(अफज़ाल राणा)
उत्तराखण्ड राज्य अपनी स्थापना के 25 वर्ष पूरे कर चुका है। यह रजत जयंती वर्ष एक ओर जहां गौरव, सम्मान और आत्मगौरव का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह आत्ममंथन और आत्मनिरीक्षण का समय भी है। जब यह राज्य बना था, तब उम्मीदें बहुत बड़ी थीं — कि अब पहाड़ों में विकास पहुंचेगा, गांवों में खुशहाली आएगी, युवाओं को रोजगार मिलेगा, मातृशक्ति को सशक्त पहचान मिलेगी और हर व्यक्ति को अपने पहाड़ में ही जीने और आगे बढ़ने का अवसर मिलेगा। लेकिन 25 वर्षों की यात्रा के बाद भी उत्तराखण्ड के गांवों की सच्चाई आज भी दर्द से भरी है। अधूरे सपनों और अधूरे विकास के बीच यह रजत जयंती वर्ष सिसकते पहाड़ों की कहानी सुना रहा है।
राज्य गठन की सबसे बड़ी भावना थी – “अपना राज्य, अपनी राजधानी, अपना विकास”। आंदोलनकारियों ने यह संघर्ष इसलिए नहीं किया था कि राजधानी देहरादून में स्थायी रूप से जमी रहे। राजधानी का सपना पहाड़ों के बीच, आम जनता की पहुंच में और भौगोलिक रूप से संतुलित स्थान — गैरसैंण के रूप में देखा गया था। गैरसैंण को राज्य की भावनाओं का प्रतीक माना गया, क्योंकि यह कुमाऊं और गढ़वाल की सीमाओं के बीच एक भावनात्मक और भौगोलिक संतुलन बनाता है। लेकिन दो दशक से अधिक बीतने के बाद भी गैरसैंण का सपना केवल कागजों और भाषणों तक सिमटकर रह गया है। अस्थायी राजधानी देहरादून लगातार स्थायी स्वरूप लेती जा रही है, जबकि गैरसैंण आज भी उपेक्षा का प्रतीक बना हुआ है। पहाड़ के लोगों को आज भी उम्मीद है कि कभी न कभी राज्य की असली राजधानी वहीं स्थापित होगी, जहाँ से पहाड़ की आत्मा बोलती है।
पलायन उत्तराखण्ड की सबसे बड़ी त्रासदी बन चुका है। जब राज्य बना था, तो उम्मीद थी कि अब लोग रोजगार की तलाश में पहाड़ छोड़ने को मजबूर नहीं होंगे। लेकिन 25 साल बाद स्थिति और भयावह हो चुकी है। हजारों गांव आज “भूतहा गांव” बन चुके हैं — जहाँ कभी बच्चों की हंसी गूंजती थी, वहाँ अब खामोशी और सूने आंगन हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार और बुनियादी सुविधाओं के अभाव ने लोगों को मजबूर कर दिया कि वे अपने पुश्तैनी घर छोड़कर मैदानों या दूसरे राज्यों की ओर चले जाएं। सरकारों ने पलायन रोकने के लिए योजनाएं तो बनाईं, लेकिन वे धरातल पर नहीं उतर पाईं।
मूल निवासी होने का सवाल भी अब उत्तराखण्ड में गहराने लगा है। पहाड़ के लोग यह महसूस करने लगे हैं कि उनके हिस्से की जमीन, रोजगार और अवसर बाहरी लोगों के हाथों में जा रहे हैं। राज्य के संसाधनों का लाभ स्थानीय लोगों तक सीमित नहीं रह गया। शहरों में बाहरी पूंजी का दबदबा बढ़ा है, जिससे स्थानीय युवाओं को प्रतिस्पर्धा में पीछे धकेला जा रहा है। पहाड़ों की भूमि बिक रही है, और धीरे-धीरे अपनी पहचान खो रही है। आंदोलन के समय जो नारा था – “हमारा पहाड़, हमारी पहचान”, वह अब केवल दीवारों पर लिखा एक जुमला बनकर रह गया है। मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस नीति की आवश्यकता है, ताकि पहाड़ का भविष्य पहाड़वासियों के ही हाथों में रहे।
आपदा, जो कभी अपवाद हुआ करती थी, अब उत्तराखण्ड की नियति बन चुकी है। भूस्खलन, बादल फटना, नदी का रुख बदलना, और ग्लेशियर टूटने जैसी घटनाएं हर साल तबाही लाती हैं। इन आपदाओं का असर केवल बुनियादी ढांचे तक सीमित नहीं रहता, बल्कि लोगों की आजीविका, मनोबल और संस्कृति पर भी पड़ता है। सरकारें राहत और पुनर्वास के दावे करती हैं, लेकिन हकीकत यह है कि अधिकांश पीड़ित परिवारों को न तो स्थायी आवास मिला और न ही स्थायी आजीविका। आपदा प्रबंधन विभाग की योजनाएं कागजों पर तो शानदार लगती हैं, लेकिन जब प्रकृति कहर बरपाती है, तो पूरा सिस्टम लड़खड़ा जाता है।
स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में हालात अभी भी चिंताजनक हैं। पहाड़ों में अस्पतालों की कमी है, डॉक्टरों की तैनाती असमान है, और एंबुलेंस सेवाएं अक्सर देर से पहुंचती हैं। स्कूलों में बच्चों से ज्यादा अनुपस्थित शिक्षक हैं। कई गांवों में बच्चे आज भी किलोमीटरों पैदल चलकर स्कूल जाते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या 25 वर्षों में हमने उस सपने को पूरा किया है, जिसके लिए उत्तराखण्ड बना था?
उत्तराखण्ड जैसे शांत और संस्कारित राज्य में अपराध का बढ़ता ग्राफ वाकई चिंता का विषय बन चुका है। जिस राज्य को कभी शांति, ईमानदारी और सादगी के प्रतीक के रूप में जाना जाता था, आज वहां अपराध की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। यह स्थिति न केवल सामाजिक संतुलन को प्रभावित कर रही है, बल्कि राज्य की पहचान और सुरक्षा व्यवस्था पर भी प्रश्नचिह्न लगा रही है।
पहाड़ों की यह धरती, जहाँ कभी दरवाज़े बिना ताले के खुलते थे और लोग एक-दूसरे पर अटूट विश्वास रखते थे, अब धीरे-धीरे बदल रही है। चोरी, लूट, हत्या, साइबर ठगी, नशा तस्करी, महिला अपराध और धोखाधड़ी जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। विशेष रूप से साइबर अपराध और नशा तस्करी नए खतरे के रूप में उभरकर सामने आए हैं। इंटरनेट के प्रसार और बेरोजगारी के कारण युवा वर्ग इन अपराधों में उलझता जा रहा है।
‘ड्रग्स फ्री उत्तराखण्ड’ का नारा तो दिया जा रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि नशे का जाल देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर और हल्द्वानी जैसे शहरों में फैल चुका है। कॉलेजों और स्कूलों तक नशे की पहुँच एक गंभीर सामाजिक संकट बन गई है। नशे के कारण बढ़ते अपराध, घरेलू हिंसा, चोरी और आत्महत्याओं की घटनाएं भी अब आम हो गई हैं।
महिला सुरक्षा का मुद्दा भी चिंता का कारण है। पोक्सो और घरेलू हिंसा के मामलों में वृद्धि यह दर्शाती है कि समाज में नैतिक गिरावट गहराती जा रही है। हालाँकि पुलिस ने इन मामलों के निस्तारण में सराहनीय काम किया है, लेकिन रोकथाम की दिशा में अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।
साइबर अपराध के मामले भी तेजी से बढ़ रहे हैं। तकनीक के प्रसार के साथ ठगी, ऑनलाइन फ्रॉड और डेटा चोरी जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं। पहाड़ी इलाकों तक मोबाइल इंटरनेट पहुँच गया है, लेकिन डिजिटल साक्षरता का अभाव अपराधियों को मौका दे रहा है।
कानून-व्यवस्था बनाए रखने में पुलिस का प्रयास प्रशंसनीय है, परंतु अपराध रोकथाम के लिए केवल पुलिस की नहीं, समाज की भी भूमिका जरूरी है। परिवार, स्कूल और समुदाय स्तर पर जागरूकता बढ़ाना, नैतिक शिक्षा को प्रोत्साहित करना और रोजगार के अवसर बढ़ाना — ये सभी कदम अपराध के मूल कारणों को रोक सकते हैं।
उत्तराखण्ड को अपनी शांत और सुरक्षित पहचान बचाए रखने के लिए सख्त कानूनों के साथ-साथ सामाजिक जिम्मेदारी की भी आवश्यकता है। जब समाज अपराध के विरुद्ध एकजुट होकर खड़ा होगा, जब युवाओं को सही दिशा मिलेगी, जब नशे के कारोबार पर पूरी तरह अंकुश लगेगा, तभी इस बढ़ते अपराध ग्राफ को नीचे लाया जा सकेगा।
राज्य के विकास की कहानी अक्सर आंकड़ों से सजाई जाती है, लेकिन पहाड़ के जीवन की सच्चाई इन आंकड़ों से बहुत अलग है। सड़कों का विस्तार हुआ है, लेकिन गांवों से लोगों का जुड़ाव कम हुआ है। बिजली के खंभे खड़े हैं, लेकिन रोजगार की रोशनी मंद है। पर्यटन जरूर बढ़ा है, पर उससे होने वाला लाभ स्थानीय लोगों तक सीमित नहीं रह पाया।
महिलाएं, जिन्होंने राज्य निर्माण आंदोलन की रीढ़ का काम किया था, आज भी संघर्ष कर रही हैं। वे जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ती हैं, लेकिन नीति निर्धारण में उनकी भागीदारी सीमित है। आत्मनिर्भरता की कुछ कहानियां जरूर हैं — जैसे स्वरोजगार समूह, ऑर्गेनिक खेती, और महिला स्टार्टअप — लेकिन इन्हें व्यापक नीति समर्थन की आवश्यकता है।
पर्यावरण की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। पहाड़ों को काटकर होटल, रिज़ॉर्ट और सड़कें बनाई जा रही हैं। पर्यटन के नाम पर प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ा जा रहा है। नदियां गंदी हो रही हैं, ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, और जंगल हर साल आग की चपेट में आ रहे हैं। यदि यही गति जारी रही, तो आने वाले वर्षों में उत्तराखण्ड का पर्यावरणीय अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है।
राज्य की राजनीति भी जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। राजधानी विवाद, जल-जंगल-जमीन की नीतियों पर असहमति, भ्रष्टाचार और नौकरशाही की सुस्ती ने जनता का भरोसा कमजोर किया है। हर सरकार ने “विकास” के नाम पर वादे किए, लेकिन जनता के असली मुद्दे — पलायन, रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा — वहीं के वहीं रह गए।
रजत जयंती वर्ष का अर्थ केवल 25 वर्षों का उत्सव नहीं, बल्कि आत्मनिरीक्षण का अवसर होना चाहिए। यह वह समय है जब राज्य को तय करना होगा कि आने वाले 25 वर्षों में उत्तराखण्ड का चेहरा कैसा होगा — केवल चमकते शहरों वाला या पहाड़ों के दिल तक पहुंचने वाला विकास?
जरूरत इस बात की है कि गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाकर पहाड़ों की आवाज को शासन की मुख्यधारा में लाया जाए। पलायन को रोकने के लिए स्थानीय उद्योग, कृषि आधारित रोजगार और पर्यटन के साथ तकनीकी शिक्षा को जोड़ा जाए। मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए ठोस नीति बने, ताकि पहाड़ का भविष्य उसके असली मालिकों के हाथों में सुरक्षित रहे।
उत्तराखण्ड का यह रजत जयंती वर्ष हमें यह याद दिलाता है कि यह राज्य आंदोलन, बलिदान और उम्मीदों की नींव पर बना है। अब वक्त आ गया है कि हम उन उम्मीदों को फिर से जीवित करें। जब गैरसैंण की पहाड़ियों से शासन की आवाज उठेगी, जब पलायन थमेगा, जब हर गांव में रोजगार और शिक्षा की रोशनी होगी, तभी यह रजत जयंती उत्सव अपने सच्चे अर्थों में पूर्ण होगा।
तब ही कहा जा सकेगा — “यह वही उत्तराखण्ड है, जिसके लिए हमने संघर्ष किया था — आत्मनिर्भर, संवेदनशील और सच में अपने पहाड़ों का राज्य।”

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