किसानों की आय दोगुनी करने वाले देश के प्रधान सेवक से पूछता हूं;

सड़कों पर मरते देखकर किसान को,

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नींद कैसे आ रही है देश के प्रधान को?

देश का अन्नदाता ठिठुरती ठंड में मौत को गले लगा रहा है और देश का प्रधान सेवक उत्सव मना रहा है। यह मंजर “रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था” की कहावत को चरितार्थ कर रहा है।

आप किसी भी राजनीतिक दल के समर्थक हो सकते हैं, आप किसी भी नेता के अनुयाई हो सकते हैं परंतु उसकी गलत बात का भी समर्थन करना आपकी वैचारिक दरिद्रता को दिखाता है।

लोकतंत्र में सबसे बड़ा विपक्ष उस देश का नागरिक होता है जिसे हर हाल में अपने जैसे लोगों के साथ खड़ा होना चाहिए। जब राजनीति आप पर वैचारिक नियंत्रण करने में कामयाब हो जाती है तो आप समझ लीजिए आप मानसिक गुलामी की तरफ बढ़ रहे हैं।

सोशल मीडिया पर पिछले कई दिनों से देख रहा हूं कुछ लोग किसानों का आकलन कर रहे हैं और उनमें कमियां ढूंढ रहे हैं। साथ ही अपने महान और पवित्र सरकार को डिफेंड कर रहे हैं।

किसानों को कभी खालिस्तानी बताया जा रहा है, कभी पड़ोसी देशों से फंडिंग हो रही है, कभी उन्हें वामपंथी, लिबरल, अर्बन नक्सलियों का समर्थन प्राप्त होना बता दिया जा रहा है।

परंतु पवित्र सरकार को डिफेंड करने के चक्कर में लोग यह भूल गए हैं की प्रशासन की नजरों में असामाजिक करार दिया हुआ अन्नदाता ठंड के मौसम में भी पानी की बौछारें झेल कर, मौत को भी गले लगाकर क्यों सड़क पर अड़ा हुआ है?

इतिहास को पढ़िए नील आंदोलन, चंपारण सत्याग्रह, बारदोली का इतिहास, बिजोलिया आंदोलन ने किस तरह सत्ता को जड़ से उखाड़ दिया। हम आज पढ़कर तो खुश होते हैं और सरदार पटेल, गांधी, राजेंद्र प्रसाद, विजय सिंह पथिक जैसे लोगों को अपना आदर्श भी मांनते हैं

जिन्होंने सत्ता के विरुद्ध नागरिकों का साथ दिया, किसानों के लिए आंदोलन किया। हम आज उन्हें महापुरुष मानते हैं परंतु आज जो किसानों के साथ खड़ा है उन्हें हम देशद्रोही, खालिस्तानी, अर्बन नक्सल जैसे शब्दों से नवाज रहे हैं।

यह राजनीति है मित्रों जहां पर एक नागरिक को सत्ता कुचल रही है और दूसरा नागरिक कुचलने की आदत को जायज बता रहा है। इतिहास बहुत क्रूर होता है जब भी लिखा जाएगा सच लिखा जाएगा।

सरकार कितनी ही लोकप्रिय हो,  स्वघोषित राष्ट्रवादी हो, नेता कितना ही महान हो परंतु देश के अन्नदाता से महान कोई नहीं हो सकता जो खुद भूखा रहकर सारे देश का पेट भरता है। उसी अन्नदाता को आज अपने हक के लिए सड़क पर मरना पड़ रहा है। और आप उसी अन्नदाता में दोष ढूंढ रहे हैं तो देशद्रोही आप हैं।

इस देश में केवल राजनीतिक लोग नहीं रहते। इस देश में ऐसे नागरिक भी रहते हैं जो दुखी होते हैं जब सड़क पर बेबस मजदूर चलता है, जब किसान को कहीं पर पीटा जाता है, जब किसान ठंड में ठिठुरते हुए मरता है तो उसके मन में भी पीड़ा होती है।

उसका भी मन करता है किसानों के पक्ष में कुछ लिखूं या अपना नजरिया लोगों तक पहुंचा दूं। परंतु वह डरता है कहीं कोई उसे राजनीति न समझ बैठे, कोई उसे विरोधी न करार दे दे, कोई उसे देशद्रोही ना बता दे इसलिए सब कुछ जानते हुए भी वह व्यक्ति अपना पक्ष नहीं रख पाता है। इसी को मैं राजनीति का वैचारिक नियंत्रण कहता हूं। यह कुछ और नहीं बल्कि गुलामी है।

समय और लोकतंत्र की यही मांग है कि सारे देश को, देश के हर वर्ग को, देश के हर मजदूर को,  किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए। आप समर्थन नहीं कर सकते तो कम से कम विरोध तो ना करें। सरकार के पास अपना एजेंडा रखने के लिए गोदी मीडिया है। किसान के पास कोई आईटी सेल नहीं है जो उसकी बात को हजार गुना तोड़ मरोड़ कर पेश कर सके।

आप स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं थोड़ा खुले दिमाग से सोचिए और देश के अन्नदाता का साथ दीजिए। अगर आप आज देश के अन्नदाता के साथ खड़े नहीं हुए तो अगला नंबर आपका हो सकता है।

हरिओम पवार के शब्दों में बस इतना कहना चाहूंगा;

भूख का निदान झूठे वायदों में नहीं है,

सिर्फ पूंजीवादियों के फायदे में नहीं है।

जितेंद्र चौधरी, प्रधान सम्पादक, विशाल इंडिया

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