कैसी कल्पना की है। किस तरह से दर्ज होना चाहा है। कई बार साधारण सी छपाई भी उसे असाधारण बना देती है। चन्नबसवण्णा को हाथों में पलटते हुए यही लगा कि अब हर किताब में संपादक की टीम की टिप्पणी होनी चाहिए कि उस किताब को इस आकार में क्यों ढाला गया और कवर से लेकर पन्नों की डिज़ाइन के पीछे क्या सोच थी। उसकी परंपरा क्या है, उसमें नया क्या है। अपने काम से प्यार होना चाहिए और प्यार का इज़हार होना ग़ैर ज़रूरी नहीं है।
ऐसी किताब तब बनती है जब आप रचना की ख़ूबसूरती को समझते हैं। राजकमल प्रकाशन की कई किताबें मुझे इसलिए भी पसंद आती हैं कि वो बिना खटका किए खुलती हैं। शब्दों के प्रिंट और पन्ने की साफ-सफाई अच्छी होती है।
अक्सर सोचता हूं किताब पढ़ने से पहले उसे हाथ में लेने और फ़िर खोलने की नफ़ासत होनी चाहिए। सलीक़ा आना चाहिए। जो किताब इस पैमाने पर खरी नहीं उतरती है, लगता है कि किसी ने रूटीन काम किया है और रचना के महत्व को इतना ही समझा है कि किसी तरह छाप दो। उनकी इस लापरवाही से अच्छी रचनाओं को पढ़ने से पहले ही मन उखड़ जाता है। शायद यही कारण है सीगल बुक्स की किताबें मुझे पसंद हैं।
पन्नों पर अलग अलग रंग की बूंदे छिड़की होती हैं। शब्दों के प्रति प्यार दिखता है। मुमकिन है कि एक पूरे ख़ाली पन्ने पर दो ही शब्द हों। कई किताबों को पलटते हुए लगता है कि किसी पेंटिंग को देख रहा हूं। छपाई का अंदाज़ ऐसा है कि बड़े लेखक की किताब होती है लेकिन लगता है कि ये किसी प्रकाशक की किताब है। सीगल की किताब है। वही अहसास राजमकल की कई किताबों में होता है। राजकमल की एक और किताब है लोकदेव नेहरू। रामधारी सिंह दिनकर की लिखी हुई। कवर पर उस समय के मिज़ाज की झलक मिलती है। प्रिंसटन प्रकाशन की एक किताब है A PEOPLE’S CONSTITUTION, रोहित डे की, इस किताब का कवर भी बहुत प्यारा है।