कोरोना से बचाव का सबसे कारगर उपाय वैक्सीन (टीकाकरण) से निकलेगा और तभी सामान्य जनजीवन दुनिया भर में बहाल होगा। सामान्य तौर पर किसी वैक्सीन को बनाने में 2-3 साल का वक़्त लगता है लेकिन वर्तमान आपात स्थिति के चलते दुनिया भर में कई प्रयोगशालाएं कोविड-19 का टीका जल्द से जल्द बनाने में लगी हैं।  वैक्सीन अपने में कोई दवा नहीं है, लेकिन यह हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मज़बूत बनाने में सहयोग करती है। सामान्य तौर पर हमारा शरीर अपनी कोशिकाओं या उनके जैविक अवशेषों को पहचानता है और इसके इतर बाहर से पहुंची अन्य जैविक कोशिकाओं या उनके अवशेषों को चिन्हित कर उन्हें नष्ट करने की क्षमता रखता है। हालाँकि पहली बार जब शरीर का सामना किसी नए जीवाणु, विषाणु, पराग कण, फ़ंगस अन्य जैविक पदार्थ से होता है तो उसे पहचानने में समय लगता है और प्रतिरक्षा तंत्र उससे मुक़ाबला करने को तैयार नहीं रहता। इसका फ़ायदा जीवाणु या विषाणु या किसी परजीवी को मिलता है और वह अपनी संख्या बढ़ाने में तथा शरीर की कोशिकाओं को कुछ हद तक नष्ट करने में सफल हो जाता है और व्यक्ति बीमार पड़ जाता है।

धीरे-धीरे प्रतिरक्षा तंत्र जागता है और वह इस कारक की पहचान करके उसे नष्ट करने की कोशिश में लग जाता है और आगे के लिए उस कारक को अपनी मेमोरी में रजिस्टर कर लेता है। दूसरी बार जब कोई जीवाणु या विषाणु शरीर में पहुँचता है तो उसे झट से पहचान कर जल्द से जल्द ख़त्म करने की क़वायद चल पड़ती है। यह समझा जा सकता है कि पहली बार में शरीर भोथरे औज़ार बनाता है और फिर दूसरी-तीसरी बार उनको तराशकर धार लाई जाती है। इसी प्राकृतिक क्षमता का लाभ टीके से मिलता है। होता यह है कि वैज्ञानिक जीवाणु के मृत अवशेष या विषाणु की सतह पर मौजूद किसी प्रोटीन का अंश (एंटीजन) शरीर में इंजेक्ट करते हैं जिससे प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है लेकिन हम बीमार नहीं पड़ते। टीकाकरण के बाद जब सचमुच का जीवाणु या विषाणु शरीर पर घात लगाता है तो उसे तुरंत पहचानकर नष्ट कर दिया जाता है।

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अत: वैक्सीन का काम मनुष्य के प्रतिरक्षा तन्त्र को सम्भावित जैविक ख़तरों (जीवाणु, विषाणु आदि) से निपटने के लिए प्रशिक्षित करना व आवश्यक औज़ार (एंटीबॉडी) बनाने में मदद करना है। लेकिन सभी टीके समान नहीं होते। कुछ सिर्फ़ एक बार लगाने से हम जीवनभर के लिए सुरक्षित हो जाते हैं तो अन्य हमें कुछ अवधि के बाद लगाने पड़ते हैं, जैसे टेटनस का हर 5-10 साल में और फ़्लू का हर वर्ष लगाना पड़ता है। अन्य के एकाधिक बूस्टर लेने पड़ते हैं। 

सिद्धांत के स्तर पर वैक्सीन बनाना एक बेहद मामूली सी कसरत दिखती है लेकिन बड़ी मात्रा में वैक्सीन बनाने के लिए वायरस को औद्योगिक स्तर पर प्रयोगशाला में उगाना चुनौती है। कई बार वायरस की सतह पर मौजूद प्रोटीन के एक छोटे से हिस्से को जीवाणु या किसी सेल लाइन के भीतर क्लोन करके बनाया जाता है और फिर वहाँ से उसे वैक्सीन की तरह इस्तेमाल करने के लिए अलग किया जाता है। फ़िलहाल प्रोटीन बेस्ड वैक्सीन बनाने वाली दो कम्पनियाँ Sanofi and Novawax कोविड-19 की स्पाइक प्रोटीन की पहचान करने वाली वैक्सीन बना रही हैं। इस तरह की वैक्सीन अपेक्षाकृत्त अधिक कारगर होती हैं लेकिन इन्हें विकसित करने और बड़े स्केल पर इनके उत्पादन के लिये डेढ़ से दो साल का वक़्त लगने की सम्भावना है।

फ़्लू वायरस की वैक्सीन आमतौर पर चार महीने में बनाई जाती है और इसके लिए फ़्लू वायरस को मुर्ग़ी के लाखों अंडों के भीतर इंजेक्ट किया जाता है। चूँकि फ़्लू वायरस बहुत तेज़ी से बदलता है और उसके लिए बनी हुई इस वर्ष की वैक्सीन अगले साल काम नहीं करती तो हर वर्ष नई वैक्सीन बनानी पड़ती है। वैज्ञानिक मॉडलिंग के हिसाब से अनुमान लगाते हैं कि वायरस कितना बदलेगा और उस हिसाब से वैक्सीन बनाते हैं। वैज्ञानिक यह देख रहे हैं कि कोविड-19 का विषाणु भी बदल रहा है। इस वायरस से बचाव के लिए कौन सी अप्रोच कारगर होगी यह इस बात से तय होगा कि वायरस तेज़ी से बदलता है या धीरे से बदल रहा है और यह बदलाव कहाँ हो रहे हैं। 

प्रोटीन बेस्ड वैक्सीन के अलावा जीन-बेस्ड वैक्सीन पर भी साथ-साथ काम चल रहा है। इस अप्रोच में कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन जीन का एक हिस्सा मनुष्य की कोशिकाओं में सीधे इंजेक्ट करके यह उम्मीद की जा रही है कि मनुष्य कोशिका के भीतर ही इससे पहले RNA और फिर प्रोटीन बनेगी। इस परदेशी प्रोटीन को मनुष्य का प्रतिरक्षा तंत्र पहचान लेगा और इम्यून सिस्टम सक्रिय हो जाएगा। कुछ कम्पनियाँ RNA-बेस्ड वैक्सीन भी बना रही है। आरएनए-वैक्सीन में जीवाणु या विषाणु के RNA के एक हिस्से को शरीर के भीतर इस उम्मीद में प्रविष्ट कराया जाता है कि इससे मनुष्य की कोशिकाओं के भीतर प्रोटीन बन जायेगी।

प्रयोगशाला में DNA या RNA को बड़ी मात्रा में आसानी से कुछ दिनों के भीतर बनाया जा सकता है, लेकिन इस अप्रोच में DNA या RNA की डिलिवरी मनुष्य की कोशिका के भीतर सटीक जगह में सुनिश्चित नहीं की जा सकती है। फ़िलहाल इस तरह की वैक्सीन को पहले कामयाबी नहीं मिली है और FDA ने भी इस तरह की किसी वैक्सीन को अब तक अप्रूव नहीं किया है। 16 मार्च से सियाटल में एक RNA वैक्सीन का ट्रायल शुरू हुआ और आज से एक जीन बेस्ड वैक्सीन INO-4800 का ट्रायल पेंसलवेनिया में शुरू हो रहा है। इस वैक्सीन को गेट फ़ाउंडेशन की मदद से Inovio Pharmaceuticals ने बनाया है। आधुनिक वैक्सीन चाहे वह प्रोटीन बेस्ड हो या DNA/RNA बेस्ड हानिरहित होती हैं। यदि इनसे कोई फ़ायदा नहीं मिलता तो नुक़सान भी नहीं पहुँचता। यदि यह किसी ट्रायल में इस्तेमाल होती हैं तो प्रतिभागियों को इससे कोई ख़तरा नहीं होता। ट्रायल की ज़रूरत इसलिए पड़ती है कि यह वैक्सीन प्रभावी है या नहीं। चार से छह महीनों के भीतर यह पता चलेगा कि यह वैक्सीन कितनी कारगर हैं। शायद अगले दो सालों के भीतर पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन विकसित देशों में फ़्लू वैक्सीन की तरह उपलब्ध हो जायेगी। लेकिन यह अभी लगभग असम्भव दिखता है कि दुनिया की बड़ी आबादी को वैक्सीन मिल सकेगी।

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