हफ़ीज़ किदवई

आज के दिन बताइये रोएँ या खुश होएं।एक तरफ है एक कलम जो दुनिया में दस्तक देने आ रही तो दूसरी तरफ चली हुई कलम की आवाज़ की रूह दुनिया को अलविदा कह जा रही। एक तरफ क़िस्से खुद को कहने की क़तार में खड़े होने को बेचैन हैं तो दूसरी तरफ क़ुदरत की आवाज़ ज़मीन में दबने को तैयार। एक स्याही में डूबकर एहसास में भीगे लफ्ज़ बिखेरने आज ही आया और एक है जो स्याही से दर्ज़ एहसास को झंकार देकर यूँ ही हवा में तैराकर ख़ामोश हो गया ।

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एक फटे जूते पहनकर समाज की खुली सीवन को टांकता गया तो दूसरा बेचैन,टूटते,बिखरते दिलों को आवाज़ देकर मुक़म्मल दिल बनाता हुआ चला गया। आज का दिन खास है।आज का दिन दो जिस्मों के लिए एक ज़मीन पर आने जाने का दिन है। दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत ज़मीन जिस पर आज के ही रोज़ एक शब्दों का चरवाहा आया था और उसी धरती से आज के रोज़ एक गायक जिसकी आवाज़ प्रकृति की हर शै पर असर करती थी,चला गया था ।

आज प्रेमचन्द की पैदाइश तो मोहम्मद रफ़ी की रुखसती का दिन है। एक ने हमीद के हाथ में चिमटा पकड़ा कर ईदगाह को उकेरा तो दूसरे के गले से फूटा भजन हर मन्दिर के गलियारे में फैल गया।दोनों ने अपने फ़न की बुलन्दी को छूकर भी दिल और दिमाग को ज़मीन पर रखा,यही तो इनकी ख़ासियत है।

मेरी ज़िन्दगी को तराशने में रफ़ी और प्रेमचन्द दोनों को बड़ा हाथ है। एक ने मुझे लिखना सिखाया तो दूसरे ने रूह को इतना नरम बनाया की उसमे ग़ुरूर,झगड़ा,बदला सब ख़त्म होकर संगीत उभरा। इस पर भी दोनों ने कभी अँगूठा नही माँगा।

मैं रफ़ी के गाँव में मौजूद उस वक़्त को याद करते करते रो देता हूँ जब एक फ़क़ीर को अपनी आवाज़ सुनाने को बेचैन रफ़ी,दरवाज़े की ओट लगाए खड़े थे। फ़क़ीर ने एक गीत गाया,तेज़ दिमाग और मखमली ज़ुबान के रफी ने उस गीत को सुनते ही याद कर लिया और पलट कर फ़क़ीर को जब सुनाया तो फ़क़ीर उनको सुनता जाता और कहता जाता कि तू बहुत ऊंचाई पर जाएगा क्योंकि तेरी आवाज़ में ख़ुदा है।

रफी ने घर छोड़ा, मैं रफ़ी को यूँ घर छोड़ते भी सिसक जाता हूँ, जब बाप ने कहा की ठीक है, तुम मुम्बई जाओ मगर तब ही लौटना जब कामयाब होना वरना भूल जाना यह दर ओ दीवार।

मैं मुम्बई से हारकर लौटे प्रेमचन्द को भी देख मायूस हो जाता हूँ। मगर यहाँ उनकी अपनी कोशिश पर हिम्मत आती है। फटे जूते किसी से ग़ुरबत की शिकायत भले करें, मगर माथे पर बिखरी लकीरें अफ़साना निगार की गहराइयों की चुगली करती रहती थीं। उनका अपने बेटे को लिखा वह पत्र आज भी कोई कॉपी नही कर पाएगा, जिसमे वह कह रहे, देखो, तुम्हारे चाल चलन से सहपाठियों को यह एहसास न हो कि तुम बेहतर ज़िन्दगी गुज़ार रहे हो, उन पर इस बात का रौब भी न आने पाए कि तुम चोटी के साहित्यकार के बेटे हो,सादे,सरल और मृदभाषी रहना।

ख़ैर आज प्रेमचन्द और रफ़ी साहब दोनों को एक साथ मिलाकर महसूस करने का दिन है। हमारी ज़मीन के ख़ुबसूरत आँगन में आज प्रेमचन्द ने पाँव रखे तो रफ़ी उस आँगन में सुर बिखेर कर आगे बढ़ गए।जन्मतिथि और पुण्यतिथि में आज एक सा खालीपन है। प्रेमचन्द रफ़ी की आवाज़ सुनकर मुस्कुरा रहें हैं तो रफ़ी प्रेमचन्द के अल्फ़ाज़ों को आवाज़ देकर गीत बना रहें हैं। यहाँ मैं उनकी आवाज़ को सुन रहा हूँ,वह प्रेमचन्द को आज गा रहे हैं,जब किस्से गीत की शक्ल ले लें तब दुनिया का सबसे खूबसूरत संयोग बनता है, यह वक़्त भले आया न हो मगर सोचा तो जा ही सकता है । एक लेखक,एक गायक और दोनों को जोड़ती मोहब्बत की डोर, जो कह रही,हे भारतवासियों! आपस में मिलजुल कर प्रेम से रहना,आज भी जो इस डोर को थामेगा वही इनके पीछे चलने वाला कहलाएगा….

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