साहित्य में माँ को जितना ‘रोमेंटिसाईज़’ किया गया है उतनी बात पिता पर नहीं हुई। इसकी कुछ भावनात्मक वजहें हो सकती हैं। माँ के साथ बच्चे का वक़्त अधिक गुज़रता है इसलिए उसका पूरा बचपन माँ के संघर्ष और उसके लियें पल पल किये जाने वाले त्याग का गवाह बन जाता है। बच्चे की साईकी में यह चीज़ें ज़िन्दगी भर के लियें रच बस जाती हैं। इसके उलट चूंकि बाप के संघर्ष की नेचर अलग होती है और हमारे लियें उसकी जद्दोजहद और क़ुर्बानी अधिकतर घर की चारदीवारी से बाहर होती है, इसलिए हम उसके वैसे गवाह नहीं बन पाते। फिर कभी-कभार पिता की सख्ती भी हमें झेलनी पड़ जाती है।
माँ का औरत होना उसके संघर्ष में अलग से एक मार्मिक असर भी पैदा कर देता है। इन सब पहलुओं के बावजूद इस पर सब सहमत हैं कि बाप का संघर्ष और त्याग भी अपने अंदर भावनाओं का समंदर समेटे हुए है। उर्दू शायरी में भी यही हुआ की माँ पर बहुत कुछ कहा गया लेकिन बाप पर उतनी बात नहीं हुई। मॉडर्न ग़ज़ल में शकील जमाली ने इस खाई को भरा है। एक पिता की साईकी, बच्चों के लियें उसके संघर्ष, इस संघर्ष के दौरान पैदा होने वाले द्वंद और एक बेहतर कल के सपनों को वास्तविकता में बदलने की धुन पर जितने शेर Shakeel Jamali ने लिखे हैं उतने किसी और मौजूदा शायर के यहाँ कम से कम मुझे नहीं मिले।
किसी की शायरी को ऐप्रेशियेट करने के लियें जो ज्ञान और समझ चाहिए वो तो मुझ में नहीं है लेकिन शकील जमाली की शायरी को पढ़कर मैं यह राय तो बना ही सकता हूँ कि उनकी शायरी शहरी मध्यम वर्ग की ज़िन्दगी के रंगों से भरी हुई है। इस क्लास की छोटी छोटी खुशियाँ, चुनौतियाँ, उम्मीदें, आशंकाएँ सबको शकील जमाली ने अपनी शायरी का विषय बनाया है। उनकी शायरी में जिस पिता का ज़िक्र है वो भी इसी अर्बन मिडिल क्लास का एक आम आदमी है। उसका हर दिन एक संघर्ष है और हर आने वाले कल के बारें में उसे ढेर सारी उम्मीदें हैं। चुनौतियों से निढाल इस इंसान का सुकून अपने बच्चे में है जिसे देख देख कर उसको हौंसला मिलता है और अगर वो आँखों के सामने ना हो तो यह बाप उदास भी हो जाता है।
ननिहाल से लौटी नहीं रौनक़ मेरे घर की
चुप यूँ हूँ, अभी मेरा खिलौना नहीं आया।
—
संजीदगी के लाख जाल फेंको
बच्चों की शरारतें अमर हैं।
बच्चे को देखकर बाप को मिलने वाली यह खुशी उसके लियें इतनी क़ीमती है कि जिस दिन वो पूरा दिन उसके साथ गुज़ारता है तो जैसे उसकी ईद ही हो जाती है।
ये छुट्टी का दिन हमसे मत छीनना
यही हम गरीबों का त्यौहार है।
—
चांद सितारे गोद में आकर बैठ गए
सोचा ये था पहली बस से निकलेंगे।
बाप होने का भावनात्मक पहलू क्या होता है यह शकील जमाली की शायरी में खूब झलकता है।
मैंने हाथों से बुझाई है दहकती हुई आग
अपने बच्चे के खिलौने को बचाने के लियें।
यहाँ आग में खिलौना बचाना एक खूबसूरत मैटाफर है जिसमें औलाद के लियें बाप के द्वारा किये गए हर तरह के संघर्ष सिमट आये हैं। बाप होने का जज़्बा जब ज़िंदगी से जूझने की हिम्मत बढ़ाता है तो दूसरी हर रुकावट को पार कर जाने की ताक़त पैदा होने लगती है। बात सिर्फ संघर्ष तक ही नहीं रहती बल्कि बच्चों के लियें वो सब कुछ दाव पर लगा दिया जाता है जो हासिल करने में अब तक का जीवन लगा दिया गया था।
मेरे बच्चों के मुस्तक़बिल के आगे
हमीयत क्या, तशख्खुस क्या, अना क्या।
—
कुछ खौफ खड़े हैं मेरे बच्चों के मुक़ाबिल
ये पल किसी सूरत मेरे आराम का नईं है।
एक पुरुष जब बाप की भूमिका में आता है तो उसके व्यक्तित्व में आने वाला बदलाव कितना ड्रास्टिक होता है इसको भी समझने की ज़रूरत है।
मौत को हमनें कभी कुछ नहीं समझा मगर आज
अपने बच्चों की तरफ देख के डर जाते हैं।
—
मैं अपने घर का अकेला कमाने वाला हूँ
मुझे तो सांस भी आहिस्तगी से लेना है।
बाप होने का मतलब सिर्फ वो इंसान होना नहीं जिसकी अपने जैसी संतान हो बल्कि वो होना भी है जिसकी ज़िंदगी की पूरी धुरी ही बदल गयी हो। अब उसकी तड़प, उमंग, आरज़ू सबका केंद्र कुछ और हो जाता है।
अपने खून से इतनी तो उम्मीदें हैं
अपने बच्चे भीड़ से आगे निकलेंगे।
—
अब खेल के मैदान से लौटो मेरे बच्चों
ता-उम्र बुज़ुर्गों के असासे नहीं चलते।
अपने वजूद की क़ीमत पर बच्चों के बेहतर कल के लियें लड़ने और डटने वाले बाप को तब भी दुख होता है जब उसके पास संसाधन ना हों और बच्चे कोई तमन्ना कर दें।और हां, उसी बाप का दिल उस वक़्त और ज़ख़्मी हो जाता है जब वो देखता है कि बच्चों ने हालात को देखते हुए अपनी ख्वाहिश दिल में ही दबा ली।
सब्र का पहला पाठ पढ़ाया ग़ुरबत ने
कल बच्चों ने फेंक दिया ग़ुब्बारों को।
लेखक: मालिके अश्तर, कॉपी एडिटर, दूरदर्शन न्यूज़
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