सीकरः राजस्थान में सीकर से जयपुर तक की राजनीति में माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) को कामरेड अमराराम ने एक अहम मुकाम पर पहुंचाया लेकिन धीरे-धीरे माकपा का जनाधार खिसकता ही गया। परिणाम स्वरूप कामरेड अमराराम जहां से शुरू हुए थे उसी संघर्ष की राह पर फिर पहुंच गए हैं। कहने का मतलब है कि संघर्ष करते करते आगे बढ़ने वाले का.अमराराम की माकपा को एक के बाद एक हार का सामना करने के कारण आज उनका और पार्टी का वजूद पूरी तरह दरकता दिखाई दे रहा है। अभी पिछले दिनों हुए पंचायत चुनाव के नतीजों को ही देख लो जिसमे अमराराम अपने लालगढ़ कहे जाने वाले धोद और दांतारामगढ़ क्षेत्र में वे ऐसा कोई करिश्मा नहीं कर पाए हैं, जिसके सहारे आने वाला समय माकपा के लिए फिर स्वर्णकाल कहला सके।

दरअसल कामरेड अमराराम छात्र राजनीति की पैदाइश है,जिन्होंने संघर्ष के बल पर धोद विधानसभा क्षेत्र में अंगद के पैर की तरह जमी महरिया राजनीति को उखाड़ फेंका था. इसके बाद देखते ही देखते धोद राजस्थान में माकपा की राजनीति का प्रमुख केन्द्र बन चुका था.। माकपा ने क्षेत्र की जनता ने अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए जुझारू प्रदर्शन किए। ,खास कर इसके लिए माकपा ने बिजली को मुद्दा बनाया.किसान मजदूर के हितों की राजनीति को हवा देकर अमराराम ने अपने आप को प्रदेश स्तर का नेता स्थापित कर लिया।

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माकपा ने लगातार तीन बार धोद विधानसभा से जीत दर्ज कर राज्य में का अमराराम को दिग्गज नेताओं की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया।.ऐसे में डेढ़ दशक तक धोद में माकपा का दबदबा। इस बीच एक समय ऐसा भी आया जब विधानसभा क्षेत्र परिसीमन के कारण कामरेड अमराराम को अपना क्षेत्र बदलना पड़ा. नतीजतन धोद की सियासत में तकड़ा बदलाव आया, परिसीमन के बाद जहां कामरेड अमराराम दांतारामगढ़ में कांग्रेस के दिग्गज नारायण सिंह को हराकर चुनाव जीत गए क्योंकि कामरेडों की संघर्षशीलता के दम पर दांतारामगढ़ क्षेत्र के मतदाताओं ने उनको एक जुझारू नेता के रूप में देखा.उधर धोद अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित हो जाने से कामरेड पेमाराम भी पहली बार चुनाव जीत गए.।

गौरतलब है कि यह वो समय था जब सीकर जिले में वामपंथी राजनीति चरम पर थी लेकिन इसके बाद वामपंथ का संघर्ष हिचकोले खाने लगा और आज वहीं पहुंच गया है जहां से कभी शुरू हुआ था। हालाकि देश, प्रदेश में वामपंथ की जैसी राजनीति स्थिति है,उससे इतर सीकर की राजनीति नहीं है.। बहरहाल माकपा को अपने अतीत को फिर से दोहराना है तो उन्हें अपनी पुरानी रणनीति बदलनी होगी।.यह अलग बात है कि कामरेड अमराराम ने अपना राजनीतिक जीवन संघर्ष से भरा गुजार कर अपने आप को स्थापित किया जरूर लेकिन आज वह स्थिति न तो उनकी है और ना ही माकपा की।

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