कलीमुल हफ़ीज़

5 अगस्त 2020 को हिन्दुस्तान की तारीख़ में एक तारीख़साज़ (ऐतिहासिक) तारीख़ की हैसियत हासिल हो चुकी है। इस दिन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अमल करते हुए अयोध्या की पावन नगरी में राम मन्दिर की आधारशिला रखी गई। हम हिन्दुस्तानियों के लिये ये गर्व की बात है कि यहाँ श्री राम की जन्म भूमि है। हिन्दुस्तानी मुसलमान श्री राम से ज़र्रा बराबर नफ़रत नहीं करते बल्कि उनका सम्मान करते हैं। उनकी शान में गुस्ताख़ाना अलफ़ाज़ तक कहने से इस्लाम ने उन्हें रोका है। इसके बावजूद मन्दिर की आधारशिला के फ़ंकशन को जिस अन्दाज़ से किया गया, जिस तरह फ़ंकशन को एडवर्टाइज़ किया गया, फ़ंकशन में एक ख़ास फ़िक्र के मेहमानों को बुलाया गया, स्पीकर्स ने जिस अन्दाज़ से वहाँ भाषण दिये, ऐसा लगता है कि ये सारा अमल मुसलमानों को तकलीफ़ पहुँचाने के लिये किया गया था। स्पीकर्स ने पाँच सदियों की जिद्दो-जुहद का बार-बार ज़िक्र करके देशवासियों को यह बताने की कोशिश की कि पाँच सौ साल से मुसलमान ज़ुल्म कर रहे थे, रामलला क़ैद में थे, उन्हें आज़ादी मिल गई है। माननीय प्रधानमन्त्री ने राम-राज्य की शुरूआत का सीधे-सीधे ऐलान भी किया और यह भी कहा कि 15 अगस्त को देश आज़ाद हुआ था और आज 5 अगस्त को रामलला आज़ाद हो गए हैं। इसके नतीजे में देश के अलग-अलग हिस्सों से मस्जिदों की बेहुरमती और अपमान करने की शिकायतें भी मिल रही हैं। यह सब सुप्रीम कोर्ट के इस बात को मान लेने के बाद किया और कहा गया कि बाबरी मस्जिद किसी मन्दिर को तोड़कर नहीं बनाई गई, खुदाई में राम मन्दिर के आसार नहीं मिले, अगर मामला कहीं इसके बरख़िलाफ़ होता तो आप अन्दाज़ा कर सकते हैं कि मुसलमान और उनकी मस्जिदों के साथ क्या सुलूक किया गया होता।

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हिन्दुस्तानी मुसलमान जिस तरह श्री रामलला के ख़िलाफ़ नहीं हैं। इसी तरह वो राम मन्दिर के ख़िलाफ़ भी नहीं हैं। इस देश में मुसलमानों के आने से पहले के मन्दिर बड़ी तादाद में मौजूद हैं। उन्हें एक और विशाल मन्दिर बन जाने से क्या तकलीफ़ होगी। मुसलमानों को तकलीफ़ फासीवादी ज़ेहन से है। जो उन्हें हमलावर साबित करना चाहती है, जिसके नज़दीक मुल्क का हर शहरी हिन्दू है, जो मुसलमानों को पाकिस्तान या क़ब्रिस्तान भेजने का नारा लगाती है। जिस मानसिकता के झंडा उठाने वाले ने साफ़-साफ़ कहा है कि वो मस्जिद की तामीर में शरीक नहीं होंगे, क्योंकि वो हिन्दू हैं, जिसके नज़दीक अखण्ड भारत बनाने में मुसलमानों का कोई किरदार नहीं, जबकि भारत को एक मुल्क के तौर पर मुसलमानों ने ही बनाया। हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया मुसलमानों ने ही बनाया। अलबत्ता मुसलमानों के दो बड़े जुर्म हैं। जिनमें से एक की सज़ा उन्हें फ़ाशिज़्म और दूसरे की ख़ुदा दे रहा है। इनमें से एक तो ये है कि उन्होंने यहाँ के दलित, मज़लूम, हज़ारों साल से ग़ुलामी की ज़िन्दगी बसर करने वाले जानवरों से भी बदतर हालत में रहनेवालों को बराबरी का सबक़ देकर बराबरी के मक़ाम पर खड़ा करने के जतन किये। हज़ारों साल की ऊँच-नीच, छूत-छात और भेदभाव को मिटाने की कोशिशें कीं। इस जुर्म ने मनुवादी सिस्टम की सत्ता के लिये ख़तरा पैदा कर दिया। और वो मुसलमानों के दुश्मन हो गए। मनुवादी सिस्टम में कोई अछूत इन्सान ब्रह्मण के आसन पर बैठना तो दूर आस-पास भी नहीं बैठ सकता था मगर इस्लाम के पैग़ाम की वजह से आज वही शख़्स कमिशनर और कलक्टर बना बैठा है और ऊँची जाति का आदमी दरबान और ड्राइवर है।

मुसलमानों का दूसरा जुर्म ये है कि उन्होंने देशवासियों को इस्लाम की दावत इस तरह नहीं दी जिस तरह देना चाहिये थी, बल्कि वो इस्लाम क़बूल करने के रास्ते में रुकावट बन गए। मुस्लिम बादशाहों ने सरहदों की हिफ़ाज़त और उसके फैलाव पर तो ख़ूब तवज्जोह दी लेकिन इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिये कोई ख़ास कोशिश नहीं की, स्टेट की इस बेतवज्जोही ने यहाँ के बसनेवालों को इस्लाम की नेमत से महरूम रखा। वरना क्या वजह है कि आठ सौ साल से ज़्यादा हुकूमत करने और इक़्तिदार में रहने के बावजूद मुसलमानों की आबादी आज भी सिर्फ़ 15 परसेंट ही है।

अदालत के अन्यायपूर्ण फ़ैसले के नतीजे में राम-मन्दिर की आधारशिला से सबसे बड़ा ख़तरा मुसलमानों को नहीं बल्कि हिन्दुस्तानी जम्हूरियत (लोकतंत्र) को है। बाबरी मस्जिद केस में जम्हूरियत की धज्जियाँ उड़ाई गईं। अब हिन्दुस्तान में बेचारी जम्हूरियत एक दम नंगी हो गई है। किसी भी जम्हूरियत में मेजोरिटी का धु्रवीकरण समाज को फासीवाद की तरफ़ ले जाता है और अल्पसंख्यकों में अलगाववाद के रुझान परवान चढ़ाता है। और ये दोनों ही रुझान समाज और मुल्क के लिये बहुत ही नुक़सानदेह हैं। फासीवाद किसी भी शक्ल में हो; चाहे जर्मन में नाज़ीवाद की शक्ल में हो या सोवियत रूस में मार्क्सवाद की सूरत में हो और चाहे वह हिन्दुस्तान की तरह धर्म के चोले में हो, इन्सानियत के लिये ख़तरा है। इसलिये फासीवाद की उम्र बहुत लम्बी नहीं होती। जर्मन और रूस में हम इसका अंजाम देख चुके हैं। हिन्दुस्तान में जम्हूरी इदारों (लोकतांत्रिक संस्थाएं) की कमज़ोरी, फासीवाद और मनुवादी सिस्टम को ताक़त पहुँचाएगी, जो यहाँ के मेजोरिटी के लिये ही नुक़सानदेह होगी, क्योंकि फासीवादी राज में किसी शम्बूक को ज्ञान हासिल करने का इख़्तियार ही नहीं होगा। सत्ता में भागीदारी का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। चाणक्य नीति अपनानेवालों के यहाँ साम-दाम-दण्ड भेद सब कुछ जायज़ है। जिसको पिछले छः सालों से देखा जा रहा है।

मौजूदा सरकार मुसलमानों को सफ़हए-हस्ती से मिटा देने का जो प्लान बना रही है वो एक ख़्वाब के सिवा कुछ भी नहीं है। मैं मानता हूँ कि राम-मन्दिर से हौसला पाकर केन्द्र सरकार अपने फासीवादी नज़रिये को फैलाएगी, और कुछ ऐसे क़ानून बनाए जाएंगे या अदालत से फ़ैसले कराए जाएँगे जिनकी मार मुसलमानों के पर्सनल लॉ, इनकी मस्जिदों, इनके शहरी और बुनियादी हक़ों पर पड़ेगी। काशी और मथुरा की आवाज़ उठ ही चुकी है। एन-आर-सी का नाग ज़िन्दा है। लेकिन मैं पूछता हूँ कि एक ख़ास तबक़े पर ज़ुल्म करके क्या आपको सुकून मिल जाएगा? और ये ज़ुल्म आप कब तक और कितने साल कर सकते हैं? क्या इन्सानी तारीख़ (इतिहास) से मालूम नहीं होता कि “ज़ुल्म की टहनी कभी फलती नहीं।” क्या मुसलमानों की तारीख़ यह नहीं बताती कि पासबाँ मिल गए काबे को सनमख़ानों से।  इसलिये मेरा सत्ता पर बिराजमान साहिबों को मशवरा है कि वो श्री राम की हक़ीक़ी और सच्ची तालीम को अपनाएँ, जिसमें ज़ुल्म और ना-इन्साफ़ी के लिये कोई जगह नहीं है, जहाँ ईश्वर और अल्लाह एक ही ज़ात के दो नाम हैं। इसलिये कि हिन्दू धर्म के मुताबिक़ राम ख़ुदा के पैग़म्बर थे और इस्लाम के मुताबिक़ कोई पैग़म्बर इन्सानों पर ज़ुल्म करने का हक़ नहीं रखता। वो किसी शम्बूक का क़त्ल नहीं कर सकता। श्री राम के साथ ग़ैर-अख़लाक़ी और ग़ैर-इन्सानी हरकतों को जोड़ना बहुत गन्दी मानसिकता की बात है। आज जबकि हम चौहत्तरवाँ स्वतन्त्रता दिवस मना रहे हैं, क़िले के प्राचीर पर तिरंगा लहरा रहे हैं, सारी दुनिया में अपने मज़बूत लोकतन्त्र का शोर मचा रहे हैं, मेरी रिक्वेस्ट है कि जम्हूरी इदारों को आज़ाद और उन्हें मज़बूत किया जाए। एक हज़ार साल से क़ायम भाईचारे को बाक़ी रखा जाए। अम्न व सलामती का माहौल बनाया जाए। नफ़रत और बदअमनी का माहौल माइनॉरिटी से ज़्यादा मेजोरिटी के लिये नुक़सानदेह है, क्योंकि तादाद ज़्यादा होने की वजह से ज़्यादा असर भी उन्हीं पर होता है। और “लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में”

मन्दिर के संगे-बुनियाद से मुसलमानों को मायूस होने की नहीं बल्कि एहतिसाब (आत्म निरीक्षण) की ज़रूरत है। वो क्या कमज़ोरियाँ हैं जिनकी वजह से फासीवाद को बल मिल रहा है। आलिमों, मदरसों के ज़िम्मेदारों और मस्जिद के इमामों को जायज़ा लेना चाहिये कि आख़िर मुसलमान पस्ती की तरफ़ क्यों जा रहे हैं? मुस्लिम आर्गेनाइज़ेशंस और मज़हबी इदारों को अपनी सत्तर साल की कारकर्दगी का जायज़ा लेकर देखना चाहिये जिसने उन्हें ऊपर उठाने के बजाय नीचे गिरा दिया है। सियासी दानिशवरों को अपनी सियासी पॉलिसी पर रिव्यु करना चाहिये, कि आख़िर कहाँ चूक हुई कि मुसलमान सत्ता से बेदख़ल होने के साथ-साथ बेअसर हो गए। करोड़ों और अरबों रुपये सालाना ख़र्च करने के बावजूद मदरसों, मुस्लिम और मज़हबी आर्गेनाइज़ेशंस ने देश और मुसलमानों को क्या दिया? इस पर ग़ौर करने की ज़रुरत है। हमारे व्यापारियों को, हमारे टीचर्स को, हमारे लेखकों और पत्रकारों को यानी हर शख़्स और हर गरोह को जायज़ा लेना चाहिये। ख़ूब आत्म-मन्थन की ज़रूरत है। किसी पर इलज़ाम लगाने, किसी की कमज़ोरियाँ उछालने की नहीं बल्कि अपनी कमज़ोरियाँ तलाश करके दूर करने की ज़रूरत है। उसके बाद फिर से एक नए दौर की शुरुआत के लिये प्रोग्राम बनाकर काम करने की, मुल्क की एकता और अखण्डता, इस्लाम और मुसलमानों की तरक़्क़ी की बहाली के लिये नए सिरे से काम करने की ज़रूरत है। जमाअतों, अंजुमनों और इदारों के ज़िम्मेदारों से मेरी गुज़ारिश है कि वो अपने-अपने इलाक़ों में सर्वे फ़ॉर्म जारी करें जिसमें अपने मेम्बर्स और कारकुनों से अपनी-अपनी नाकामी और पतन की वजहों को मालूम किया जाए और आगे करने के काम के लिये मशवरे माँगे जाएँ। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और मुस्लिम मजलिसे मुशावरत जैसे मुसलमानों के यूनाइटेड प्लेटफ़ॉर्म्स के ख़ादिमों से भी गुज़ारिश है कि मुल्क के मौजूदा हालात पर ग़ौर करने के लिये मीटिंग्स करें। मगर इस तमाम अमल में ईमान और इख़्लास भी साथ रखियेगा, वरना हमेशा की दुनिया में भी ज़िल्लत भरी रुस्वाई का सामना करना पड़ेगा।

मुसलमानों पर ये सख़्त वक़्त पहली बार नहीं आया है। दुनिया के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में पन्दरह सदियों में पन्दरह बार हम उरूज और ज़वाल (उत्थान और पतन) को देख चुके हैं। हमारा सीना बाबरी मस्जिद के गिरने से बड़े तीर सह चुका है। 1857 का ग़दर और अँग्रेज़ी राज के ज़ुल्म, 1920 में ख़िलाफ़त का ख़ात्मा, 1947 में देश के बँटवारे का हादिसा, ये तीनों हादिसे हमारी सहनशक्ति का इम्तिहान ले चुके हैं। ज़मीन और आसमान गवाह हैं कि हम ने हर मुसीबत और बुरे वक़्त का हौसले से मुक़ाबला किया है, आज भी दुनिया के कई हिस्सों में बातिल हमसे टक्कर ले रहा है। ये मत भूलिये कि आज की ग्लोबल दुनिया में ताक़त के बैलेंस को बदलते देर नहीं लगती।

बक़ौल अल्लामा इक़बाल (रह०)

जहाँ में अहले-ईमाँ सूरते-ख़ुर्शीद जीते हैं।

इधर डूबे उधर निकले, उधर डूबे इधर निकले॥

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

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