प्रधानमंत्री ने टीका ले लिया। टीका लेने की तस्वीर ट्विट कर दी। पहले तो यह अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री ने एम्स जाते वक्त खुले रास्ते का इस्तमाल किया। उनके रूट को सुरक्षित रास्ते में नहीं बदला गया। अत्यधिक सुरक्षा का जीवन कभी सामान्य नहीं होता इसलिए प्रधानमंत्री को भी कभी कभी इसका आनंद लेना चाहिए।
सामान्य सड़क से गुजरने का आनंद कितना सामान्य बनाता है यह तो व्यक्ति के मन पर निर्भर करता है। इस वीडियो में प्रधानमंत्री की कार एक ऑटो के बग़ल से गुज़रती दिखती है। उन्हें भी मन तो करता ही होगा कि ऑटो में बैठ कर दिल्ली घूम आए।
अब वो हो नहीं सकता और न करना चाहिए। कभी कभी इस तरह की संक्षिप्त सफ़र बिना सघन सुरक्षा के कर लेने में बुराई नहीं है। उन्हें हक़ है खुली हवा में साँसें लेने का।
लेकिन जिस तरह से गोदी पत्रकारों ने उनके वीडियो को लेकर कूदना शुरू किया उससे इस यात्रा का क्षणिक सुख प्रचार प्रोपेगैंडा में बदल गया। कई पत्रकार तो दूसरों को चिढ़ाने लगे कि देखना अब वे लोग इस यात्रा में भी साज़िश का एंगल खोज लाएँगे। ऐसा लग रहा था कि हताश गोदी पत्रकारों को प्रधानमंत्री ने ख़ुश होने के लिए एक वीडियो दे दिया है।
गोदी पत्रकार जिनके पास ढंग की एक खोजी ख़बर नहीं होती है वो क्यों ख़ुश थे? दरअसल बता रहे थे कि उनके पास भले ख़बर न हो लेकिन प्रधानमतंत्री की यात्राओं के रूटीन कार्यक्रम के डिटेल होते हैं। गोदी पत्रकारों को समाज में प्रासंगिक होने का सुख मिल गया था।
न्यूज़ रूम में ऐसे पत्रकारों का सोमवार बड़े आनंद में कटा। इस वीडियो के बहाने संपादक को भी झाँसा दिए रहे कि हम प्रधानमंत्री के प्रसार में लगे हैं। संपादक भी लगा होगा।
आपको यह समझना है कि गोदी पत्रकारों का टाइम वाक़ई गोल्डन टाइम है। जिस सूचना को प्रधानमंत्री ने खुद साझा की है उससे तो न्यूज़ रूम में बैठा कोई भी ख़बर बना लेगा और चला देगा। इस सूचना संग्रह में न तो मेहनत लगी और न कोई जोखिम।
बहुत से पत्रकार सिर्फ़ यही कर सैलरी ले रहे हैं बल्कि अब उन्हें इसी बात की सैलरी दी जा रही है। आप उनके ट्विटर हैंडल पर जाकर देखेंगे तो एक भी ख़बर ऐसी नहीं मिलेगी जिससे लगेगा कि ये पत्रकारिता का काम है।
अगर पुराने टाइम की तरह इनसे इतना पूछ दिया जाए कि आज आपके पास ख़बर क्या है और जो है उसमें ख़बर क्या है तो सब के सब दांत चियार दें । लेकिन मोदी नाम जपो और फ्री की सैलरी लो। जो ख़बर खोज कर लाता है उल्टा वही ग्लानि से भरा जीवन जी रहा है।
अब आते हैं प्रधानमंत्री की तस्वीर पर जिसमें वो टीका ले रहे हैं। प्रधानमंत्री ने अपने ट्विट में नहीं लिखा कि टीका देने वाली नर्स कहाँ की है। ज़ाहिर है उनके कार्यालय के मीडिया अधिकारी या एम्स से यह डिटेल लिया गया होगा। वैसे कल जिस तरह के पूरा मीडिया यह बताने में लग गया कि एक नर्स केरल की हैं।
एक पुड्डुचेरी की हैं और गमछा असम का है उससे तो यही लगता है कि यह जानकारी बाँटी गई होगी। अब आप सोचिए कि केरल और पुड्डचेरी की नर्स का होना केवल संयोग होगा? बिल्कुल नहीं। इस बात की स्क्रीनिंग हुई होगी कि केरल और पुड्डूचेरी की नर्स कौन हैं जहां चुनाव हो रहे हैं। क्या ऐसा करना अच्छा है?
प्रधानमंत्री के लिए नर्स का इस आधार पर चयन करना क्या ग़लत नहीं है? उनके लिए नर्स का चुनाव इस आधार पर होना चाहिए कि श्रेष्ठ कौन है। जिसे लगे कि प्रधानमंत्री जाति, धर्म, भाषा और इलाक़े के आधार पर भेदभाव नहीं करते हैं।
लेकिन गोदी पत्रकार कूद कूद कर बताए जा रहे थे कि नर्स कहाँ कहाँ की हैं। तारीफ़ करने के चक्कर में जनता को बता रहे थे कि हमारे प्रधानमंत्री की सोच का दायरा केवल चुनावी और सीमित है।
गोदी पत्रकार हर वक्त प्रधानमंत्री को चालाक चतुर इंसान के रूप में क्यों पेश करते हैं? फिर यह भी चाहते हैं कि बिना सुरक्षा एम्स तक की यात्रा की वाहवाही हो। क्या वह यात्रा भी इसी तरह के प्रोपेगैंडा का हिस्सा नहीं रही होगी।
वही दिन के दूसरे हिस्से में देश के दूसरे ताकतवर मंत्री अमित शाह टीका लगाने मेदांता जाते हैं। क्यों ? क्या उन्हें केरल और पुड्डूचेरी की नर्स पर भरोसा नहीं था? क्या उन्हें किसी और सरकारी अस्पताल में नहीं जाना चाहिए था? केवल टीका ही तो लगाना था ।
सवाल तो यह होना चाहिए कि प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या तमाम मुख्यमंत्रियों ने कल रामदेव की दवा क्यों नहीं ली? रामदेव की दवा का लाँच कराने दो दो कैबिनेट मंत्री गए थे। परिवहन मंत्री नितिन गड़करी और स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन। जो दवा मंत्री जनता के लिए लाँच करा रहे हैं वो ख़ुद क्यों नहीं ले रहे हैं।
नितिन गड़करी और हर्षवर्धन को कहना चाहिए था कि वे टीका नहीं लेंगे। रामदेव की बूटी लेंगे। कल पूरे दिन यह सवाल ग़ायब रहा कि प्रधानमंत्री से लेकर तमाम मुख्यमंत्रियों ने रामदेव की बूटी को नकार दिया और टीके पर भरोसा किया। तो क्या रामदेव की बूटी उन लोगों के लिए है जिन्हें बहकाया जा सकता है कि बाबा ने बनाया है तो आज़मा लेते हैं।
इसमें ख़राबी क्या है। इस धंधे में पैसा कौन कमा करा है। किसके विश्वास से छल कर कमा रहा है। अगर बूटी में दम है तो फिर सबको वही दवा लेनी चाहिए। क्यों टीके पर हज़ारों करोड़ ख़र्च किए जा रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने अपने लिए टीका का चुनाव कर बता दिया कि जिसे बूटी बेचना है बेचे वो नहीं लेने वाले। लेकिन क्या यह प्रधानमंत्री को शोभा देता है कि ख़ुद टीका ले लें और रामदेव को बूटी बेचने दें?