ये प्रेम प्रताप सिंह हैं। राजस्थान भास्कर के ब्यूरो चीफ़। इनका एक ट्विट देखिए। बहुत चालाकी से ख़बरों की आड़ में फेक न्यूज़ फैलाने का काम कर रहे हैं। फेक न्यूज़ की शुरुआत इसी तरीक़े से हुई थी। इसकी एक प्रक्रिया है। जिसके तहत ख़ास तरह के पाठकों की राजनीतिक आस्था ( bias) का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है और फिर उस तरह के लोगों को वैसी ही खबर की सप्लाई की जाती है। इसके लिए न होते हुए भी खबरें गढ़ दी जाती है। फिर वो खबर अपने आप वायरल बनती है। एक नेता का समर्थक बने रहने के लिए सूचनाओं के जाल से ग़ुलाम बनाया जाता है।

दोनों तरह से खबरें छपेंगी। एक पक्ष हेडिंग बनाएगा कि रवीश कुमार ने किसी चिरकुट को दिया जवाब तो दूसरी तरफ़ खबर बनेगी की कांग्रेस की सरकार रवीश कुमार को पद देने जा रही है। आप पढ़ लेंगे। राय बन जाएगी और इस बात से क्या मतलब कि खबर सही है या ग़लत।

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कोई ब्यूरो चीफ़ लेवल या संपादक स्तर का पत्रकार अनजाने में नहीं करता है ।क्योंकि अब यही करने के लिए पत्रकारिता की नौकरी मिल रही है। हर संस्थान में ऐसे आवारा लोग एडिटर बन गए हैं। एक फ़र्ज़ी खबर को ब्रेकिंग न्यूज़ का लेवल देकर चर्चा में आ जाएँगे। मेरे चलते अगर इन्हें चर्चा नसीब हो रही है तो शुक्रिया इनके नसीब का।

अमरीका में यह खेल शुरू हुआ। लेकिन वहाँ ऐसे लोगों को तैयार किया गया जो पत्रकारिता की मर्यादा में नहीं ढले थे। इन लोगों ने फ़र्ज़ी वेबसाइट बनाई। उनके नाम समाचार पत्रों जैसे रखे गए। फिर फ़र्ज़ी खबरें गढ़ी गईं। इस बात का ध्यान रखते हुए कि एक ख़ास नेता या विचारधारा के लोग इसे पढ़ेंगे और ख़बर वायरल होने लगेगी। चर्चा कहाँ होती है ? ट्विटर और फ़ेसबुक। जहां पर मुख्यधारा के संपादक और पत्रकार दिन काट रहे होते हैं। उन्हें लगता था कि ये चर्चित मामला है तो उसकी आड़ में छापने लगे। इस तरह एक माहौल बना जिसके नतीजे में अमरीकी इतिहास का सबसे फ़्राड व्यक्ति राष्ट्रपति बन गया।

भारत में यह खेल दूसरे तरीक़े से हुआ। मुख्यधारा के मीडिया संस्थानों को ही फेक न्यूज़ फ़ैक्ट्री में बदल दिया गया। उसके संपादक पत्रकार और एंकरों को इस काम में लगा दिया गया। ऐसा करते हुए वे लज्जित न हों उसके लिए आई टी सेल का सपोर्ट दिया गया। मंत्री ऐसे एंकरों को सपोर्ट करने लगे।

क्या दैनिक भास्कर जैसा संस्थान भी इस रास्ते पर चल निकला है? मुझे नहीं लगता लेकिन ऐसे पत्रकार और संपादक तो उसी संस्थान में हैं। आज के इस पोस्ट से जनसत्ता का दिन बन गया। जनसत्ता का लगता है कारोबार ही मेरे नाम से चलता है। मुझसे संबंधित कुछ भी जानकारी जिसे व्यक्तिगत या संदिग्ध बनाई जा सकती है, जनसत्ता चूकता नहीं। उसे पता है कि रवीश कुमार के नाम से लोग पढ़ने लगेंगे।

मैं महत्वपूर्ण नहीं हूँ। आप मुझसे नफ़रत करें या प्यार। इसकी प्रवाह नहीं करता। आप अपनी दीवारों पर लिख कर रख लें। भारत के लोकतंत्र की हत्या पत्रकारों और अख़बारों के हाथों हो रही है। आप इसे अपने जीवन भर सच होते देखेंगे। भारत की जनता याद रखे। एक दिन उसे अपने घर से अख़बारों और चैनलों को बाहर फेंकना होगा। बशर्ते अगर वह अपनी आज़ादी हासिल करने लायक़ बची होगी। ये बात अखंड सत्य है। भारत की जनता को अपना अस्तित्व बचीने के लिए मीडिया संस्थानों और ऐसे पत्रकारों से लड़ना ही होगा। लड़ने का मतलब है इन्हें पढ़ते रहने की गुलाम मानसिकता से खुद को आज़ाद करना होगा। ये जो आख़िरी पैरा है वो भारत की नियति का अखंड सत्य है। फ़्रेम करा कर दीवारों पर टांग दीजिए। यही घट रहा है। यही घटेगा।

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