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कहीं आपको भी तो नहीं मिलने लगा है परपीड़ा में सुख? पढ़िए अशफ़ाक़ अहमद का लेख

कहीं आपको भी तो नहीं मिलने लगा है परपीड़ा में सुख? पढ़िए अशफ़ाक़ अहमद का लेख

जी हाँ, परपीड़ा में भी सुख लिया जा सकता है, अक्सर लोग लेते हैं.. नार्मल टर्म में ऐसे लोग एक तरह से कुंठित होते हैं। जो ख़ुद अचीव न कर पाये हों, किसी और को अचीव करते देख उसके लिये इनके अंदर एक किस्म की दबी हुई नफरत पैदा हो जाती है और फिर जब वह शख़्स इनके ज़रिये या किसी और के ज़रिये कष्ट पाता है तो उसके कष्ट में इन्हें एक चरम सुख की अनुभूति होती है। यह एक नकारात्मक भाव है और इसे किसी भी सभ्य समाज में ठीक नहीं समझा जाता। ऐसा नहीं है कि मानव स्वभाव में यह भाव कोई नया हो— बल्कि यह भी मानव सभ्यता जितना ही प्राचीन है लेकिन इतना ज़रूर है कि परपीड़ा में सुख अनुभव करने वालों की तादाद पहले के दौर में नगण्य थी, और इसे एक एब के रूप में ही लिया जाता था।

लेकिन फिर सुप्रीम लीडर का दौर आया और इस ऐब को सामाजिक स्वीकृति दिलाने और इसे ग्लोरीफाई करने का प्रयास शुरु हुआ, जहां यह ऐब या अवगुण न हो कर, यत्र-वत्र व्याप्त समस्याओं से निर्लिप्त करके चरमसुख का एकमात्र कारक बन जाये, जहां यह शर्मिंदगी का विषय न रहे, जहाँ यह किटी पार्टी, पारिवारिक गपशप, ग्रुप चैटिंग, चाय की टपरी, पान की गुमटी की परिचर्चा में या किसी भी पब्लिक प्लेटफार्म तक पर स्वीकारने योग्य एक्ट बन जाये और बिना किसी झिझक के इस भाव का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा सके।

इस अवगुण को सामाजिक स्वीकृति दिलाने और क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में इसकी परिभाषा बदलने का पहला सफल प्रयोग सुप्रीम लीडर ने 2016 में नोटबंदी के रूप में किया— जहां पहली बार कई करोड़ के साईज वाले शोषित, वंचित, गरीब वर्ग ने परपीड़ा में सुख ढूंढने की कला सीखी। यह एक निहायत बचकाना, वाहियात और आगे अच्छी-खासी चलती अर्थव्यवस्था को गर्त में ले जाने वाला घटिया फैसला था लेकिन मीडिया/आईटीसेल/संघ नेटवर्क के ज़रिये इसे ऐसे मास्टर स्ट्रोक के रूप में प्रचारित किया गया कि इससे सारे दो नंबर के धंधे वाले, काले धन वाले, आतंकवाद/नक्सल को फंडिंग करने वाले खत्म हो जायेंगे, बर्बाद हो जायेंगे। अमीर-अमीर लोग भिखारियों की तरह बैंकों की लाईन में खड़े नजर आयेंगे और वे पहली बार उस पीड़ा को अनुभव करेंगे, जो हमेशा गरीब के हिस्से आती है। अमीरों की बर्बादी, परेशानी की कई सच्ची झूठी कहानियां प्रचारित की गईं।

उन दिनों मैं अपने आसपास के गरीब सब्जी वालों, ठेले वालों, पान की गुमटी वालों, मजदूरों, किसानों, ग्रामीणों को ऑब्जर्व करता था कि वे ऐसे माहौल में क्या सोचते हैं और वे खुश थे। ख़ुद को पैसों के लाले पड़े थे, दवा इलाज के लिये पैसे नहीं थे, शादी के लिये जमा किये पैसे बेकार हो गये थे, जरूरी कामों के लिये पैसे नहीं थे, घर में बरसों जमा किये पैसे बैंकों को पूज आये थे और अपने ही पैसों के लिये काम-धाम छोड़ रोज बैंकों में लाईन लगते थे। हर किस्म की परेशानी झेल रहे थे, उधर सुप्रीम लीडर जापान जा कर मरी हुई शर्म के साथ ठहाके लगा कर लोगों को ताली पीटते बता रहा था, कि घर में शादी है और पैसे नहीं हैं।

सौ से ऊपर लोग इस आर्थिक अराजकता का शिकार हो कर मर गये.. कोई और रीढ़ वाला देश होता तो सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आते, लेकिन भारत में सब शांति थी। किसी ने कुछ विरोध किया तो एक गुंडा टीम तैयार थी, यह समझाने के लिये कि वहां सीमा पर फौज खड़ी है और तुम यहां थोड़ा लाईन में नहीं लग सकते। इतने बदतर माहौल में यह सत्तर अस्सी करोड़ के साईज वाला निम्नवर्गीय/निम्न मध्यम वर्गीय/ मध्यमवर्गीय जनसमूह एक काल्पनिक सुख से सराबोर था, परपीड़ा के सुख से.. उस दौर में आप जिससे बात करते, वह एक तरह से कोई काल्पनिक कारण लिये खुश था कि अब अमीरों को भी, अब फलां को भी परेशानी पता चल रही है, हर किसी के पास ऐसी दो चार कहानियां होती थीं जो बताती थीं कि फलाने सेठ या पार्टी के नेता को कैसी मार पड़ी है नोटबंदी से। फलाने सेठ और ढिमाके जी की तकलीफ के सुख ने उसे अपनी तकलीफ से मुक्त कर दिया था। देशहित है, सुप्रीम लीडर ने किया है तो बढ़िया ही किया होगा वाले भाव चेहरे पर दिखते थे, मन के अंदर परपीड़ा का सुख व्याप्त रहता था।

इसके बाद यह चलन चल निकला… आठ सौ साल बाद आई चौबीस कैरेट शुद्ध सनातनी सरकार के पूर्ण बहुमत के साथ कायम रहने, और हिंदू/राष्ट्रहित बता कर अपने साथ न आने वाले हर वर्ग के खिलाफ अपनाये दमनकारी रवैये में यह सुख भरपूर ढंग से लिया जा रहा है, शिकार कभी पार्टी के नाम पर होता है तो कभी दल/संगठन के नाम पर, कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी सीधे-सीधे धर्म के नाम पर। अब तो हर प्रताड़ना में सुख लेने वालों की भीड़ है, अब इस प्रताड़ना को जायज़ ठहरा लिया गया है, वक्ती तौर पर कोई भी बहाना गढ़ लिया जाता है लेकिन अंतर में वही परपीड़ा में सुख अनुभव करने का चस्का है। अब यह राष्ट्रीय नशा बन चुका है… हम सब कहीं न कहीं इसके आदी हैं। आज किसी भाजपाई/संघी की दुर्गति हो, जो भले मानवीय पैमाने पर क्षोभ उपजाने वाली हो, लेकिन वह हमें एक खुशी देती है। संवेदनशीलता अब पक्ष देख कर जाग्रत होती है.. क्या मेरी क्या आपकी।

ठीक इसी तरह एक बहुत बड़ी भीड़ आजकल बुलडोजर पुराण में चरमसुख ले रही है, परपीड़ा के अप्रतिम आनंद को भोग रही है। उसे पता है कि इस सड़ी गर्मी के मौसम और इतनी महंगाई के दौर में किसी का घर मकान ढहा देना, खराब आर्थिक माहौल में किसी को चार पैसे देने वाली दुकान/गुमटी जमींदोज कर देना न कानूनी एतबार से सही है, न मानवीय एतबार से, न ही संवैधानिक एतबार से तर्कसंगत है.. अवैध/नियम कायदे ताक पर रख कर बने निर्माण/कब्ज़े/अतिक्रमण में तो आधा देश आ जायेगा लेकिन उसे हटाने की बाकायदा कानूनी प्रक्रिया होती है, जो कि धर्म देख कर तय नहीं होती। घर कोई एक आदमी जिंदगी भर की मेहनत और कमाई से बनाता है, उसके परिवार में चार-पांच लोग हो सकते हैं, कोई एक आरोपी बन जाये, अपराधी निकल जाये तो उसके पीछे उन चार पांच लोगों के आशियाने को ढहा देना भला किस एंगल से उचित है, जिसे बनाने में परिवार के किसी और शख़्स का हाथ था।

लेकिन चूंकि बुलडोजर उर्फ जेसीबी के खास निशाने पर मुस्लिम हैं तो इस अन्याय और अत्याचार में भी एक सुख है, परपीड़ा का आनंद है। देखिये, खींसे निकली पड़ रही होंगी। खुशी छुपाये न छुप रही होगी। अब परपीड़ा में सुख तलाशना एब नहीं है, इसे सीना तान कर लिया जा सकता है। लोग ले ही रहे हैं। आप भी लीजिये.. हमें मौका मिलेगा तो शायद हम भी लेंगे, क्योंकि भाई साहब… इंसान तो हम भी हैं न। अपने आसपास से ही चीजें सीखते हैं.. कभी लोगों की मौत पर लोग हंसना बुरा समझते थे, लेकिन आज तो हर मौत पर पक्ष देख कर ज्यादातर लोग हंस ही रहे हैं।

अशफ़ाक़ अहमद

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