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पुण्यतिथि विशेष: मशहूर शायर साहिर की माँ से मुहब्बत को बयान करता हफ़ीज़ किदवई का लेख

पुण्यतिथि विशेष: मशहूर शायर साहिर की माँ से मुहब्बत को बयान करता हफ़ीज़ किदवई का लेख

ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव को कैसे चाव से जिया जाता है, कोई साहिर से सीखे। वह साहिर जिसकी ज़िन्दगी ने कभी सुक़ून के दो पल भले न दिए हों, मगर शोहरत का ऊँचा आसमान ज़रूर दिया है। मैं साहिर की शायरी,दोस्तों के रवैये और डर और निडर होने के बीच फंसी उनकी रूह पर लिख सकता हूँ, मगर मेरे लिए साहिर की ज़िन्दगी में शामिल उस औरत के लिए लिखना ज़रूरी लगता है, जिसकी वजह से साहिर को कोई औरत मुकम्मल ही नही जान पड़ी।

जब अब्दुल हई अपने बाप के रूखेपन और अक्खड़पन से आजिज़ होकर मां के एक फैसले पर,मां के साथ चल पड़ा,तो किसी ने नही सोचा था कि जो बच्चा आज मां का दामन थाम रहा,वह ज़िन्दगी में किसी दूसरे दामन को उससे मज़बूत तरीके से नही पकड़ेगा। मां सरदारी बेग़म की ज़िन्दगी की कड़वाहट को साहिर ने करवट करवट शीर में बदलने की बहुत कोशिश की,साहिर दुनिया का वह पहला शायर था या कहिए कि आखरी शायर था,जिसने जो भी शेर कहे,अपनी माँ के सामने कहे।

मां के बिना वह कभी मुशायरे में नही जाते,लखनऊ के भी मुशायरे में वह अपनी मां को साथ लाए और वह सरदारी बेगम थीं,जो हमेशा देर रात तक जागकर मुशायरे में साहिर को हौसला देती। जब देश जा बंटवारा हुआ और साहिर पर पाकिस्तान में गिरफ्तारी की तलवार लटकी,तो जैसे तमाम प्रगतिशील लोग भारत आ रहे थे, साहिर भी आए मगर दूसरों से जुदा, वह अपनी मां को अपने साथ लाए। वह क़ैद से डरते थे,इसलिए नही कि जेल की सलाखें उन्हें कमज़ोर कर देंगी, बल्कि इसलिए कि मां उनके साथ नही होगी,वह अकेली हो जाएगी। सरदारी बेग़म के साए की तरह वह साथ रहते।

सरदारी बेगम

सरदारी बेगम को साथ लेकर वह शर्लक होम्स की ड्रेस पहनकर,नाम बदलकर चुपचाप भारत आए। दिल्ली में मां के साथ रहे तो जब मुम्बई गए, तो मां को साथ ले गए। जब साहिर शराब में डूब जाते,तो मां के कमरे में दाखिल होते, अपनी ज़िंदगी के तमाम ज़हर को उनके सामने उगल देते और जब मां सर पर हाथ फेर देती,तो वहीं उनके पांव के पास सो रहते।

कहते हैं साहिर दुनिया की कोई गलती करके आएं,सरदारी बेगम के सामने सब कह देते। साहिर की ज़िंदगी का हर सच वह जानती थीं। साहिर की ज़िंदगी मे एक औरत की कमी देखती,उसकी मोहब्बत को समझने की कोशिश करती मगर साहिर की बेचैन आंखों में जो साँचा सरदारी बेगम की तरह के तसव्वुर को खोजता था,वह कभी नही मिला। जावेद अख्तर अक्सर कहते हैं कि साहिर की ज़िंदगी में मां सरदारी बेग़म की शक्ल में जो औरत आई, वह उनकी ज़िंदगी मे आने वाली हर औरत पर भारी पड़ जाती और साहिर कभी उस छाँव से बाहर नही निकल पाए,जो उन्होंने बचपन में उंगली पकड़कर शुरू किया था।

मैं साहिर की अपनी माँ से की गई मोहब्बत से बहुत मुतास्सिर रहा हूँ। उनकी शायरी,उनके गीत, उनके ख्याल,उनके दोस्ताना रवैय्ये,उनकी मोहब्बतें सब पर दिल ठहरता है मगर दिल अटक जाता है जाकर साहिर और सरदारी बेग़म के साथ पर,एक बच्चे और एक मां की अटूट मोहब्बत पर,अपने अपने हिस्से की मोहब्बत को गंवा चुके,दो भूखे लोगों के ताउम्र साथ बैठने पर,मेरा दिल साहिर के लिए तड़पता है, क्योंकि उसके दिल की बेचैनी को बहुत नजदीक से देखा है। माँ की मोहब्बत से खाली बेटे और बेटे की मोहब्बत से बेचैन माँ को तड़पते देखा है, इसलिए साहिर लगता है, हमारे बीच हैं। आज साहिर की पुण्यतिथि है, दिल की गहराइयों से उन्हें सलाम, उनकी मां को सलाम और उस ज़माने को सलाम जिसने साहिर को पलको पर बैठाया।

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लेखक: हफ़ीज़ किदवई

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