शास्त्री के नेतृत्व में 1965 में भारत ने जो कुछ भी हासिल किया, वह एक उल्लेखनीय जीत थी. 1962 की हार के बाद भारत का आत्मविश्वास लौटा. बाद में पाकिस्तानी सेना को लगा कि ‘उसने एक बेकार युद्ध लड़ा’ जिसका कुछ भी हासिल नहीं हुआ. पाकिस्तान ने यह आक्रमण कश्मीर हथियाने के लिए किया था, लेकिन अंतत: उसे अपनी ही जमीन वापस लेने के लिए समझौते की टेबल पर आना पड़ा. उसे ऐसा समझौता करना पड़ा जिसमें कश्मीर का जिक्र तक नहीं था. 

सबसे वीरतापूर्ण और गौरवशाली विजय 1971 में मिली. इंदिरा गांधी और जनरल मानेकशां ने वह कमाल किया, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की. अमेरिका शास्त्री के समय से ही आंख दिखा रहा था कि गेहूं नहीं देंगे तो खाओगे क्या. लेकिन इसके आगे न शांस्त्री झुके थे, न इंदिरा झुकीं. पाकिस्तान टूट गया. 3000 जवानों ने मिलकर पाकिस्तान के 95000 सैनिकों का आत्मसमर्पण करवा लिया. 

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नेहरू वह पहले व्यक्ति थे जिनके नेतृत्व में इस देश का गठन हुआ था. चीन को लेकर उनके विश्वास से वे धोखा खा गए और हार नसीब हुई. नेहरू को 1962 की हार से ऐसा सदमा लगा कि उनकी जान ही चली गई. यह देशभक्ति एक चरम रूप है कि आप देश की सुरक्षा में नाकाम रहें तो अपराधबोध में मर जाएं. 

यहां तो ऐसे ऐसे घाघ पड़े हैं कि 40 जवान शहीद हुए तो अगले ही दिन से उनके नाम पर वोट मांगने लगे. घुसपैठ होने पर कहते हैं कुछ हुआ ही नहीं है. सेना के पूर्व अधिकारी कह रहे 60 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा हो गया है. सरकार कह रही है कि सब चंगा सी. 

मेरे ख्याल से शास्त्री और इंदिरा के अलावा सारे प्रधानमंत्री सीमा सुरक्षा के मामले में असफल ही रहे. वाजपेयी पीएम बनते ही लाहौर गए तो उन्हें तोहफे में कारगिल मिला. मोदी पीएम बनते ही लाहौर गए और खाली हाथ लौटे. फिर जिनपिंग को झूला झुलाया और अब खुद ही त्रिशंकु की तरह झूल रहे हैं. सबसे खराब रिकॉर्ड मोदी का ही है जिनसे चीन, पाकिस्तान तो क्या, नेपाल तक न संभला. वह नेपाल जो आधे बिहारियों का नैहर और ससुराल है.

लेखक: कृष्ण कान्त,  वरिष्ठ पत्रकार 

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