कलीमुल हफ़ीज़
कहावत मशहूर है कि परहेज़ आधा इलाज है। हालाँकि एलोपैथी में परहेज़ को ज़्यादा अहमियत नहीं दी जाती, इसी लिये अंग्रेज़ी दवाएँ एक बीमारी ठीक करती हैं तो दो पैदा कर देती हैं। ठीक यही हाल क़ौम और मुल्क के मसायल का है। अगर ये कहा जाए कि *मर्ज़ बढ़ता गया जूँ-जूँ दवा की।* तो बेजा न होगा। उम्मत के आलिम, इमाम और दानिशवर हज़रात, अंजुमनें, तंज़ीमें, लीडर्स सब मर्ज़ का पता लगाते हैं, दवा बताते हैं, कुछ लोग दवा लाकर देते हैं, कुछ लोग खाते भी हैं मगर मर्ज़ में क़ाबिले-ज़िक्र फ़ायदा नहीं होता। मेरी नज़र में इसका सबब ये है कि हम परहेज़ नहीं करते, इसलिये कोई दवा मुकम्मल असर नहीं करती। ख़ाकसार मुख़्तलिफ़ उन्वानात और टॉपिक्स के तहत पढ़ने वालों के सामने स्ट्रैटेजी पेश कर चुका है; *नीचे उन रुकावटों और मुश्किलों का ज़िक्र किया जा रहा है जिनका इस राह में आना लाज़िमी है।* हमें इस हक़ीक़त को नज़रअन्दाज़ नहीं करना चाहिये कि जब भी कोई शख़्स या गरोह, इस्लाह और सुधार के लिये उठा है, उसके सामने ये परेशानियाँ आई हैं। दुनिया में सबसे पाकीज़ा गरोह नबियों और पैग़म्बरों का रहा है। जब उनकी मुख़ालिफ़त हुई हो, जब उनकी राह रोकी गई हो तो हम और आप किस गिनती में हैं। मैं चाहता हूँ कि हम उन दुशवारियों को पहले ही समझ लें, उन पर ग़ौर-फ़िक्र कर लें ताकि हमें कोई तकलीफ़ न हो।
पहले ये बात अच्छी तरह समझ लीजिये कि जब आप इस्लाह और ख़िदमत के लिये उठते हैं तो ख़ुद को बुलन्दी पर खड़ा कर लेते हैं। आप कोई मामूली शख़्स नहीं रह जाते बल्कि एक ख़ास मक़ाम अपने लिये मुक़र्रर करते हैं। बुलन्दी पर रहने की वजह से सबकी नज़रें आपकी तरफ़ उठती हैं। जिन लोगों को आप अपनी बात समझाना चाहते हैं वो अल्फ़ाज़ को आपके अमल की तराज़ू पर तौलते हैं। वो आपके पिछले दौर को दौरे-जाहिलियत कहकर किसी हद तक नज़र अन्दाज़ कर सकते हैं लेकिन आपके हाल और मुस्तक़बिल पर उनकी नज़र ज़रूर रहती है। *कथनी और करनी का फ़र्क़ सबसे बड़ी रुकावट है।* आप जो कहते हैं अगर आप ख़ुद उस पर अमल नहीं करते तो पहले ही दिन ये पैग़ाम देते हैं कि जो पैग़ाम आप लेकर उठे हैं वो क़ाबिले-अमल ही नहीं है। फिर आपको किसी मुस्बत नतीजे और ख़ुश कर देने वाले अंजाम की उम्मीद नहीं रखनी चाहिये। इसलिये इतनी ही बात कहिये जितनी बात पर आप ख़ुद अमल करते हों। जितना-जितना अमल करते जाएँ उतना ही कहते जाएँ।
दूसरी बात जिसका ख़याल रखना है वो ये है कि *चादर देखकर पाँव फैलाइये।* आपकी ज़िम्मेदारी पूरी क़ौम और पूरे मुल्क की इस्लाह नहीं है। आपकी ज़िम्मेदारी बिसात भर काम करना है। अगर आप अपनी गली और मोहल्ले भर में काम कर सकते हैं तो पूरे शहर में अपनी क़ुव्वत और ताक़त को मत लगाइये। पहले अपना दायरा-ए-अमल तय कीजिये। फिर काम का नक़्शा बनाइये। आज तक हम यही ग़लती करते रहे हैं कि कुल हिन्द और ऑल इण्डिया सतह से कम कोई सोसाइटी और अंजुमन नहीं बनाते बल्कि अब तो बैनल-अक़वामी यानी इंटरनेशनल का रिवाज भी चल निकला है। धोखे के इस जाल से बाहर ही रहना चाहिये। एक प्रोजेक्ट पूरा करने के बाद ही दूसरा प्रोजेक्ट शुरू कीजिये। वरना सारे काम बेनतीजा रहते हैं। कोशिश कीजिये कि हर काम के लिये अलग लोग हों ताकि एक ही शख़्स पर बोझ न पड़े। हमारा मक़सद इस्लाह है अगर एक शख़्स और एक ख़ानदान में भी हमारी कोशिशों से कोई तब्दीली आती है तो हमारी ख़ुशनसीबी है।
तीसरी बात ये है कि क़ौम से किसी भी क़िस्म के अज्र की उम्मीद मत रखिये और नक़द अज्र की तो बिलकुल भी नहीं, यहाँ मरने के बाद मैडल से नवाज़े जाने का रिवाज है। जीते जी तो मुहब्बत के दो बोल नहीं मिलते, मरने के बाद ताज़ियती पैग़ामात अख़बारात की ज़ीनत बनते हैं और मरनेवाले पर ‘नाक़ाबिले-तलाफ़ी नुक़सान करके जाने’ का ख़ूबसूरत इल्ज़ाम भी लगा दिया जाता है। इसलिये जो काम भी कीजिये बग़ैर किसी लालच, बग़ैर किसी अज्र के कीजिये। आप भी ये ऐलान कीजिये कि *मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता; मेरा अज्र और बदला तो रब्बुल-आलमीन के ज़िम्मे है।* (42:109) बल्कि आगे बढ़कर कहिये कि *हम तुमसे कोई बदला तो क्या शुक्रिये के अल्फ़ाज़ के भी ख़्वाहिशमन्द नहीं।* (57:09)
चौथी बात ये कि सबसे पहले आपकी मुख़ालिफ़त वो लोग करेंगे जिनसे आपको तआवुन की उम्मीद होगी। *हर वो शख़्स जिसके फ़ायदों पर आप की इस्लाह का हथोड़ा पड़ेगा बिलबिला उठेगा।* सियासी लीडर आप पर सियासत करने का इल्ज़ाम लगाएँगे। वो ग़ुण्डे और मवाली भी होंगे जो बुराई की आड़ में बड़ी बड़ी तिजारत कर रहे होंगे। मज़हबी गरोह के लोग भी आपके इस्लाम को इंचीटेप से नापेंगे। अपने ही दोस्त आपका मज़ाक़ उड़ाएँगे। इस्लाह के लिये जो लोग पहले ही से मैदान में हैं वो आप पर डेढ़ ईंट की मस्जिद अलग बनाने का इल्ज़ाम लगाएँगे। *इन हालात में किसी को सफ़ाई देने में अपना वक़्त बर्बाद नहीं करना है,* क्योंकि मुख़ालिफ़त का ये तूफ़ान साबुन के झाग से ज़्यादा अहमियत नहीं रखता। आपका ख़ुलूस, आपकी नीयत और आपका काम ही उसका जवाब है। अगर आप लोगों को सफ़ाइयाँ देने में उलझ गए तो उलझते ही जाएँगे और काम नहीं कर सकेंगे। *मुख़ालिफ़त के तीर जिधर से भी आएँ पलटकर मत देखिये वरना अपने ही दोस्तों से सामना होगा।* जहाँ तक मुमकिन हो अपने मीठे बोलों और दिल की कुशादगी से मुख़ालिफ़ाना तीरों का मुक़ाबला कीजिये।
पाँचवीं बात ये है कि अपने साथी और मुआवेनीन (सहयोगियों) को साथ लेने से पहले ख़ूब जांच और तौल लीजिये; *ऐसा न हो कि हवा का एक झोंका ही उन्हें उड़ा ले जाए।* बुज़दिल और कम हिम्मत साथी से अकेले काम करना बेहतर है। नादान दोस्त से दाना दुश्मन अच्छा है। बुज़दिल दोस्त हौसला बढ़ाने के बजाय हिम्मत हारने की बात करता है। किसी भी पक्षपात मसलन मज़हबी, ख़ानदानी, ब्रादरी, रंग और ज़बान वग़ैरा का शिकार मत हो जाइये, *जो आपका साथ देने को तैयार हो और आप समझते हों कि वो काम का भी है तो उसे अपने सीने से लगाकर रखिये।* चाहे वो किसी भी मज़हब का मानने वाला और कोई भी ज़बान बोलने वाला हो। अपने साथियों की दिलजोई करते रहिये, उनका हौसला बढ़ाते रहिये। मशवरों से काम कीजिये और मशवरों के आदाब और सलीक़ों का भी ख़याल रखिये।
छटी बात ये है कि *देश के संविधान की इज़्ज़त और सम्मान कीजिये।* संविधान के दायरे से बाहर कोई काम मत कीजिये। इसी तरह बिला वजह लोगों को अपना दुश्मन मत बनाइये। जज़्बात में मत आइये। ग़ुस्से पर क़ाबू रखिये। झगड़े की नौबत न आने दीजिये वरना आपके मुख़ालिफ़ आपको क़ानूनी दाँव-पेच में उलझा देंगे। *जहाँ आपका दामन किसी काँटे से उलझे, उलझा हुआ दामन फाड़कर आगे बढ़ जाइये।* अक़लमन्दी का तक़ाज़ा है कि *झगड़े के बग़ैर कामयाबी हासिल कीजिये।* मस्लकी इशूज़ पर बिलकुल बात मत कीजिये। ये फ़र्क़ हमेशा याद रखिये कि आप एक सोशल एक्टिविस्ट हैं कोई मज़हबी मुस्लेह और सुधारक नहीं। *मज़हबी और समाजी इदारों का एहतिराम कीजिये। इनकी मुख़ालिफ़त करके इनके तआवुन से महरूम होने के बजाय हिकमत के साथ इन इदारों का तआवुन हासिल कीजिये।* आपको हर समाज की भलाई, तरक़्क़ी और तब्दीली के लिये काम करना है। *कोशिश कीजिये आपकी पहचान ऐसी हो जिसपर किसी को ऐतिराज़ व इख़्तिलाफ़ न हो और आपकी हैसियत एक हक़ बात कहने वाले और इन्साफ़-पसन्द की हो।
सातवीं बात ये है कि हर मामले में बीच की राह अपनाइये। आप पर अपने नफ़्स का भी हक़ है कि इसे आराम दिया जाए, आप पर अपने ख़ानदान का भी हक़ है और उन लोगों का भी जिनकी ज़िम्मेदारी आपके ऊपर है कि उन्हें मुहब्बत भी मिले और उनकी जायज़ ज़रूरतें भी पूरी हों। आप पर अपनी तिजारत और रोज़ी कमाने के ज़रिओं का भी हक़ है। अपने रिश्तेदारों के भी हक़ हैं। अक्सर ये देखा गया है कि क़ौम की ख़िदमत में हम इतने मस्त हो जाते हैं कि अपने रिश्तेदारों के हुक़ूक़ भूल जाते हैं जिसके नतीजे में घर से ही मुख़ालिफ़त शुरू हो जाती है। अपने घर-ख़ानदान को न सिर्फ़ अपनी सरगर्मियों से वाक़िफ़ कराइये बल्कि उन्हें अपने साथ लगाइये।* ख़्वातीन और ख़ास तौर से कारकुनों की ख़्वातीन के तआवुन के बग़ैर काम करना बहुत मुश्किल होगा। इसलिये कि हमारी ख़्वातीन आबादी का आधा हिस्सा हैं, इस तरह हमारा आधा सरमाया भी हैं और आधी ताक़त भी। इनको नज़रअन्दाज़ करके हमारा मुस्तक़बिल कभी रोशन नहीं हो सकता। अपने वक़्त को इस तरह बाँटिये कि हर काम के लिये वक़्त निकल आए और आपकी ज़िन्दगी का कोई शोबा मुतास्सिर न हो।
आख़िरी बात वो है जो हर मोमिन, मुसलमान का अक़ीदा है कि तमाम ख़ज़ानों, कामरानियों और कामयाबियों की कुंजियाँ अल्लाह रब्बुलइज़्ज़त के हाथ में हैं। वही ग़ैब का जाननेवाला है। उसी के मंसूबे के मुताबिक़ कायनात का निज़ाम चल रहा है। उसी के हाथ में नतीजे हैं, वही जानता है कि नतीजे कब आएँगे। इतना ज़रूर है कि वो किसी की मेहनत बर्बाद नहीं करता, वो अपने बन्दों को आज़माता है मगर मायूस नहीं करता। उससे लौ लगाइये, उसी की तरफ़ निगाहें उठाइये, उसका दरवाज़ा दोनों हाथों से खटखटाइये, वो आपकी शह-रग से भी क़रीब है।
हर रहगुज़र से ख़ार हटाते हुए चलो।
दुश्मन को अपना दोस्त बनाते हुए चलो॥
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली