कलीमुल हफ़ीज़
इन्सान के लिये तालीम हासिल करने का अमल उसकी पैदाइश के साथ ही शुरू हो गया था। जब पैदा करने वाले ने पहले इन्सान को ख़ुद से कुछ नाम सिखाए थे और फ़रिश्तों से तालीमी मुक़ाबला (Competition) कराया था तो हज़रते-इन्सान ने वो मुक़ाबला जीत कर फ़रिश्तों को हैरत में डाल दिया था। मुसलमानों ने शुरू से ही तालीम का दामन थामे रखा है। सारी दुनिया जब जिहालत में थी तब भी मुसलमान इल्म की रौशनी से फ़ायदा उठा रहे थे। और आज सारी दुनिया तालीम के क़ुमक़मों (दीप) से जगमगा रही है तब भी मुसलमानों के एजुकेशनल इंस्टीटूट्स इल्म की मशाल रौशन किये हुए हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि मुसलमानों ने अपने एजुकेशनल सिस्टम में वक़्त के साथ उतने बदलाव नहीं किये जितने की ज़रूरत थी।
एक वक़्त तक तो वे ज़माने के साथ चले फिर उन्होंने रिवायतों का रास्ता अपना लिया। एक वक़्त था जब मुसलमानों ने अपनी ज़िन्दगी को अल्लाह के बन्दों के लिये वक़्फ़ और समर्पित (Devote) कर रखा था। उन्होंने इल्म को अलल-अलग ख़ानों में नहीं बाँटा था। उनके यहाँ इन्सानों को फ़ायदे पहुँचाने वाले सारे काम इबादत में गिने जाते थे। जब उन्होंने क़ुरआन की यह बात सुनी कि “ज़मीन में सैर करो” तो इस आयत पर अमल करते हुए उन्होंने भूगोल और इतिहास के मैदान में ज़बरदस्त काम किया था। जब उन्होंने सुना कि क़ुरआन का हुक्म है कि “कायनात में और अपने ऊपर सोच-विचार करो” तो उन्होंने शरीर विज्ञान (Physiology) और खगोल विज्ञान (Astronomy) में डुबकियाँ लगाई थीं। जब क़ुरआन ने उन्हें यह कहकर तवज्जोह दिलाई कि “क्या इन्होंने ग़ौर किया कि ऊँट को किस तरह बनाया गया?” तो वे जन्तु विज्ञान (Animal Science) के संस्थापक बने, जब तवज्जोह दिलाई गई कि “क्या तुमने आसमान पर ग़ौर किया कि कैसे बुलन्द किया गया?” तो उन्होंने आसमान में कमन्दें डाल दीं। इसके नतीजे में वे एक तरफ़ क़ुरआन के न केवल अच्छे पढ़ने वाले बन गए बल्कि क़ुरआन और हदीस के एक अच्छे व्याख्याकार बने बल्कि दूसरी तरफ़ वे बहुत अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर और साइंटिस्ट भी बने। इल्म और तालीम की इमामत ने उन्हें दुनिया का इमाम और लीडर बनाए रखा। यह वह दौर था जब एजुकेशनल इंस्टिट्यूट, जिन्हें आम भाषा में मदारिस कहा जाता है। तमाम सब्जेक्ट्स की एजुकेशन देते थे। वहाँ क़ुरआन और हदीस के साथ-साथ भूगोल, इतिहास, साइंस, मेडिकल साइंस और फ़िलॉसोफ़ी की तालीम भी होती थी।
ज़माने की रफ़्तार के साथ एजुकेशनल सिस्टम में सुधार न होने की वजह से, मदरसों और एजुकेशनल इंस्टिट्यूट्स की तादाद ज़्यादा होते हुए भी हम दुनिया की इमामत से महरूम कर दिये गए। जबकि हमारी बराबर की क़ौमों ने अपने एजुकेशनल सिस्टम में ज़माने के मुताबिक़ बदलाव करके इमामत का मक़ाम हासिल कर लिया। एक ज़माना था जब गुरुकुल और मदरसों का सिस्टम एक जैसा था। स्टूडेंट्स का रहन-सहन और उठ-बैठ लगभग एक जैसी थी। संसाधनों (resources) और एजुकेशन के टूल्स में भी कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं था, क़लम-दवात और तख़्ती दोनों जगह थी। फिर ज़माने ने करवट ली और गुरुकुल ने ख़ुद को ज़माने के साथ कर लिया। उसने नई टेक्नोलॉजी से फ़ायदा उठाया और हम देखते रह गए। शिशु मन्दिर और विद्या मन्दिर भी ऐसे ही धार्मिक शिक्षा केन्द्र हैं, जैसे हमारी सोसाइटी में मदरसे और दरसगाहें हैं, लेकिन हर कोई एक नज़र डालते ही दोनों में बड़ा फ़र्क़ देख सकता है। इसकी वजह सिर्फ़ यह है कि हमने इल्म को दीन और दुनिया में बाँट दिया है। जब तक यह बँटवारा जारी रहेगा और जब तक हमारे अन्दर इन्सानियत के फ़ायदे की फ़िक्र पैदा नहीं होगी। तब तक न सिर्फ़ दुनिया की इमामत से महरूम रहेंगे बल्कि ज़लील और अपमानित भी होते रहेंगे।
एजुकेशन सिस्टम में सुधार का जब भी ज़िक्र आता है, हमारे क़लम की नोक पर मदरसों और आलिमों का नाम आता है। ऐसा मालूम होता है कि जैसे इनके अलावा बाक़ी सब ठीक हैं। हमारे एजुकेशनिस्ट्स मदरसे वालों को अपने सिलेबस में मॉडर्न एजुकेशन के सब्जेक्ट्स शामिल करने के मशवरे देते हैं लेकिन कॉलेज और स्कूलों में दीनी तालीम को लाज़िमी तौर पर शामिल करने का मशवरा बहुत ही कम किसी की ज़बान पर आता है। जबकि जितनी ज़रूरत मदरसों के स्टूडेंट्स को मॉडर्न एजुकेशन की है उससे ज़्यादा ज़रूरत कॉलेज और स्कूल के स्टूडेंट्स को दीनी तालीम की है। ख़ुशी की बात यह है कि मदरसे वाले ख़ुद भी एक मुद्दत से सुधार की ज़रूरत महसूस कर रहे हैं। इस सब्जेक्ट पर सेमिनार वग़ैरह भी होते रहते हैं। कुछ मदरसों में सुधार भी हुए हैं। लेकिन जिस बड़े पैमाने पर सुधार की ज़रूरत है उसकी कमी है। अफ़सोसनाक पहलू यह है कि मॉडर्न स्कूलों के ज़िम्मेदारों को न इसका एहसास है और न उन्हें कोई एहसास कराता है।
मुसलमानों के एजुकेशन सिस्टम में मौजूदा वक़्त के मुताबिक़ बड़े सुधारों की ज़रूरत है। मिसाल के तौर पर अख़लाक़ी तालीम (Moral Education) को सिलेबस का लाज़िमी (Compulsory) हिस्सा बनाया जाए। बड़ों का अदब, छोटों से मुहब्बत, एक-दूसरे की इज़्ज़त और सम्मान, आपसी मदद, इन्सानियत के तहफ़्फ़ुज़ (Protection) की फ़िक्र जैसी मोरल वैल्यूज़ स्टूडेंट्स में पैदा की जाएँ। मॉडर्न स्कूलों में एक्स्ट्रा क्लासेज़ लगाकर क़ुरआन और इस्लाम की बुनियादी तालीम का इन्तिज़ाम करना चाहिये। कॉलेजों में एक्स्ट्रा लेक्चर्स के ज़रिए इस्लाम और मुसलमानों के मक़ाम और हैसियत पर बातचीत करनी चाहिये। मदरसों के सिलेबस में ज़रूरी मॉडर्न सब्जेक्ट्स की एजुकेशन अच्छे स्टैण्डर्ड के मुताबिक़ दी जानी चाहिये, कोशिश की जानी चाहिये कि मदरसों के स्टूडेंट्स अपने राज्य के सरकारी शिक्षा बोर्ड के ज़रिए कराए जाने वाले एग्ज़ाम्स में बैठ सकें और अच्छे नम्बरों से कामयाबी हासिल कर सकें। एक हाफ़िज़े-क़ुरआन आठवीं, एक मौलवी दसवीं और एक आलिम बारहवीं क्लास के वही एग्ज़ाम पास करे जो उस राज्य के आम स्टूडेंट्स करते हैं। एजुकेशन मेथडोलोजी में मॉडर्न टेक्नोलॉजी को इस्तेमाल में लाया जाए। टीचर्स की ट्रेनिंग का इन्तिज़ाम किया जाए। ये भी किया जा सकता है कि एक बस्ती और शहर के तमाम एजुकेशनल इंस्टिट्यूट्स एक आर्गेनाईज़ेशन बनाएँ, मशवरे, आपसी तालमेल और मदद से काम करें। मदरसों के स्टैण्डर्ड को ऊँचा बनाए रखने के लिये एक जैसी फ़िक्र रखने वाले मदरसे एन्ट्रन्स टेस्ट, एग्ज़ाम्स और टीचर्स के अपॉइंटमेंट्स और ट्रेनिंग के लिये अपना एक बोर्ड बना कर काम करें तो बेहतर नतीजों की उम्मीद की जा सकती है। इन सुधारों से एजुकेशनल इंस्टिट्यूट्स की कमी के मसले पर क़ाबू पाया जा सकेगा। इस तरह हर स्कूल को मदरसा और हर मदरसे को स्कूल बनाया जा सकेगा।
स्कूल और मदारिस के फ़र्क़ को कम भी किया जा सकेगा और मुसलमान देश की मुख्य धारा के साथ मुल्क और क़ौम की ख़िदमत भी कर सकेंगे। ये सुधार नामुमकिन नहीं हैं। बहुत-से स्कूल और मदरसे इन पर अमल कर रहे हैं। अलबत्ता अभी स्कूलों ने दीनी तालीम को और मदरसों ने मॉडर्न एजुकेशन को सिर्फ़ एक ज़मीमा (Supplementary) बना रखा है। मेरा मशवरा है कि ज़मीमा की बजाय हमें अपने सिलेबस का अहम् हिस्सा बनाना चाहिये। वक़्त का तक़ाज़ा है कि सर-सय्यद के नुस्ख़े पर अमल करते हुए मदरसे के पास-आउट स्टुडेंट्स अच्छे स्टैण्डर्ड की मॉडर्न एजुकेशन और कॉलेज के पास-आउट अच्छे स्टैण्डर्ड की दीनी एजुकेशन हासिल करें।
पैरवी नक़्शे-क़दम की सारी दुनिया फिर करे।
एक हाथ में क़ुरआन हो इक हाथ में साइंस तिरे॥
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली
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