देश के हालात को हर समझदार नागरिक अच्छी तरह जानता और समझता है। अब इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश हिन्दुस्तान के लोकतान्त्रिक मूल्य पुरानी गाथा बनकर रह गए हैं। देश के चौकीदार का वो नारा जिसमें सबके विकास और विश्वास की बात की गई है न केवल खोखला है बल्कि ढकोसला है।
संवैधानिक संस्थाएँ बेबसी की तस्वीर हैं। मीडिया के बड़े हिस्से को ख़रीदा जा चुका है। अपोज़ीशन डरा-सहमा हुआ है। सामाजिक संगठनों पर शिकंजा कसा जा रहा है। हर तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ है। डिक्टेटरशिप दनदना रही है। एक तरफ़ देश के ये हालात हैं तो दूसरी तरफ़ कोरोना की वजह से देश की जनता माली बदहाली का शिकार है। कारोबार टूट चुके हैं, बाज़ार फीके पड़ गए हैं, कारख़ाने बन्द हैं।
मज़दूर अपने बच्चों को थपकी देकर सुला रहा है। जब ज़रा लगता है कि अब हालात ठीक होंगे तभी एक नई मुसीबत जान को आ लगती है। कोरोना जारी है अभी इसकी वैक्सीन भी लेबोरेट्री में है कि कोरोना की नई नस्ल आ धमकी है। जिसने दहशत की एक नई लहर दौड़ा दी है उसके मरीज़ बढ़ रहे हैं।
सरकार के अत्याचारी कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन ने भी कारोबार को प्रभावित किया है। ख़ुद लाखों किसान सड़कों पर हैं। अब बर्ड-फ़्लू के चलते कौओं के साथ मुर्ग़ियों की भी आफ़त आ गई है।
इन हालात में देश का बुद्धिजीवी वर्ग भी हैरान और परेशान है। डोर का कोई सिरा हाथ नहीं आ रहा है बल्कि और उलझता जा रहा है।
देश को परेशानियों भरी इस हालत को पहुँचाने और पहुँचने में कोई एक दो दिन का समय नहीं लगा है। बल्कि एक सुनियोजित अभियान की 90 से भी अधिक सालों की कोशिशें हैं। जिसने देश में ये हालात पैदा किये हैं, उसके लाखों कारिन्दों की रात-दिन की मेहनत है।
उसकी हज़ारों संस्थाओं की संगठित कोशिशों के नतीजे में ये हालात पैदा हुए हैं। इसलिये देश और समाज के सुधारवादियों को भी यह समझ लेना चाहिये कि ये हालात एक-दो दिन में बदलने वाले नहीं हैं।
बल्कि एक लम्बा सफ़र है जो हालात के बदलने वालों को बहुत ही सब्र (Patience) के साथ चलकर तय करना है। मगर यह भी यक़ीन रखना चाहिये कि अगर सफ़र ठीक दिशा में किया गया और हालात बदलने के लिये सही तरीक़े (Strategy) से काम किया गया तो हालात ज़रूर बदलेंगे।
जब हालात अच्छे से ख़राब हो सकते हैं तो ख़राब से अच्छे भी हो सकते हैं। इतिहास अपने आपको दोहराता रहता है। वक़्त का पहिया क़ौमों को उत्थान और पतन की तरफ़ लाता और ले जाता रहा है।
अब इस बात का समय नहीं है कि उन कारणों पर बात की जाए जिनसे यह देश इन ख़राब हालात को पहुँचा है और न इसका समय है कि हम एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगाएँ और लोगों को और संस्थाओं को बुरा-भला कहें, बल्कि इस समय देश में हंगामी हालात हैं।
ऐसे हालात में एक-दूसरे का हिसाब लेने और इल्ज़ाम लगाने के बजाय आगे बढ़कर काम करने की ज़रूरत है। इस वक़्त हम में से हर शख़्स को हालात को और ज़्यादा ख़राब होने से बचाने और आगे के लिये हालात को बेहतर करने की कोशिश करना है।
इसके लिये सबसे पहला क़दम तो यही है कि हम हालात को और ज़्यादा ख़राब होने से बचाएँ। इसके लिये हमें हर उस अमल से रुकना होगा जो हालात ख़राब करते हैं। मिसाल के तौर पर हमें समाज को बाँटनेवाली, उनमें भेदभाव करनेवाली बातों से बचना होगा।
बदले की भावना के बजाय भलाई की भावना पैदा करनी होगी। बदले की जगह माफ़ी और दरगुज़र से काम लेना होगा। देश के नागरिक होने के नाते तमाम देश के नागरिकों से प्रेम करना होगा और उनकी तकलीफ़ों का अहसास पैदा करना होगा।
किसी भी शख़्स के बारे में उस वक़्त तक, जब तक कि यक़ीन की हद तक इल्म न हो जाए, बेजा तब्सिरों (टीका-टिप्पणियों) से बचना होगा। इसलिये कि बदगुमानियाँ समाज को तबाह कर देती हैं और साथियों में इख़्तिलाफ़ और मतभेद पैदा कर देती हैं।
दूसरा काम हालात को बेहतर करने का है। हममें से हर व्यक्ति को अपने निजी हालात को बेहतर बनाने की प्लानिंग करनी चाहिये। अगर एक व्यक्ति के हालात बेहतर होंगे तो पूरी क़ौम और देश के भी हालात बेहतर होंगे।
हर व्यक्ति को अपने माली हालत को बेहतर करने के लिये पहले से ज़्यादा मेहनत करनी होगी और फ़ुज़ूलख़र्चियों पर क़ाबू पाना होगा। अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई को महज़ दिखावे की ख़ातिर यूँ ही बहा देना कोई समझदारी और अक़्लमन्दी नहीं है।
बल्कि इस रक़म से अपने बच्चों को बेहतर से बेहतर तालीम दिलानी चाहिये और उनके लिये जीविका (रोज़ी-रोटी) के कम से कम ऐसे साधन ज़रूर जुटा देने चाहियें जिनसे उनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें।
हमारे इज्तिमाई इदारों की ज़िम्मेदारी इन नाज़ुक हालात में बहुत बढ़ जाती है। मस्जिदों के इमाम, आलिम, टीचर्स, वकील, डॉक्टर्स, समाजी और मज़हबी तंज़ीमों के कारकुन, मीडिया के लोग, क़ौम का दर्द रखनेवाले लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वे क़ौम और देशवासियों को हालात से बाख़बर रखने की कोशिश करें लेकिन इन कोशिशों की बुनियाद अफ़वाहों पर न हो बल्कि सही मालूमात पर हो।
इसी के साथ हालात में बदलाव के लिये पॉज़िटिव रोल अदा करें। मस्जिदों के इमामों और ख़तीबों की ज़िम्मेदारी है कि इन नाज़ुक हालात में मसलकी इख़्तिलाफ़ों और फ़िक़ही मतभेदों के बजाय वहदते-उम्मत (उम्मत की एकता) बल्कि इन्सानियत की बात करें।
उम्मत के अन्दर से सभी अख़लाक़ी बुराइयाँ ख़त्म करने और अख़लाक़ी ख़ूबियाँ परवान चढ़ाने पर मेहनत करें। आपसी मदद और सहायता की भावनाओं को बढ़ावा दें। ऐसे टॉपिक्स से बिल्कुल दूर रहें जो फ़ितने और फ़साद की जड़ हों।
इन नाज़ुक हालात में मिल्ली, मज़हबी और दीनी तंज़ीमों को आपस में ज़िन्दगी के शोबों (विभागों) को बाँटकर काम करना चाहिये।
कोई भी तंज़ीम ज़िन्दगी के तमाम शोबों में इन्क़िलाब नहीं ला सकती। इसलिये अपने मिशन और फ़िक्र की दावत व तबलीग़ के साथ-साथ तालीम, सेहत, रोज़गार वग़ैरह पर हमारी मिल्ली और दीनी जमाअतों को सर जोड़कर बैठना चाहिये और अपने हिस्से का काम अपने हाथ में लेकर आगे बढ़ना चाहिये।
ये काम हालाँकि बहुत मुश्किल है, मगर उम्मते-मुहम्मदिया पर जो बुरा वक़्त आ पड़ा है उसे टालने के लिये ज़रूरी है कि ऐसा किया जाए। अगर हमारे इज्तिमाई और मिल्ली फ़ोरम इस तरफ़ पहल करें तो ये काम आसान हो सकता है। कम से कम इतना ही हो जाए कि हम एक जैसे कामों में एक दूसरे की मदद करें।
दूसरी बात ये कहनी है कि काम ज़मीनी सतह पर इस तरह किया जाए कि वो नज़र भी आए। तीसरी बात ये है कि हंगामी रिलीफ़ के साथ-साथ बुनियादी काम भी किये जाएँ।
मदरसों की तालीम में हर सतह पर बेहतरी लाई जाए। स्टूडेंट्स को बुनियादी और दुनियावी तक़ाज़ों को सामने रखते हुए मालूमात देने के साथ पेशेवराना कोर्सेज़ की तालीम दी जाए। ताकि वो अपनी अमली ज़िन्दगी में कामयाब हो सकें।
समाजी और वेलफ़ेयर आर्गेनाइज़ेशन्स सरकारी स्कीमों से फ़ायदा उठाने की बेहतर सूरते-हाल पैदा करें, समाजी राब्ते की ज़िम्मेदारी निभाएँ। नागरिकों में आपसी मुहब्बत पैदा करने के प्रोग्राम चलाएँ, फ़िरक़ों और गरोहों में फ़ासले कम करने और ग़लतफ़हमियाँ दूर करने के प्रोग्राम किये जाएँ।
अच्छे लेखकों की ज़िम्मेदारी है कि वो अपने क़लम का इस्तेमाल अँधेरा दूर करने और उजाला बढ़ाने के लिये करें। पत्रकार बन्धुओं को चाहिये कि वे गोदी मीडिया का हिस्सा न बनें। सिविल सोसाइटी के लोग आगे बढ़कर भलाई के तमाम कामों में बग़ैर किसी भेदभाव के एक-दूसरे की मदद करें।
इन तमाम पहलुओं (dimensions) पर लगातार काम करने के साथ-साथ इस राह की रुकावटों और परेशानियों पर सब्र किया जाए। समाज का जो शख़्स भी इन कामों को बेहतर समझता है और हालात को बेहतर बनाने के लिये जो पहल भी वो कर सकता है उसे करनी चाहिये।
उसे भलाई का काम करने के लिये ये इन्तिज़ार नहीं करना चाहिये कि कोई दूसरा करेगा तो मैं मदद करूँगा, बल्कि उसे ख़ुद उठना चाहिये और ये सोचकर रुक नहीं जाना चाहिये कि अकेला इन्सान क्या कर सकता है।
बल्कि उसे सिर्फ़ अपने हिस्से का काम करके ये इत्मीनान रखना चाहिये कि एक न एक दिन उसके काम का बदला ज़रूर मिलेगा।
लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सबको।
मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं॥
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली