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‘तेरी औकात नहीं है…. राजधानी ट्रेन में सफर करने की, इसमें केवल बड़े लोग चलते हैं!’

अरविंद शेष

आज मेनस्ट्रीम और सोशल मीडिया से लेकर तमाम संवेदनशील लोगों के जज्जबातों में गुस्से की सुनामी उमड़ी दिखाई पड़ रही है। और इससे लगता है कि लोग संवेदनशील हैं… जागरूक हैं और उनके भीतर गुस्सा बचा हुआ है। लेकिन दिल्ली में समूची मेट्रो ट्रेन ऐसी ही औकात वाले लोगों से छीन ली गई, किसी का जमीर कांपा? अगर कोई नकद पैसे चुका कर मेट्रो का टोकन लेकर या कार्ड रिचार्ज करा के मेट्रो में सफर करना चाहता है, या ऐसा करना उसकी मजबूरी है, तो उससे मेट्रो ट्रेन में घुसने तक का अधिकार छीन लिया गया है। और यह अधिकार किसी सामंती टुच्चे टीटीई ने नहीं छीना है, बल्कि खुद घोषित लोकतांत्रिक सरकार ने छीना है। कहीं से कोई आवाज उठती देखी इस मसले पर किसी संवेदनशील आत्मा की या फिर किसी राजनीतिक पार्टी की?

क्यों? क्या इसलिए कि मेट्रो में नकद पैसे चुकाने से कोरोना फैलता है? जब कोई अपना डेबिट या क्रेडिट कार्ड पर्स में से निकाल कर काउंटर पर बैठे व्यक्ति को देता है, वह व्यक्ति मशीन देता है पासवर्ड डालने के लिए, रसीद निकाल कर देता है, तो उससे कोरोना नहीं फैलता है और नकद नोट देने से कोरोना फैल जाएगा? समूचे देश में फिलहाल नकद रुपए-पैसों को गैरकानूनी नहीं घोषित किया गया है और मेट्रो में या रेलवे में या कई जगहों को बिना किसी हिचक के कैशलेस कर दिया गया. कैश पर निर्भर लोगों के अधिकार छीन लिए गए, उन्हें दलालों के इंद्रजाल में फंसा दिया गया किसी का रोयां नहीं कांपा!

अंतरराष्ट्रीय स्तर के अर्थशास्त्री जॉन फ्रिस्बी की चार साल पहले लिखी लाइन अब भी याद है- ‘कैशलेस व्यवस्था गरीबों के खिलाफ युद्ध की घोषणा है!’  राजधानी ट्रेन में केवल ‘औकात वालों’ को सफर करने का अधिकार होने की घोषणा करने वाला टीटीई शुक्रिया का हकदार है कि कम से कम उसने सीधे-सीधे यह कह दिया! सरकारें चुपचाप उससे अलग क्या कर रही हैं? उस टीटीई से लेकर सरकार तक अलग-अलग पैमाने से औकात ही तय कर रहे हैं!

(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं)

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