गृह मंत्री की क्या जवाबदेही है अब यह सवाल नए सिलेबस से बाहर किया जा चुका है। शिवराज पाटिल आख़िरी गृहमंत्री थे जिनसे सवाल किया जाता था। कल की हिंसक घटना के बाद ख़बर आती है कि गृह मंत्री ने उच्च स्तरीय बैठक की है और दिल्ली में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती के आदेश दिए हैं।

किसानों की परेड होने वाली थी। दिल्ली हरियाणा और यूपी के पुलिस अधिकारी लगातार किसान नेताओं के साथ बैठक कर रहे थे। क्या गृहमंत्री उन अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे थे? हालात की गंभीरता का जायज़ा ले रहे थे?

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क्या पहले ऐसी कोई ख़बर आई थी? इन सब सवालों के जवाब अटकलों से नहीं दिए जाने चाहिए बल्कि पूछा जाना चाहिए।

दो महीने से किसानों को दिल्ली आने से रोका गया। परेड के पहले ही साफ़ हो गया था कि एक धड़ा दिल्ली आने की बात कर रहा है तो ऐसे में पुलिस ने उस धड़े को लेकर क्या योजना बनाई थी?

इतनी बड़ी संख्या में किसान दिल्ली की सीमा पर आ चुके थे, उनमें से किसी भी हिस्से के तय कार्यक्रम से छिटकने की आशंका तो रही ही होगी। ऐसी स्थिति में दिल्ली के भीतर सुरक्षा की क्या तैयारी थी? दिल्ली पुलिस को अतिरिक्त बलों का कितना बैक अप दिया गया था?

क्या लाल क़िला से लेकर आई टी ओ तक एक धड़े को आने दिया गया? इसका ठोस जवाब मिलेगा या नहीं, पता नहीं। लाल क़िले के साथ जो होने दिया गया वह शर्मनाक है। इस ऐतिहासिक इमारत को क्षति पहुँची होगी।

लेकिन मुद्दा बनाया जा रहा है तिरंगा को लेकर। एक दिन पहले ख़बर आई थी कि हरियाणा के मंत्री तिरंगा फहराने के तय कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे। उन्हें ज़िला मुख्यालयों में जाना था और जिसका कार्यक्रम तय था। इसे लेकर तो सब चुप हैं कि मंत्री कैसे तिरंगा फहराने के कार्यक्रम से पीछे हट सकते हैं, जवान तो उसी के लिए जान देता है।

वो तो पीछे नहीं हटता। तिरंगा के बहस में आने से बहस बन जाती है इसलिए आप गोदी मीडिया और आई टी सेल का कुछ नहीं कर सकते। लेकिन हिंसा हिंसा है। ये अक्सर किसी भी आंदोलन को तोड़ने के काम आती है।हिंसा से किसका मक़सद पूरा हुआ इसे लिख कर बताने की ज़रूरत नहीं है। किस ख़ेमे में उत्साह है इसे बताने की ज़रूरत नहीं है।

दिल्ली पुलिस के 80 से अधिक जवान घायल हो गए हैं। लाल क़िले का एक वीडियो है जिसमें पुलिस के जवान जान बचाने के लिए नीचे गिर रहे हैं। उसी पुलिस के जवान ग़ाज़ीपुर बोर्डर पर आंसू गैस के गोले दाग़ रहे हैं।

वहाँ भी पुलिस किसानों की तुलना में गिनती में कम हैं। आपने इसका वीडियो देखा होगा कि फुट ओवर ब्रिज से दस बीस जवान आंसू गैस के गोले दाग़ रहे हैं। उसी दिल्ली पुलिस के जवान लाल क़िले से नीचे कूद रहे हैं।

क्या दिल्ली पुलिस की ये ट्रेनिंग है? इन जवानों की जान बचाने के लिए पुलिस के बाक़ी दल क्यों नहीं आगे आए? क्या कार्रवाई की? क्यों नहीं बैक दिया?

उसी लाल क़िले के बाहर से दोपहर के वक़्त एक वीडियो आया है जिसमें पुलिस के जवान कुर्सियों पर बैठे नज़र आ रहे हैं। दिल्ली दंगों के वक़्त भी पुलिस लाचार नज़र आ रही थी। उस वक़्त की ख़बरों को निकाल कर देखिए।

किस तरह से पुलिस की आलोचना हो रही थी कि वह मूक दर्शक बनी रही और ख़ुद भी हिंसा की शिकार होती रही। हिंसा करने वाली भीड़ थी उन्हें छूट मिली थी।उस हिंसा के नाम पर कौन लोग पकड़े गए यह आप जानकर भी क्या करेंगे।नज़र पर जब हिन्दू मुस्लिम का चश्मा चढ़ा हो तो आसानी से साफ़ नहीं किया जा सकता है।

दिल्ली दंगों के वक़्त स्पष्ट आदेश न मिलने के कारण दिल्ली पुलिस के ही अफ़सर हिंसा के शिकार होते होते बचे और कुछ पर जानलेवा हमला हुआ भी। पुलिस की खूब आलोचना हुई।

दिल्ली दंगों के वक़्त भी अरविंद केजरीवाल ने सेना बुलाने की माँग की थी। यह माँग इसलिए हुई क्योंकि दिल्ली पुलिस लाचार नज़र आ रही थी। क्या वाक़ई लाचार थी या ऐसे वक़्त पर लाचार होने दिया गया? सवाल पुलिस की नाकामी का भी है।

सवाल है कि देश की सबसे अच्छी पुलिस एक साल के भीतर दो मौक़ों पर इतनी लाचार कैसे नज़र आ सकती है?

दिल्ली दंगों के वक़्त एस एन श्रीवास्तव एक्टिंग पुलिस कमिश्नर बनाए गए थे। तब सवाल उठे थे कि तात्कालीन कमिश्नर हिंसा को रोकने में अक्षम हैं।

आज तक दिल्ली पुलिस के पास एक्टिंग कमिश्नर हैं। एस एन श्रीवास्तव साहब की कार्यकुशलता और अनुभव की काफ़ी चर्चा हुई थी।लेकिन सोचिए दिल्ली राजधानी है और यहाँ फ़ुल टाइम कमिश्नर नहीं है।

दिल्ली पुलिस के पास क्या क्या विकल्प थे, कितने सुरक्षा बल थे? इन सब पर जल्दी में बात नहीं होनी चाहिए।यह ख़बर आई थी कि परेड ख़त्म होते ही परेड की सुरक्षा में लगे जवान तुरंत ही किसानों की परेड की सुरक्षा में लगेंगे।

क्या यह समझा जाए कि उतनी देर तक किसानों की परेड की सुरक्षा अपर्याप्त थी? अगर उनकी ज़रूरत थी तो पहले से ही दूसरे राज्यों से सुरक्षा बलों को बुला कर तैनात किया जा सकता था।

किसान आंदोलन के लिए हिंसा की यह घटना सीधे जाल में जाकर फँस जाने के जैसी है। जो आंदोलन दो महीने से बार बार यह साबित कर रहा था कि तमाम उकसावे के बाद भी उसके भीतर शांति को लेकर स्थिरता आ गई है।

अनुशासन आ गया है। गणतंत्र दिवस के दिन उसकी इस स्थिरता को गहरा धक्का तो लगा ही है। बेशक बड़े हिस्से में परेड शांति से हुई। जिस तादाद में किसान ट्रैक्टर लेकर आए अगर सब अराजक होते तो हालात बिगड़ जाते।

हिंसक भीड़ के बीच भी कई किसान थे जो समझा रहे थे। उग्र लोगों को रोक रहे थे। पुलिस के भी कई जवान और मध्यम श्रेणी के अफ़सर उन्हीं के बीच में रह कर संवाद से हालात को सुलझा रहे थे। यह बेहद जोखिम का काम रहा होगा।

हिंसा और अराजकता का स्केल जब बड़ा हो जाता है तो पहले दिन सभी तथ्यों तक पहुँचना आसान नहीं होता। कल देर रात तक यहाँ से वीडियो आते रहे तो वहाँ से आते रहे। किसी में पुलिस बेवजह शांति से बैठे किसानों को मारती नज़र आ रही थी तो किसी में किसान पुलिस पर हमलावर थे।

25 जनवरी के प्राइम टाइम में मैंने कहा था कि अगर आपके मन में यह सवाल उठ रहा है कि सरकार ने 26 जनवरी के दिन परेड की इजाज़त क्यों दी तो आपका सवाल अच्छा है। जवाब मेरे पास नहीं है। बाद में पता चलेगा।

अब पता चल रहा है। सत्ता को हिंसा का वीडियो फ़ुटेज मिल गया है। अब यही वीडियो फ़ुटेज किसान आंदोलन पर भारी पड़ेगा। गोदी मीडिया के फैलाए आतंकवादी होने के नैरेटिव से किसान मुश्किल से बाहर आए या आ ही नहीं सके, आज भी जनता का बड़ा वर्ग अपने ही किसानों को आतंकवादी कह रहा है, लाल क़िले की हिंसा उनके सामने नई चुनौती है। किसानों के आंदोलन का घेरा कस चुका है।

(लेखक जाने माने पत्रकार हैं, यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है)

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