कलीमुल हफ़ीज़
लॉक-डाउन में ज़िन्दगी के तमाम शोबे मुतास्सिर हुए हैं। लेकिन तालीम का शोबा सबसे ज़्यादा मुतास्सिर हुआ है और अभी दूर-दूर तक स्कूल खोलने के इशारे तक नहीं मिल रहे हैं। तालीम से वाबस्ता करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए हैं। बच्चे सबक़ भूल रहे हैं। कहते हैं कि ज़रूरत ईजाद की माँ है। जब ज़रूरत सर पर आ पड़ती है तो इन्सान उसको पूरी करने के लिये लाख जतन करता है। इन हालात में ऑनलाइन तालीम ही एक सहारा है जो कम से कम हमें तालीमी सरगर्मियों से जोड़े रख सकता है। ऑनलाइन एजुकेशन के ताल्लुक़ से स्कूलों को ये शिकायत है कि बच्चे और माँ-बाप इसकी तरफ़ से बहुत ज़्यादा लापरवाही दिखा रहे हैं।
ऑनलाइन एजुकेशन ने फ़ासले मिटा दिये हैं। अब एक उस्ताद चाहे वो दुनिया के किसी हिस्से में भी रहता हो और बच्चे किसी भी देहात में रहते हों तालीम ले, और दे सकते हैं। वक़्त की पाबन्दी से भी आज़ादी मिली है, जब फ़ुर्सत हो तब फ़ायदा उठाया जा सकता है। ये सहूलत भी मिली है कि ग़ैर-हाज़िर बच्चों को क्लास रिकॉर्डिंग भेजी जा सकती है। बच्चे भी रिकॉर्ड करके बाद में सुन सकते हैं। ऑनलाइन तालीम के ज़रिए कम वक़्त में ज़्यादा तालीम दी जा सकती है। आप स्कूल में आठ पीरियड में जितना पढ़ाते थे ऑनलाइन में सिर्फ़ चार पीरियड में पढ़ा सकते हैं। मेरा मशवरा है कि ऑनलाइन क्लासेज़ भी उसी प्रोटोकॉल से चलाई जाएँ जिस तरह हम ऑफ़लाइन चलाते हैं, जनरल असेंबली भी हो, क्लास रूम में दाख़िल होने के आदाब का ख़याल भी रखा जाए, स्क्रीन शेयर करके वर्चुअल पेन से लिखा जाए।
तालीमी निज़ाम की एक अहम् कड़ी सरपरस्त हज़रात ( Parents) हैं। इनमें बहुत-से लोग हालात के तक़ाज़ों को अच्छी तरह जानते हैं, स्कूल की मजबूरियों और ज़रूरतों से भी आगाह हैं, वो ऑनलाइन क्लास की अहमियत को भी समझते हैं और बच्चों के लिये फ़िक्रमन्द भी हैं। मगर कुछ बिलकुल इसके बरख़िलाफ़ हैं। हमें इनकी अलग-अलग लिस्ट बनाकर कॉउंसलिंग करना चाहिये। समझदार माँ-बाप के साथ ऑनलाइन मीटिंग भी की जा सकती है। PTM हर पन्द्रह रोज़ में हो तो अच्छा है, ताकि फ़ीडबैक मिलता रहे और सरपरस्तों का तआवुन हासिल होता रहे। वालिदैन के नज़दीक उनके बच्चे ही उनका सब कुछ हैं, माँ-बाप अपने बच्चों की ख़ातिर बड़े से बड़ी क़ुर्बानियाँ देते हैं। ऑनलाइन एजुकेशन में स्कूल के वाजिबात (Dues) की अदायगी उनकी ज़िम्मेदारी है।
ऑनलाइन टीचिंग में टीचर्स और स्टूडेंट्स का इस्तेमाल तो होगा लेकिन स्कूल का नॉन-टीचिंग स्टाफ़; जिसमें क्लर्क, ट्रांसपोर्ट, चपरासी, गार्ड वग़ैरा शामिल हैं, ख़ाली बैठ गए हैं। मुनासिब होगा कि इस दौरान नॉन-टीचिंग स्टाफ़ में से जिन लोगों की फ़िज़िकली ज़रूरत है उन्हें बुलाया जाए। एक से ज़्यादा लोग हों तो बारी-बारी बुलाया जाए। ताकि स्कूल की ज़रूरत भी पूरी हो और उनको कुछ माली फ़ायदा भी हो। नॉन-टीचिंग स्टाफ़ चूँकि मेहनत करनेवाला होता है इसलिये हम उनसे ऐसे काम भी ले सकते हैं जो आम हालात में उनकी ड्यूटी में शामिल नहीं हैं। मसलन अगर हमारे खेत हैं और उनमें से कोई शख़्स खेती करना जानता है तो उससे काम लेकर उसका मेहनताना दिया जा सकता है, कोई शख़्स जानवरों को पालने का काम जानता है तो उससे वो काम कराया जा सकता है। कोई फेरी वग़ैरा का काम कर सकता है तो उससे काम लिया जा सकता है। इन मशवरों से मेरा मक़सद ये है कि हमारा वो स्टाफ़ जो टीचिंग नहीं करता और ऑनलाइन टीचिंग की वजह से घर बैठ गया है और स्कूल भी घर बैठे तनख़्वाहें देने की पोज़ीशन में नहीं है, इन हालात में ऐसे अल्टरनेटिव पर ग़ौर किया जाना चाहिये जिनसे स्कूल और स्टाफ़ दोनों ख़राब हालात को अच्छे से गुज़ार ले जाएँ।
जहाँ तक मेनेजमेंट का ताल्लुक़ है उनकी ख़िदमत में अर्ज़ है कि इन्तिज़ामिया के लोग भी अपनी इल्मी सलाहियत को बढ़ाने के लिये कोई प्रोग्राम बनाएँ। एक बस्ती के जितने स्कूल हैं बेहतर होगा कि इन ख़राब हालात का मुक़ाबला करने के लिये उन सबकी इन्तिज़ामिया कोई मिली-जुली स्ट्रैटेजी बनाए। स्कूल की इमारत की देखभाल मामूल के मुताबिक़ की जाए, ताकि एक लम्बे वक़्त तक इस्तेमाल न करने की वजह से बड़ा नुक़सान न हो, इसी तरह ट्रांसपोर्ट को मेंटेन रखा जाए। वग़ैरह।
ऑनलाइन एजुकेशन की मुश्किलों में नेटवर्क का इशू अहम् है। इसका हल ये है कि मकान के जिस हिस्से में अच्छा नेटवर्क हो वहाँ बैठकर पढ़ा जाए, या सिम बदल लिया जाए। दूसरा इशू स्मार्ट फ़ोन का न होना है। इसका एक हल तो यही है कि मोबाइल ख़रीदा जाए, चाहे सेकंड हैंड ही ले लिया जाए, दूसरा हल ये है कि जिस क्लास-मेट के पास मोबाइल हो उसके साथ बैठकर स्टडी की जाए। एक दुश्वारी ये है कि मोबाइल एक है, और बच्चे एक से ज़्यादा हैं। इसका हल भी क्लास-मेट के ज़रिए या स्कूल से टाइम-टेबल में तब्दीली करके निकाला जा सकता है। कुछ माँ-बाप ने ये डर जताया है कि मोबाइल का ज़्यादा इस्तेमाल बच्चों की आँखों के लिये नुक़सानदेह है। हालाँकि आजकल के बच्चे बग़ैर क्लास के भी हर वक़्त मोबाइल से ही चिपके रहते हैं। इसका एक हल ये है कि तालीम के लिये कम्प्यूटर यानी डेस्क-टॉप या लैप-टॉप का इस्तेमाल किया जाए, मोबाइल का इस्तेमाल मजबूरी में किया जाए। कुछ सरपरस्त हज़रात ऑनलाइन एजुकेशन में किताबों की ज़रूरत का इनकार करते हैं, ये उस सूरत में तो सही है जब किताबें और सिलेबस ऑनलाइन मिला हो, लेकिन जो स्कूल किताबों से पढ़ा रहे हैं उन्हें किताबें ख़रीदनी ही होंगी, वरना बच्चे को परेशानी भी होगी और नुक़सान भी।
स्टूडेंट्स हमारा क़ीमती सरमाया हैं। उनको तालीमी सरगर्मियों से जोड़े रखने की जितने भी तरीक़े अपनाए जा सकते हों वो सब अपनाए जाएँ। ये हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि इन परेशान करनेवाले हालात में बच्चों की तालीम को मुतास्सिर न होने दें। इसलिये कि वो हमारा मुस्तक़बिल हैं।
ज़ुल्मत का इक़्तिदार मिटाते हुए चलो।
तालीम के चिराग़ जलाते हुए चलो॥
कलीमुल हफ़ीज़, नई दिल्ली