नई दिल्ली: 25 मई की रात लगभग आठ बजे अमेरिका के एक श्वेत पुलिस वाले डेरेक शौविन ने अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की अपने पैरों से कुचलकर हत्या कर दी, वजह बहुत मामूली थी, जॉर्ज पर बीस डॉलर का नकली नोट देने का आरोप था, लेकिन चूंकि यह वजह एक अश्वेत ने पैदा की थी, इसलिए डेरेक शौविन के लिए यह उसे अपने पैरों तले कुचलकर मार डालने के लिए काफी लगी, इसके बाद समूचा अमेरिका बुरी तरह से सुलग उठा, एक वीडियो में सामने आया कि लोग वहां के वाइट हाउस तक में घुस गए, जिसके बाद वहां के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को कुछ देर के लिए बंकर में भी छुपकर रहना पड़ा, अमेरिका के लिए रंगभेद या नस्लभेद नया नहीं है, न ही इस तरह के प्रदर्शन नए हैं, नया सिर्फ इतना है कि इस बार वहां के राष्ट्रपति को भागकर बंकर में छुपना पड़ा,

इसके बाद दुनिया भर के कई देशों, खासकर यूरोप में भी जगह-जगह नस्लभेद और रंगभेद के खिलाफ प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो चुका है, सबसे ज्यादा तो सोशल मीडिया पर, यूट्यूब ने घटना के विरोध में अपना लोगो ब्लैक एंड वाइट कर दिया, माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नाडेला, ट्विटर के जैक डॉरसी से लेकर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई तक ने इसके खिलाफ मोर्चा खोला, इसी दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने ‘लूटिंग-शूटिंग’ को लेकर सोशल मीडिया पर एक स्टेटस अपडेट कर दिया, ट्विटर ने तो उसे हिंसक मैसेज के रूप में टैग किया, लेकिन फेसबुक ने ऐसा कुछ नहीं किया, ऐसा तब, जबकि फेसबुक में काम करने वाले ढेरों लोगों का यह मानना है कि हिंसा किसी भी शक्ल में स्वीकार नहीं की जा सकती, चाहे वह न्यायिक हिंसा ही क्यों न हो, फेसबुक में प्रोडक्ट डिजाइन के डायरेक्टर डेविड गिलिस ने कहा कि ट्रम्प का यह बयान ‘अतिरिक्त न्यायिक हिंसा’ को प्रोत्साहित करता है,

देश दुनिया की अहम खबरें अब सीधे आप के स्मार्टफोन पर TheHindNews Android App

इस विषय पर मार्क जुकरबर्ग और फेसबुक कर्मचारियों में लगभग 90 मिनट मीटिंग चली, इसमें मार्क ने कर्मचारियों की बातों को इस तर्क से किनारे लगा दिया कि हिंसा भड़काने के बारे में उनकी, यानी फेसबुक की नीति राज्य में बल प्रयोग की चर्चा की अनुमति देती है, जबकि ठीक उसी वक्त ट्विटर की नीति किसी भी हिंसा या बल के प्रयोग की चर्चा करने की अनुमति नहीं दे रही थी, कमोबेश गूगल और यूट्यूब की भी, फेसबुक पर हिंसा को बढ़ावा देने के ऐसे आरोप पहली बार नहीं लगे हैं, अपने यहां ही, एंटी सीएए प्रोटेस्ट से लेकर पिछले पांच छह सालों में देश में जहां-जहां दंगे हुए, उत्पीड़न हुआ, फेसबुक पर ऐसे सैकड़ों आरोप लगे कि रिपोर्ट करने के बावजूद उसने हिंसक चर्चा से जुड़ी सामग्री को ब्लॉक नहीं किया या वॉर्निंग नहीं लगाई,

जबकि बाकी लोगों ने रिपोर्ट करने पर समुचित कार्रवाई की, ट्विटर ने तो हिंसा की चर्चा करने वाले उन लोगों के ट्वीट से लेकर एकाउंट तक ब्लॉक किए, जो कहीं न कहीं शासन-सत्ता से जुड़े थे, वहां न्यायिक और गैर न्यायिक हिंसा की एक ही कैटेगरी है, जबकि फेसबुक के पास इसकी कई कैटेगरीज हैं, या फिर शायद कई लोगों की तरह मार्क जुकरबर्ग को भी इसी में ही अर्थसार दिखता हो, क्योंकि अहिंसक आंदोलनों से जुड़े बहुतरों के ये आरोप रहे हैं कि फेसबुक उनकी शांति, समानता या ऐसे ही किसी सपने पर चर्चा करने वाली सामग्री हटा चुका है,

समानता, अस्मिता, शांति, आज़ादी और अहिंसा जैसे कुछ शब्द हैं जो दुनिया ने तबसे सीखे हैं, जब से उसने उदारवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद और लोकतंत्र जैसे कुछ नए प्रयोग करने शुरू किए हैं, लेकिन नस्लवाद, जातिवाद, धर्मवाद और रंगवाद जैसी चीजें वह तभी से सीख रही है, जबसे उसने देवता गढ़े हैं, जानवरों में देवता नहीं होते और वे अपनी व्यक्तिगत जरूरत पूरी न होने पर ही हिंसक होते हैं, जबकि हमने भोजन और समागम के अतिरिक्त हिंसक होने के हजारों बहाने बना रखे हैं, ऐसे में ट्विटर का यह कहना सही है कि न्यायिक हिंसा भी हिंसा का ही एक बहाना है, जिसका समर्थन फेसबुक स्टाफ ने भी किया है,

अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की घटना के बाद वहां नस्लभेद को बढ़ावा देती न्याय व्यवस्था के कई किस्से सामने आए हैं, खुद वहां के राष्ट्रपति ट्रम्प के कई सारे ऐसे ट्वीटस हैं, उनके पुराने समय के ढेरों किस्से हैं, जिसमें वे खुलेआम नस्लवाद को बढ़ावा देते रहे हैं, यह मानी हुई बात है कि हिंसा किसी भी रूप में जायज नहीं है, भले ही वह न्यायिक ही क्यों न हो, यही वजह है कि उनके बार-बार ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ कहने के बावजूद, वहां नस्लवाद के भुक्तभोगी और उनसे सहानुभूति रखने वाले लोग ट्रम्प के अमेरिका में अपनी अस्मिता का एड्रेस पूछने सड़कों पर निकल पड़े हैं,

गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और ट्विटर जैसे दुनिया के टेक जॉयंट्स ने तो वक्त की नजाकत के साथ-साथ वक्त की जरूरत को काफी कुछ पकड़ लिया है, पर फेसबुक इन सबसे अलग अभी न्यायिक हिंसा के ही पाले में खड़ा रहना चाहता है, इसके चलते अमेरिका में इसका विरोध फेसबुक ऑफिस से बाहर निकलकर जनता में फैल चुका है, वहां बाकायदा नस्लवाद के साथ-साथ फेसबुक से भी छुटकारे का अभियान जोरों पर है, इससे कहीं न कहीं यह बात भी निकलकर आती है कि हिंसा भले ही न्यायिक हो, उसके लिए सैकड़ों कानूनी तर्क-वितर्क हों, वह नस्ल, जाति, धर्म, क्षेत्र जैसे ही बंटवारों की तरह वह एक कुतर्क ही है, अमेरिका में चल रहे आंदोलन में तकनीक की दुनिया भी काफी कुछ सिखा रही है, बशर्ते वह व्यवहार में भी उतरे, वरना कहीं ऐसा न हो कि एक दिन सबको अपने-अपने बंकरों में छुपना पड़े

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here