कृष्णकांत

गरीब मां का बेटा बनकर वोट लेना और सत्ता में आकर उन्हीं गरीबों के खिलाफ नीतियां बनाने का खेल खेलना आम जनता के साथ धोखा है। चुनाव के समय आपने ये नहीं कहा था जो आपका कानून कहता है। देश की जनता से कहा गया कि बचपन मे “चाय बेचने वाला” और “गरीब मां का बेटा” पीएम बनेगा। देश की आम जनता को लगा कि कोई मेरे जैसा व्यक्ति देश की सबसे ऊंची कुर्सी पर होगा। वह हमारे जैसा है तो गरीबी और गरीब की परेशानी समझेगा। लोगों ने खुद को रिलेट किया।

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अब वही गरीब मां का बेटा हर चीज का तेजी से  निजीकरण कर रहा है। निजीकरण का झोंका अब खेती तक आ पहुंचा है। ये सिर्फ कृषि बाजार का मसला नहीं  है। पूंजीवादी मनमोहनी अर्थशास्त्र का आदर्श अमेरिकी पूंजीवाद है जिसका अंतिम सपना है कि कृषि की जमीनें कुछ प्रतिशत लोगों के पास होंगी। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग होगी। इसके लिए छोटे किसानों को खेती छोड़ना पड़ेगा। लेकिन भारत में 85 प्रतिशत से ज़्यादा छोटे या सीमांत किसान हैं। आज भी भारत की 50 प्रतिशत से ज़्यादा जनता कृषि पर निर्भर है। अभी अभी कोरोना में करोड़ों लोग बेरोजगार हुए। अर्थव्यवस्था गर्त में चली गई तो खेती ने ही लोगों को सहारा दिया। आज भारत मे कृषि अकेला सेक्टर है जो फायदे में है, बाकी सब डूब चुका है।

चार दशक पहले जब भारत पर खाद्य संकट था तब भी किसानों ने बचाया था। जब भारत पर महामारी का संकट आया तब भी किसानों ने बचाया है। लेकिन गरीब मां का बेटा भारत की गरीब जनता के बारे में नहीं सोच रहा है। झटके में निजीकरण तो हो जाएगा, लेकिन जो खेती छोड़ेंगे, उनके  लिए रोजगार कहां हैं? भारत की समूची जनता के लिए रोजगार कहाँ हैं? मोदी उस समय भी कह रहे थे कि हम दो करोड़ रोजगार देंगे। हम बाजारवाद को तेजी से लागू करेंगे। जनता ने उसका मतलब समझा हो या नहीं, लेकिन ऐतिहासिक बेरोजगारी ने वह वादा पाताललोक पहुंचा दिया है। करोड़ों बेरोजगारों की फौज देखते हुए किसान ये कैसे भरोसा कर लें कि आप उन्हें मालामाल कर देंगे?

अगर ये खेती भी निजी हाथों में चली गई तो भारत पर ऐतिहासिक संकट आएगा। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि देश का तेजी से निजीकरण किया जा रहा है। बात ये भी है कि इस सरकार और इसके तंत्र से आम जनता का भरोसा उठ रहा है। इसलिए किसान सरकार से ज्यादा अम्बानी और अडानी का विरोध कर रहे हैं। एक विकासशील देश, जो अपने बेरोजगारों और गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों का आंकड़ा दबा लेता है, वह अमेरिकी पूंजीवाद के पीछे फिजूल में पागल है। अमेरिकी विकास का मॉडल भारत को संकट में डाल सकता है।

(लेखक पत्रकार एंव कथाकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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