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लेख : ये दौर हथियारों से जंग का नहीं बल्कि क़लम और कर्सर की जंग का है: कलीमुल हफ़ीज़

तालीम एक ऐसा टॉपिक है जिसपर जितना लिखा जाए कम है। यही हाल इल्म के फैलाव और उसकी गहराई का है कि जितना हासिल कर लिया जाए कम है। तालीम के साथ तालीमी नज़रियात भी चलते हैं।

फ़िक्र ही इन्सानों को अलग-अलग ख़ानों में बाँटते हैं। दुनिया में नज़रियों के बीच जंग हमेशा रही है। तंज़ीमें और हुकूमतें नज़रियों के ग़लबे के लिये हर तरह की जिद्दोजुहद और कोशिश करते रहे हैं।

इस जिद्दोजुहद में किसी ज़माने में फ़ौज, सिपाही, तीर, तोप और तलवार हुआ करते थे मगर आज के दौर में सबसे बड़ा हथियार क़लम, कर्सर, सिलेबस और निज़ामे-तालीम (Education system) है।

भारत में इस्लाम से पहले का निज़ामे-तालीम समाज के ख़ास वर्गों को इल्म हासिल करने की इजाज़त देता है। उस निज़ामे-तालीम के तहत एक शम्बूक को इल्म हासिल करने के कारण जान से हाथ धोना पड़ता है।

इस्लाम के आने के बाद हालाँकि तालीम पर लगी क़ैद ख़त्म हो गई थी लेकिन इल्म हासिल करने के ज़राए महदूद होने की वजह से एक बड़ा तबक़ा तालीम से महरूम ही रहा। यहाँ हालाँकि किसी शम्बूक का क़त्ल तो नहीं हुआ मगर मुसलमानों पर मक़ामी कल्चर के असरात की ही वजह थी कि इल्म और तालीम सिर्फ़ बड़े घरानों तक महदूद होकर रह गई।

इसी तरह नज़रियाती तौर पर इस्लाम से पहले का निज़ामे-तालीम इन्सानों में पैदाइश की बुनियाद पर भेदभाव और नस्ल की बुनियाद पर बरतरी और शिर्क का क़ायल था। इस्लामी निज़ामे-तालीम की बुनियाद तौहीद और इन्सानी बराबरी पर थी।

भारत में अंग्रेज़ों के आने के बाद हालाँकि तालीम हासिल करने के ज़राए (resources) बहुत बढ़ गए और तालीम हर शख़्स तक पहुँचने लगी, मगर नज़रियाती और वैचारिक स्तर पर अंग्रेज़ी एजुकेशनल सिस्टम ख़ुदा के इनकार और भौतिकवाद का झंडावाहक था जो इन्सानों को ख़ुदा के बजाय सिर्फ़ पेट का ग़ुलाम बनाता था।

जिसमें अख़लाक़ी क़द्रें गुम हो गई थीं, इसीलिये अल्लामा इक़बाल (रह०) ने कहा था :

हम तो समझे थे कि लाएगी फ़राग़त तालीम।

क्या ख़बर थी कि चला आएगा इलहाद भी साथ॥

आज़ादी के बाद का निज़ामे-तालीम अँग्रेज़ी तरीक़े पर ही क़ायम रहा और नज़रियात और विचार भी लगभग वही बने रहे, इसलिये कि भारत की सरकार जिन लोगों के हाथों में आई वो उसी निज़ामे-तालीम के पाले-पोसे हुए थे।

अँग्रेज़ी राज में मुसलमानों ने अपने तालीमी निज़ाम को जैसे-तैसे क़ायम और बाक़ी रखा और ख़ुद को नास्तिकता और भौतिकवाद से बचाए रखा, लेकिन आज़ादी के बाद वो बेफ़िक्र हो गए और सरकारी निज़ामे-तालीम का हिस्सा बन गए। जिसका वैचारिक केन्द्र कहने को तो सेक्युलर था मगर सिलेबस में बहुसंख्यक वर्ग के प्रभाव नज़र आते थे।

फिर ये हुआ कि धीरे-धीरे शुरूआती सतह पर सरकारी निज़ामे-तालीम चौपट हो गया और उसकी जगह प्राइवेट तालीमी इदारों ने ले ली। देशभर में ये इदारे हर जगह क़ायम हुए और हर मज़हब के लोगों ने बनाए, जहाँ जिसकी अधिकता और ज़रूरत थी उन्होंने प्राइवेट स्कूल बनाए। उन स्कूलों में ईसाई मिशनरी के सेंट मेरी और संघ के शिशु मन्दिर सबसे ख़ास थे।

देश भर में ईसाई मिशनरी के ज़रिए स्कूल बनाए गए जबकि ईसाइयों की आबादी देश में इतनी भी नहीं कि उसका ज़िक्र किया जाए।

ये स्कूल और संस्थाएँ उत्तर से दक्षिण तक शहर और देहात में हर जगह मौजूद हैं। इन स्कूलों और संस्थाओं में चर्च भी हैं। ज़्यादातर स्कूलों में प्रिंसिपल ईसाई हैं। ये स्कूल तालीम के साथ एक ख़ास नज़रिये की तबलीग़ और प्रचार-प्रसार करते हैं।

ईसाई मिशनरी के ढंग पर ही विद्या भारती के तहत तालीमी इदारे बनाए गए। ये आरएसएस का एजुकेशनल बोर्ड है। संघ के तहत प्राइमरी से लेकर डिग्री कॉलेज तक स्कूल बने। अब तो मेडिकल, इंजीनियरिंग और दूसरे प्रोफ़ेशनल कोर्सेज़ के कॉलेज भी बन चुके हैं।

इन स्कूल और कॉलेजों में भी मज़हबी रस्में अदा की जाती हैं। अब सवाल ये है कि ईसाई आबादी के लिहाज़ से 3 या 4 परसेंट हैं फिर उन्होंने अपना तालीमी निज़ाम क्यों क़ायम किया? अगर उनका मक़सद ईसाइयत को बढ़ावा देना नहीं है तो और क्या है? अगर सिर्फ़ तालीम मक़सद है तो तालीमी इदारे (यानी स्कूल और कॉलेज) में चर्च क्यों है और ज़्यादातर इदारों में ईसाई प्रिंसिपल क्यों है?

इसी तरह आज़ादी के बाद देश की सत्ता हालाँकि संवैधानिक तौर से तमाम भारतियों के हाथों में आई थी, मगर अमली तौर से इस देश के हुक्मराँ बहुसंख्यक वर्ग के लोग ही थे। इसके बावजूद कि हुक्मराँ भी हिन्दू थे, हिन्दी भाषा को सरकारी ज़बान का दर्जा भी हासिल था और तालीम देनेवाले टीचर्स की तादाद भी ज़्यादातर हिन्दू थी फिर आरएसएस ने अलग से अपना तालीमी निज़ाम क्यों लागू किया।

इसका मक़सद सिवाय इसके क्या था कि वो हिन्दू मज़हबी नज़रिये को बढ़ावा देना चाहते थे। अगर उनके नज़दीक हिंदुत्व को बढ़ावा देना मक़सद नहीं था तो उन्होंने अपने स्कूल और कॉलेजों में हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और मन्दिर क्यों बनाए।

उनके तालीमी इदारों में दाख़िल होते ही एहसास होता है कि आप किसी मज़हबी इदारे और माहौल में आ गए हैं। टीचर्स को आचार्य कहा जाता है, आचार्य महोदय का लिबास भी ख़ास कल्चर को दर्शाता है।

इन दोनों तरह के स्कूल और कॉलेजों के तजज़िये और विश्लेषण से यह बात साबित होती है कि स्कूल और कॉलेज तालीम के साथ नज़रियों और विचारों को भी पढ़ाते, बढ़ावा देते और ग़ालिब करते हैं।

ये तो मैंने सिर्फ़ दो क़ौमों या दो नज़रिये रखने वाले इदारों के हवाले से कुछ बातें कहीं, वरना आप तमाम नज़रियाती और वैचारिक तहरीकों और तंज़ीमों के तालीमी इदारों में यही चीज़ पाएँगे।

मुझे इससे इत्तिफ़ाक़ है कि जो क़ौम या तहरीक अपने तालीमी इदारे क़ायम करती है उसे अपने नज़रियों को बढ़ावा देने का हक़ हासिल है,

लेकिन मैं इससे इत्तिफ़ाक़ हरगिज़ नहीं करता और न किसी देश-प्रेमी को करना चाहिये कि तालीम के ज़रिए नई नस्ल में इन्सानियत दुश्मनी, क़ौमों में नफ़रत पैदा करनेवाली बातें, ना-बराबरी और असमानता की भावनाएँ, नस्ली बरतरी और गर्व का एहसास पैदा किया जाए। ये चीज़ें क़ौम, देश और इन्सानियत को तबाह कर देनेवाली हैं।

आज़ादी के बाद जैसा कि मैंने कहा कि आम मुसलमानों की तालीम का दारोमदार सरकारी स्कूलों पर हो गया। अपने मकतब, मस्जिद और क़ुरआन तक सीमित रखे। अपना कोई ऐसा तालीमी निज़ाम नहीं बनाया जो वक़्त, क़ौम और मुल्क की ज़रूरतों को पूरा करता हो।

प्राइवेट इदारे अगर क़ायम भी किये तो वो भी ब्रादराने-वतन के इदारों के ढंग पर, दोनों में कोई खुला फ़र्क़ नहीं था, बल्कि एजुकेशनल स्टैण्डर्ड के लिहाज़ से ब्रादराने-वतन के इदारे ज़्यादा बेहतर थे। मुस्लिम इदारे इन्तिज़ामी झगड़ों का शिकार होकर बर्बाद हो गए,

टीचर्स कम तनख़ाहों का रोना रोते रहे, भाई-भतीजावाद और ग़ैर-उसूलापन ने बुनियादें तक हिला दीं और इस तरह पूर्वजों के क़ायम किये हुए इदारे महज़ तालीमी दुकान या इजारेदारी और ठेकेदारी के केन्द्र बनकर रह गए। आप उत्तरी भारत के उन तमाम स्कूलों और कॉलेजों का जायज़ा ले-लीजिये जिनके नाम के साथ मुस्लिम और इस्लामिया लगा हुआ है आपको कम या ज़्यादा यही सूरते-हाल नज़र आएगी।

प्राइवेट तालीमी इदारों के बाद मौजूदा दौर आया जिसमें तालीम तिजारत बन गई और तालीमी इदारे व्यक्तिगत सतह पर क़ायम हुए। जिनका मक़सद सिर्फ़ पैसा कमाना हो गया। इन इदारों में भी ब्रादराने-वतन ने अपने स्कूलों और कॉलेजों में भारतीय संस्कृति को ही प्राथमिकता दी। मुस्लिम स्कूल और कॉलेज ईसाई मिशनरी के रंग में और मग़रिब (पश्चिम) की नक़्क़ाली करते हुए ही नज़र आए।

मेरे कहने का मक़सद ये है कि तालीम की इस जंग में मुसलमान किस मोर्चे पर हैं। क्या इनके पास अपना कोई तालीमी निज़ाम है? कोई फ़िक्र और नज़रिया है? उनके नज़दीक तालीम का मक़सद क्या है? इन्होंने इदारे क्यों क़ायम किये?

इनके तालीमी इदारों और दूसरे तालीमी इदारों में क्या खुला फ़र्क़ है? ये वो सवालात हैं जो हर उस शख़्स को अपने-आपसे करने चाहियें जिसने कोई तालीमी इदारा क़ायम किया है या वो किसी तालीमी इदारे का मैनेजर या प्रिंसिपल है।

ज़रूरत है कि इदारों के ज़िम्मेदार इन सवालों पर ग़ौर करें और अपने तालीमी इदारों की दिशा तय करें। हमारे इदारों का मक़सद नई नस्ल को इस तरह तैयार करना होना चाहिये कि वो ऊँची अख़लाक़ी क़द्रों की पाबन्द हो, इन्सानियत की ख़िदमत के जज़्बे से भरी हो और मुल्क की वफ़ादार हो,

उसके अन्दर अपनी नस्ल पर बरतरी का अहसास न हो, वो भेदभाव और ऊँचनीच के तसव्वुर से आज़ाद हो। अपने इदारों का माहौल और तालीम का मैयार (स्टैण्डर्ड) ऐसा हो कि ग़ैर भी वहाँ पढ़ने की ख़्वाहिश रखें।

ये काम मुश्किल है मगर मौजूदा हालात की ख़तरनाकी के चलते अपने भविष्य को तबाह व बर्बाद होते देखनेवालों के लिये कुछ मुश्किल नहीं। ख़ास तौर पर मदरसे वाले ज़माने की ज़रूरतों के मुताबिक़ सिलेबस को अपडेट कर लें तो मुल्क व मिल्लत की एक बड़ी ज़रूरत पूरी हो जाएगी।

कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली

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