बात वर्ष 1954 की है, आजादी के सात वर्ष बीत चुके थे, भारतीय संविधान चार वर्ष की यात्रा पूरी कर चुका था, लेकिन काशी विश्वनाथ मंदिर का दरवाजा अभी भी दलितों के लिए बंद था, उत्तर प्रदेश की कमान पंडित गोविंद वल्लभ पंत जी के हाथ थी, काशी के पण्डे अभी भी छुआछूत के सिपहसालार बने हुए थे जिसका नेतृत्त्व करपात्री महाराज कर रहे थे.

सर्वविदित है कि काशी हिन्दुओं का सबसे बड़ा धर्म केंद्र माना जाता रहा है , बैद्यनाथ धाम को भी ऐसा ही सम्मान प्राप्त था, लेकिन इन दोनों मंदिरों में चमार, दुसाध, मुसहर, डोम आदि जातियों का प्रवेश निषेद्ध था, बैद्यनाथ धाम की किलेबंदी को बिहार के मुख्यमन्त्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह ने एक झटके से तोड़ दिया था, पर काशी के पंडों को तोड़ना आसान नहीं था, काशी के पंडों की मूर्खता देश के हिन्दुओं की एकता पर कुठाराघात जैसी थी, वसुधैव कुटुम्बकम् का सनातन आदर्श काशी में तार -तार होता दिखायी पड़ रहा था, सच कहें तो दक्षिण में नम्बूदिरी ब्राह्मणों के अत्याचार ने अम्बेडकर और पेरियार जैसी शख्सियतों को जन्म दिया और वहीं उत्तर में मैथिल और कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की मूर्खतापूर्ण धर्मांधता ने डॉ लोहिया, कर्पूरी ठाकुर, कांशीराम और मायावती की राजनीति को खाद-पानी मुहैय्या कराया.

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हिन्दुओं की प्राचीन नगरी तो सल्तनत काल या शायद उससे भी पहले बौद्ध सम्राटों के समय ही ध्वस्त हो गयी थी, आज के पंडों की काशी तो बादशाह अकबर द्वारा बसायी गयी नगरी थी, बादशाह अकबर के सिपहसालार बीरबल की बदौलत पंडों ने अपनी एक स्वच्छंद दुनिया बना ली थी,उनका छुआछूत का आदर्श वसुधैव कुटुम्बकम् के अनुकूल नहीं था.

जिन्हें हम काशी नरेश कहते हैँ, उनका काशी पर कोई वश नहीं चलता था, उनका नगर तो काशी से अलग रामनगर था, रामनगर नाम ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि यहाँ के राजा काशी से भिन्न संस्कृति वाले थे.

जब काशी नरेश के ही गोतिया बाबू राजनारायण सिंह ने काशी के विश्वनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश पर रोक के विरुद्ध आन्दोलन का निश्चय किया, तब काशी नरेश ने उन्हें इस पचड़े से दूर रहने की सलाह दी, क्योंकि वे जानते थे कि पण्डे बखेड़ा खड़ा करेंगें और शांति -व्यवस्था भंग होगी, लेकिन इस नारायण को तो शिव की तरह हर जहर पीना मंजूर था, पर समाज को जर्जर करती गंदगी का लबादा ओढ़कर सत्ता की कुर्सी पर बैठना किसी कीमत पर मंजूर नहीं था.

बाबू राजनारायण जी ने सारे बंधनों को तोड़कर दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने की शपथ ले ली, फिर क्या था, दलितों के विशाल हुजूम के साथ वे विश्वनाथ मंदिर के फाटक को तोड़ने चल पड़े, पण्डे भी कहाँ बाज आने वाले थे, घी-दूध खाकर मल्लखंभ किया हुआ पंडों का शरीर हाथों में डंडा लेकर राजनारायण को औकात बताने सामने खड़ा हो गया, मुख्यमन्त्री पंडित गोविंदवल्लभ पंत ने पुलिस का तगड़ा बंदोबस्त कर दिया था, स्थिति बहुत नाजुक थी लेकिन राजनारायण जी दलितों के साथ आगे बढ़े, पुलिस के रोकने पर भी वे नहीं रुके, अंततः लाठी चार्ज करना पड़ा, कहा जाता है कि पण्डे भी हिंसक हो उठे थे, राजनारायण जी का सिर फूट गया, उनको लाठी-डंडे से पीटते हुए रोड पर घसीटा गया था, कहा जाता है कि उनके दाढ़ी के बाल नोच डाले गए थे.

वस्तुतः एक तरफ छुआछूत को पोषित करने वाले धर्म की रक्षा का प्रश्न था, तो दूसरी तरफ मानवता के उस हिंदु आदर्श को स्थापित करने की जिद थी जिसे वसुधैव कुटुम्बकम् कहते है.

तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह ने 23फरवरी, 1955 के राज्यपाल के अभिभाषण पर हुए वाद-विवाद का उत्तर देते हुए विधानसभा में कहा था कि “मैं जानता हूँ कि आज राजपूत और ब्राह्मण अपने को दूसरी जातियों की अपेक्षा श्रेष्ठ समझते हैँ और दूसरों को खराब समझते हैँ , किसी भी देश में जहाँ जनतन्त्र है, यह शोभा नहीं देता, जब तक हिन्दुस्तान के लोगों के भीतर यही ख्याल रहेगा, तब तक सुन्दर और बढ़िया समाज नहीं बन सकता.

बैद्यनाथ धाम में हरिजनों पर जो अत्याचार होता था, उसके सम्बन्ध में मैंने स्वयं जाकर हिन्दुओं को बुलाकर कहा कि आप शिव की पूजा करते तो है, पर हरिजनों को मंदिर में जाने से रोकते है, आपको जन -कल्याण के लिए विष पीने वाले शिव के त्याग-तप से सीख लेनी चाहिए और हरिजनों को मंदिर जाने से नहीं रोकना चाहिए.”

काश! यही पहल उत्तर प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री पं गोविंद वल्लभ पंत अपने स्तर से करते, तो राजनारायण जी को धरना-प्रदर्शन , सत्याग्रह आदि की जरुरत नहीं पड़ती.

जो भी हो, राजनारायण जी ने दलितों को मंदिर में प्रवेश करा कर ही दम लिया था, हालाँकि इसके लिए 48 दिनों तक सत्याग्रह करना पड़ गया था, इसमें राजनारायण, प्रभुनारायण सिंह समेत अनेक लोग जेल में डाल दिए गए थे, यह एक एतिहासिक घटना थी, उत्तर प्रदेश सरकार को अस्पृश्यता निवारण कानून पर मुहर लगानी पड़ी थी.

जी हाँ! आज राजनारायण जिंदा नहीं हैँ, लेकिन दलितों के आशीर्वाद का ही परिफल था कि भारतीयों के बीच दुर्गा के रूप में सम्मानित प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को रायबरेली से शिकस्त देकर उन्होंने भारतीय राजनीति की दिशा ही बदल दी थी , लग रहा था दरिद्रनारायण ने अपने नारायण को पहचान लिया था.

सिद्धान्तों के लिए मर मिटने वाली, संघर्षप्रिय, निर्भीक, समाज के सजग प्रहर, भारतीय राजनीति के कबीर कहे जाने वाले जुझारू नेता लोकबंधु राज नारायण जी की जयंती पर सर्वहारा समाज उन्हें नमन करता है.

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