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अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की न सूझी, इंसानी ज़हनों को ग़ुलाम बनाने के लिए तालीम एक असरदार हथियार है : कलीमुल हफ़ीज़

ये एक अटल हक़ीक़त है कि इंसानी ज़हनों को ग़ुलाम बनाने के लिए तालीम एक असरदार हथियार है हम अपनी आँखों से देख रहे हैं कि इंसानी जिस्मों पर ब्रिटिश राज के ख़त्म होने के बावजूद उनकी भाषा, उनकी संस्कृति और उनकी सोच सर चढ़कर बोल रही है। किसी देश की राष्ट्रीय शिक्षा नीति उस देश का भविष्य तय करती है।आज़ादी के बाद देश की जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Educational Policy) बनाई गई उसमें नागरिकों की भाषा, संस्कृति, पहचान और धर्म का ख़ास ख़याल रखा गया। एक लम्बे समय तक इसी स्प्रिट के साथ एजुकेशन सिस्टम चलता रहा। सरकार की सरपरस्ती में नई नस्लें शिक्षा पाती रहीं और देश की सेवा करती रहीं। जिन लोगों को सरकारी सिस्टम से मतभेद रहा, उन्होंने दो काम किये। एक यह कि सरकारी एजुकेशन सिस्टम ख़ास तौर पर प्राइमरी स्कूलों के सिस्टम को बर्बाद कर दिया। दूसरा काम यह किया कि अपनी सोच और विचारधारा के अनुसार स्कूलों का जाल बिछा दिया। मुसलमान सरकारी संस्थाओं पर डिपेंड होकर बैठे रहे। उन्होंने केवल मज़हबी तालीम के लिये मदरसे क़ायम किये वो भी इसलिये कि सेक्युलर सरकार मज़हबी तालीम का ज़िम्मा उठाने को तैयार नहीं थी और मस्जिदों की इमामत और मज़हबी रस्मों की अदायगी के लिये हाफ़िज़ों और आलिमों की ज़रूरत थी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ज़रूरत के हिसाब से बदलाव होते रहे, पहली बार 1968 में, उसके बाद 1986 में और बाद में बदलते हुए हालात के अनुसार बदलाव भी हुए। उसके बाद अब 34 साल बाद पॉलिसी में बड़े पैमाने पर बदलाव किये गए हैं। नई शिक्षा नीति बन गई है। इसे पब्लिक भी कर दिया गया है। अब इसकी रौशनी में एक्शन-प्लान बनाया जाएगा। यह काम केन्द्र और राज्य सरकारें करेंगी। हम जानते हैं कि इस समय जिन लोगों की सरकार है उन्होंने सरकारी एजुकेशन सिस्टम के मुक़ाबले में अपना एजुकेशन सिस्टम और सिलेबस पहले तैयार किया था। उसको पूरे देश में लागू भी किया था, इसी एजुकेशन सिस्टम से फ़ायदा उठाए हुए लोग हर जगह बिराजमान हैं। इसलिये नई शिक्षा नीति में बहुत कुछ वही है जिसको वो चाहते थे, इसका सुबूत यह है कि संघ की एजुकेशनल आर्गेनाइज़ेशंस ने पॉलिसी का स्वागत करते हुए कहा है कि “हमारी 80% रायें मान ली गई हैं।” किसी भी देश में अल्प-संख्यकों को अपने वुजूद को बाक़ी रखना एक बड़ा मसला होता है। ख़ास तौर पर उस देश में जहाँ फासीवादी विचाधारा का शासन हो। इन हालात में अल्प-संख्यकों को जागते हुए सोना पड़ता है। उन्हें अपने वुजूद के लिये हर क़दम पर जंग लड़नी पड़ती है। वरना एक-एक करके चीज़ें उनके हाथ से निकल जाती हैं।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछ बातें तारीफ़ के क़ाबिल हैं। मिसाल के तौर पर शिक्षा तक सबकी पहुँच, शिक्षा के समान अवसर, अध्यापकों के चयन में पारदर्शिता और उनकी उन्नति में उनकी योग्यता का देखा जाना, व्यवसायिक,  पेशेवराना शिक्षा और कृषि शिक्षा पर ज़ोर, शिक्षा में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल, प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था, भारतीय भाषाओं का विकास, बच्चों के शारीरिक विकास के लिये स्कूलों में स्वास्थ्य कर्मियों का चयन, शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाने की वकालत, मातृ भाषा में प्राइमरी एजुकेशन, डिग्री कॉलेजों और युनिवर्सिटियों के अधिकारों का बढ़ाया जाना, शिक्षा से वंचित लोगों के लिये एजुकेशन ज़ोन बनाया जाना। अगर इन सब बातों पर अमल किया गया तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है।

नई नीति के अनुसार अर्ली-चाइल्डहुड एजुकेशन को भी क़बूल कर लिया गया है। अभी तक ग़ैर-सरकारी स्कूलों में नर्सरी क्लासें लगाई जाती थीं। अब फ़र्स्ट क्लास से पहले की तीन क्लासें सरकारी स्कूलों में भी लगेंगी। ये एक अच्छा क़दम है। इससे प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर लगाम लगेगी। लेकिन पहले से ही चौपट प्राइमरी सिस्टम क्या तीन साल की उम्र के बच्चों को एजुकेशन दे पाएगा? यह एक बड़ा सवाल है। इसी के साथ बच्चों की हेल्थ के लिये मिड डे मील के साथ नाश्ता भी दिया जाएगा। ज़ाहिर है यह भी अच्छा क़दम है अलबत्ता डर यह है कि स्कूल कहीं रेस्टोरेंट बनकर न रह जाएँ। नई नीति की अच्छी बातों में से ग्रेजुएशन और बी-एड कोर्स चार साल का किया जाना भी है। इससे शिक्षा का स्तर बढ़ेगा। यह भी तारीफ़ के क़ाबिल है कि ग्रेजुएशन को बीच में छोड़ने से भी बच्चों को कोई नुक़सान नहीं होगा, उन्हें कम से कम सर्टिफ़िकेट तो मिल ही जाएगा।

नई शिक्षा नीति को इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड की बनाने के लिये अब साइंस, आर्ट और कॉमर्स ग्रुप वग़ैरह भी ख़त्म कर दिये गए हैं। बच्चे को अपनी पसन्द के विषय चुनने की आज़ादी दी गई है। एग्ज़ाम की पॉलिसी में भी पॉज़िटिव बदलाव किये गए हैं। टीचर्स के अपॉइंटमेंट और उनको अपडेट रखने के साथ-साथ उन्हें नई ज़रूरतों के तहत रिज़ल्ट-ओरिएंटेड बनाने पर ख़ास तवज्जोह दी गई है।

नई शिक्षा नीति में जिस पैमाने पर पॉलिसी में बदलाव किये गए हैं और जिस बड़े पैमाने पर लोगों की और रिसोर्सेज़ की ज़रूरत पड़ेगी वो कहाँ से आएँगे?हालाँकि सरकार ने GDP का 6% ख़र्च करने की बात कही है, लेकिन जहाँ 3% रक़म भी मयस्सर न हो वहाँ 6% कहाँ से आएँगे? नए सिस्टम में पहली क्लास से पहले भी तीन क्लासें होंगी, स्पेशल सब्जेक्ट्स की क्लासेज़ होंगी, मातृ भाषा और क्षेत्रीय भाषा के टीचर्स भी चाहिये होंगे, वोकेशनल एजुकेशन भी छटी क्लास से दी जाएगी, इन सबके लिये स्कूल की बिल्डिंग, टीचर्स और एक्सपर्ट्स की ज़रूरत होगी और जिस देश में टीचर्स की एक तिहाई सीटें पहले से ही ख़ाली हों, कई स्टेट्स में टीचर्स को तनख़ाहें देने के लाले पड़ रहे हों, वहाँ नई भर्ती के लिये रक़म कहाँ से आएगी?

नई शिक्षा नीति मदरसा एजुकेशन पर बिलकुल ख़ामोश है। जबकि देश की शिक्षा तथा साक्षरता में मदरसों का अहम् रोल रहा है। ख़ुद सरकारी बोर्डों के तहत हज़ारों मदरसे चल रहे हैं। इसके बावजूद मदरसों के बारे में पॉलिसी के अन्दर कोई ज़िक्र न करना अजीब मालूम होता है। जबकि पॉलिसी के ड्राफ्ट में मदरसा एजुकेशन का ज़िक्र था। इसका एक मतलब तो यह है कि मदरसे ज्यों का त्यों अपना सिस्टम चलाने में आज़ाद होंगे। या फिर मदरसों को देश के एजुकेशन सिस्टम का हिस्सा तस्लीम नहीं किया जाएगा। इसी तरह छः अंतरराष्ट्रीय भाषाओं (संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रमाणित अंतरराष्ट्रीय भाषाएँ) में से दो भाषाओं अरबी और चाइनीज़ को छोड़ दिया गया है। जबकि आधी दुनिया ये दोनों भाषाएँ बोलती है। यह रवैया संकीर्ण मानसिकता की पहचान है। विश्व-गुरु की पोज़िशन हासिल करनी है तो दिल बड़ा करना होगा। पूरी पॉलिसी में प्राचीन सभ्यता का बार-बार ज़िक्र किया गया है। इससे ख़तरा यह है कि कहीं एक हज़ार साल से चले आ रहे इतिहास को सिलेबस से बहार न कर दिया जाए।

हर बार की तरह नई शिक्षा नीति में भी यह बात दोहराई गई है कि प्राइमरी एजुकेशन मातृ भाषा या क्षेत्रीय भाषा में दी जाएगी। बल्कि इस बार इसको जूनियर तक करने का ज़िक्र किया गया है। लेकिन हम देखते हैं कि हिन्दी-भाषी राज्यों में इसकी कोई व्यवस्था नहीं की जाती। उत्तर प्रदेश जहाँ उर्दू बोलने वालों की संख्या 19% है और पाँच करोड़ लोगों की मातृ-भाषा उर्दू है, उर्दू को दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा हासिल है। वहाँ एक भी उर्दू मीडियम स्कूल नहीं है। मातृ भाषा के साथ क्षेत्रीय भाषा कहकर भी शंकाएँ पैदा की गई हैं। पॉलिसी के अन्दर हिन्दुस्तानी भाषाओं की लिस्ट में उर्दू का ज़िक्र तक नहीं किया गया है। जबकि उर्दू कई राज्यों की दूसरी भाषा है। लिट्रेचर का बड़ा सरमाया उर्दू में मौजूद है। उर्दू के 400 से ज़्यादा अख़बार प्रकाशित होते हैं, उर्दू के बग़ैर भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ जैसे बॉलीवुड, संगीत वग़ैरह अधूरी हैं। उर्दू भाषा के लिये यह बड़े ख़तरे की घंटी है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बन गई है अब एक्शन-प्लान बनेगा, एक्शन प्लान का समय भी तय कर दिया गया है, पूरी पॉलिसी कई चरणों में लागू होगी और 2040 तक पूरी होगी। मेरी सरकारों से अपील है कि वो भारत की लोकतान्त्रिक स्प्रिट को बाक़ी रखते हुए एक्शन-प्लान बनाएँ। शिक्षा के मैदान में असमानता को ख़त्म करें। पॉलिसी लागू करने के लिये जो मिशन, बोर्ड और आयोग बनाए जाएँ उनमें मुसलमानों को नुमाइन्दगी दी जाए। जहाँ स्कूल कम हैं स्कूल बनाए जाएँ। टीचर्स की ख़ाली जगहों को भरा जाए। मदरसों के ज़िम्मेदार लोग भी वक़्त के तक़ाज़ों को समझें, आधुनिक विषयों को अपने सिलेबस में शामिल करें, मदरसा एजुकेशन सिस्टम को इस तरह अपग्रेड करें जिससे देश को एक और एजुकेशन सिस्टम मिल जाए। मेरी एजुकेशनल एक्सपर्ट्स, ख़ास तौर से मुसलमान आलिमों और दानिशवरों (बुद्धिजीवी वर्ग) से गुज़ारिश है कि वो पालिसी का गहराई से अध्ययन करें, तवज्जोह के क़ाबिल बातों की निशानदेही करके सम्बन्धित सरकारों को आगाह करें, एक्शन-प्लान के बनने में अपना रोल अदा करें। जिन क़ौमों के लीडर्स ये काम करेंगे उन क़ौमों को उनका हिस्सा भी मिल जाएगा और उनकी चिंताएं भी दूर कर दी जाएँगीं और जो ख़्वाबगाहों (बन्द कमरों) में रह जाएँगे वो ख़्वाब देखते रह जाएँगे।

यूँ क़त्ल से बच्चों के वो बदनाम न होता।

अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की न सूझी॥

(कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली)

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