रवीश कुमार 

कुछ चीजों की लिस्ट बना लें। इससे आपको बार-बार या अपनी ज़रूरत के मौक़े पर कुढ़ने की ज़रूरत नहीं होगी। आज से नहीं बल्कि कई दशकों से लोकतंत्र की संस्थाएँ ख़त्म हो रही थीं। इन चीजों को बनाए रखने का मोल किसी ने नहीं समझा। लोगों के अधिकार सुनिश्चित कराने के लिए कई संस्थाएँ थीं। वो भीतर से खोखली और असरहीन कर दी गईं। फिर आया मीडिया। सारी दंतहीन संस्थाओं का विकल्प बन कर। अब यह भी ख़त्म हो चुका है। यह आपकी जानकारी और भागीदारी से हुआ। आपकी चुप्पी भी भागीदारी है। वरना नाम के लिए कितनी संस्थाएँ हैं। लेबर कोर्ट है। लेबर कमिश्नर है। अब जो समाप्त हो चुका है उसका इस्तमाल कुढ़ने के लिए न करें। इंजीनियर या डॉक्टर हो जाने से आपके अधिकार ज़्यादा सुरक्षित हैं या आपका शोषण नहीं होगा, ये भ्रम क्यों है, इसका आधार क्या है? क्या आपने दूसरे के लिए आवाज़ उठाई ? जब संस्थाएँ लोगों का दमन करती हैं तो आप लोगों के साथ खड़े होते हैं?

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अब क्या बचा है ? ट्विटर, फ़ेसबुक और वायरल। आख़िरी ठिकाना है। जब बड़ी बड़ी संस्थाएँ ख़त्म कर दी गईं तो ये तो दुकान है। ये भी ख़त्म होंगी। बल्कि हो चुकी हैं। अब यहाँ पर आलसी लोग ट्विट करते हैं।कई लोग मुझे बताते हैं कि हमने छह बार ट्रेंड कराया। पाँच लाख ट्विट किया। बीस बार ट्रेंड कराइये। उससे क्या होता है? जब जनता ने जनता को ही समाप्त कर दिया तो उसकी संख्या का कोई मतलब नहीं है। उसके साथ होने वाली नाइंसाफ़ी मीडिया और ट्विटर से दूर नहीं होगी। जब संस्थाएँ ही नहीं बची हैं जो मीडिया जगायेगा किसको। जब संस्थाएँ ही नहीं हैं तो ट्रेंड कराने से सुनेगा कौन। बेशक अपवाद के मामले में कुछ कुछ हो जाएगा लेकिन व्यापक रूप से आप सभी की मेहनत से ये समाप्त हुआ है। इसे सेलिब्रेट कीजिए। वरना बताइये आपने बनाया क्या है?

कई लोग मुझी को बताते हैं कि मीडिया चुप है। ख़त्म हो गया। हमारी बात उठा क्यों नहीं रहा? भाई मैं यही तो कई साल से कह रहा हूँ। तब आप सुन नहीं रहे थे। अब सारा मीडिया का विकल्प तो मैं नहीं हो सकता। संभव भी नहीं है। मैं तो ये बात कई साल से कह रहा था। अब आप अपने अंदर स्वाभिमान लाएँ। न मीडिया को कोसें। न मीडिया से कहें। अगर इसके बिना नहीं रह सकते तो संस्थाओं के निर्माण में जुटें और मीडिया के भी।

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