नई दिल्लीः मुसलमानों का दूसरा बड़ा त्यौहार ईद उल अज़हा 12 अगस्त पूरे देश में मनाया जाएगा, इस त्यौहार पर क़ुर्बानी का प्रचलन है। मुस्लिम समाज ईद की नमाज़ के बाद जानवरों की क़ुर्बानी करता है। पिछले कुछ वर्षों से हर बार बकरीद के त्यौहार पर अमेरिका की संस्था पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (PETA) के भारतीय सदस्य क़ुर्बानी को पशुओं पर अत्याचार बताकर इसका विरोध करते हैं।
पिछले पांच वर्षों आरएसएस के मुस्लिम विंग मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की तरफ से क़ुर्बानी के इस त्यौहार पर केक के बने बकरे की क़ुर्बानी की जाती है और इसे इकोफ्रेंडली ईद का नाम दिया जाता है। सोशल मीडिया पर भी क़ुर्बानी के इस त्यौहार पर कुछ असमाजिक तत्वों द्वारा अशोभनीय टिप्पणी की जातीं रहीं हैं।
बकरीद और गांधी
लगभग सौ साल पहले यानी 8 जुलाई 1924 को अपने अख़बार ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित एक लेख में इस तरह की बातें करने वालों को नसीहत करते हुए कहा था कि बकरीद का त्यौहार हिन्दू व मुसलमानों को एक तरह की चिंता की स्थिति में डाल देता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें सहनशील होना चाहिए। हिन्दू, मुसलमानों के त्यौहारों में क्यों दखल देते हैं? मुसलमान बकरीद के दिन पशुओं की बलि देते हैं। इन पशुओं में गाय भी शामिल है। परंतु मुसलमानों को गाय की बलि क्यों चढ़ानी चाहिए जब गाय से हिन्दुओं का भावनात्मक संबंध है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि क्यों न मुसलमान सन् 1921 को याद करें जब मुसलमानों ने हिन्दुओें की भावनाओं का ख्याल रखते हुए हजारों गायों को बचाया था। इस बात को स्वयं हिन्दुओं ने स्वीकार किया था। उन्होंने मुसलमानों से भी अपील की थी कि बकरीद के दिन मुसलमानों को हिन्दुओं की भावनाओं का ध्यान रखना चाहिए और हिन्दुओं को भी मुसलमानों के रीति-रिवाजों का सम्मान करना चाहिए, भले ही वे उन्हें अच्छे न लगते हों। गांधी जी ने कहा था कि इसी तरह मुसलमानों को भी हिन्दुओं के मूर्तिपूजा के रीति-रिवाजों का सम्मान करना चाहिए और सारा मामला ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। ईश्वर को ही फैसला करने दें, पड़ोसियों को नहीं।